भानु अथैया का तमाचा

-अजय ब्रह्मात्मज
    पिछले दिनों खबर आई कि कॉस्ट्यूम डिजायनर भानु अथैया ने ‘गांधी’ फिल्म के लिए मिले आस्कर पुरस्कार की स्टैचू अकादेमी को लौटा दी। 86 वर्षीया भानु अथैया को नहीं लगता कि 1983 में आस्कर पुरस्कार की स्मृति चिह्न के रूप में मिला स्टैचू उनके देश में सुरक्षित रहेगा। उन्होंने इस स्टैचू के साथ ‘गांधी’ फिल्म के शोध और डिजायन से संबंधित कागजात भी अकादेमी को भेंट किए। उनका तर्क है कि भारत में जब रवींद्रनाथ टैगोर का नोबल पुरस्कार का मेडल चोरी हो सकता है तो उन्हें मिले स्टैचू की क्या कद्र होगी? उन्होंने देश में हो रही कीमती और महत्वपूर्ण कलाकृतियों की चोरियों का भी उल्लेख किया है।
    भानु अथैया ने अकादेमी को स्टैचू लौटा कर देश और समाज के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया है। कहने को हमारी सभ्यता का इतिहास हजारों साल पुराना है, लेकिन हम अभी तक इतने सचेत नहीं हुए हैं कि पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को सरक्षित रख सकें। इस देश की व्यवस्था जिस लचर तरीके से चल रही है, उससे भी बुरी स्थिति धरोहरों की संरक्षा की है। प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप से बच रहे ऐतिहासिक धरोहरों और दस्तावेजों के प्रति हमारी लापरवाही शर्मनाक है। सभ्य समाज के रूप में हमारे अंदर इतनी सभ्यता भी नहीं आई है कि श्रेष्ठ, उत्तम और अनोखी कृतियों के संरक्षण के संदर्भ में कुछ करें। कला के सभी क्षेत्रों में यह लापरवाही और उदासीनता नजर आती है।
    करोड़ों की कमाई करने वाली हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हर साल विभिन्न पुरस्कार और समारोहों के नाम पर अरबों रुपए खर्च कर देती है, लेकिन अभी तक किसी स्टार, फिल्मकार या फिल्म अध्येता ने दस्तावेजों के संग्रह और संग्रहालयों के निर्माण की पहलकदमी नहीं दिखाई है। व्यक्तिगत रूप से कुछ लोग शिद्दत के साथ यह काम करते हैं, लेकिन स्वाभाविक सहयोग नहीं मिलने से उनका उद्यम उनके निधन या निष्क्रियता के साथ ही समाप्त हो जाता है। फिल्म एंड टेलीविजन इंडस्टीटयूट, पूना के कर्मठ फिल्म प्रेमी पीके नायर की पहल से पूना में आर्काइल का काम शुरू हुआ। भारत सरकार की मदद से चल रहे इस आर्काइल की वर्तमान हालत बहुत अच्छी नहीं है। दूसरे, इसे फिल्म इंडस्ट्री का भरपूर सहयोग नहीं मिलता। निर्माता-निर्देशक, तकनीशियन या स्टार अपनी कृतियों और कार्य के दस्तावेज यहां नहीं भेजते। अपनी फिल्मों के प्रिंट भेजने तक के मामूली श्रम और व्यय से भी वे बचते हैं।
    हर साल सैकड़ों फिल्में बनती है। पिछले सौ सालों में बनी लाखों फिल्मों की फेहरिस्त बनाएं तो उनमें से अधिकांश के प्रिंट तक नहीं मिल पाएंगे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री एक ईकाई के रूप में इस पर गौर नहीं करती और अकेले व्यक्ति की अपनी सीमाएं होती हैं। पिछले दिनों जया बच्चन ने एक बातचीत में कहा था कि अमिताभ बच्चन की सारी फिल्मों के प्रिंट उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री में अकेले अमिताभ बच्चन अपने जीवन और कार्य के दस्तावेजीकरण का प्रयास कर रहे हैं। उनकी सारी गतिविधियां कैमरे में दर्ज की जाती हैं और उनका वर्गी करण कर संरक्षित कर दिया जाता है। यहां तक कि पत्रकारों से की गई बातचीत भी रिकॉर्ड की जाती है। कुछ पत्रकारों को यह लगता है कि अमिताभ बच्चन शंकालु स्वभाव के हैं, इसलिए वे यह सब करते हैं। इस धारणा के विपरीत वे बहुत नेक उदाहरण पेश कर रहे हैं। काश। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की दूसरी हस्तियां भी उनका अनुकरण करतीं। 
    भानु अथैया के स्टैचू लौटाने के फसेले के तमाचे से सबकुछ लेते हुए समाज और सरकार को पहल करनी चाहिए। इस देश में सुरक्षा के नाम पर अनगिनत राशि खर्च होती है। उस राशि का छोटा हिस्सा भी कलाकृतियों और स्मृतियों के संरक्षण में खर्च हो जाए तो बड़ी बात होगी। मुझे लगता है कि किसी पॉपुलर फिल्म स्टार को इस दिशा में पहला कदम उठाना चाहिए। उसके आह्वान पर शायद नजरिया बदले और सक्रियता बढ़े।

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अपने धरोहर की सुरक्षा के लिए जागरूकता लाने के प्रयास होने चाहिए।

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