तब्बू से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
तब्बू
‘बाजार’ और ‘हम नौजवां’ में झलक दिखलाने के बाद 1987 में तेलुग़ू फिल्म कुली नं. 1 से
तब्बू ने अभिनय यात्रा आरंभ की। उनकी पहली हिंदी फिल्म ‘प्रेम’ बनने में ही सात साल लग गए। बोनी
कपूर ने अपने छोटे भाई संजय कपूर के साथ उन्हें लांच किया था। 1994 में आई ‘विजयपथ’ से उन्हें दर्शकों ने पहचाना
और मुंबई के निर्माताओं ने रूक कर देखा। तब्बू ने हर तरह की फिल्मों में काम किया।
उन्हें ‘माचिस’
और ‘चंादनी बार’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार
से सम्मानित किया गया। मीरा नायर की फिल्म ‘नेमसेक’ में तब्बू 2007 में दिखी थीं। उसके
बाद से उनकी कोई महत्वपूर्ण फिल्म नहीं आई है। दर्शकों को तब्बू का और तब्बू को फिल्मों
का इंतजार है। इस साल इरफान के साथ उनकी फिल्म ‘लाइफ ऑफ पी’ आएगी।
तब्बू से यह बातचीत किसी विशेष प्रयोजन से नहीं की गई
है। तब्बू ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार शेयर किए हैं।
- आप ने ज्यादातर नए डायरेक्टर के साथ काम किया। ऐसे
चुनाव में जोखिम भी रहता है। क्या आप को कभी डर नहीं लगा कि आप का बेजा इस्तेमाल हो
सकता है?
0 मैंने लगभग हर फिल्म में नए डायरेक्टर के साथ काम किया
है। और ऐसा भी नहीं कि वे सब सफल हो गए,इसलिए मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। नए डायरेक्टर के साथ काम
करने में मैंने कभी रिस्क समझा ही नहीं। मुझे अगर कहानी पर भरोसा है, स्क्रिप्ट पर भरोसा है,
अपने-आप पर भरोसा है
तो मैं कर लेती हूं। मैं यह नहीं देखती कि डायरेक्टर नया है या पुराना है? एक अभिनेत्री के तौर पर हमें
स्क्रिप्ट पर ही ध्यान देना चाहिए।
- आप कैसे निर्णय कर लेती हैं कि फिल्म चल जाएगी?
0 मैंने कभी सोचा नहीं। मेरा कोई कैलकुलेशन नहीं है।
अगर मुझे लगता है कि डायरेक्टर अच्छी फिल्म बनाएगा और कहानी में दम है तो मैं कर लेती
हूं। कभी किसी बड़े डायरेक्टर पर भी भरोसा नहीं हो सकता है। यह भरोसे के साथ कंविक्शन
की बात होती है। स्क्रिप्ट सुनते समय मुझे ऐसा लगता है कि यह फिल्म करनी चाहिए। तब
मैं कर लेती हूं। मैं अपने मन से काम करती हूं। मैं इतना कैलकुलेशन नहीं करती हूं।
मेरी जो फिल्में हिट हुई है या मुझे जो एप्रीसिएशन मिला है,वह हमेशा किसी बड़े डायरेक्टर या
बड़े बैनर की फिल्म से नहीं मिला है। फिल्मों के चुनाव का मेरा कोई रूल नहीं है। अतीत
में या अभी मेरे मन में खयाल ही नहीं आया कि मैं किसी बड़े डायरेक्टर के लिए इंतजार
करूं। निर्णय लेते समय यही देखती हूं कि मेरा रोल अच्छा होना चाहिए। फिर चाहे उस फिल्म
का डायरेक्टर नया हो या पुराना। स्क्रिप्ट सुनते समय समझ में आ जाता है कि फिल्म कैसी
बनेगी? कभी
कुड गड़वड़ होता है तो थोड़ा मैनेज भी कर लेती हूं।
- आप बहुत खामोश रहती हैं। कहीं कोई चर्चा नहीं सुनाई
पड़ती?
0 यही मेरा नेचर है। मैं तो हमेशा खामोश रहती हूं। कभी
मुझे नाहक या यों ही शोर मचाते देखा क्या? मैं अपना काम ही करती रहती हूं। मैं ऐसे भी ज्यादा बोलती
नहीं हूं। ऐसा कोई खास प्लान नहीं है चुप रहने का। आजकल जब फिल्म रिलीज होने लगती है तो प्रोड्यूसर और एक्टर ज्यादा शोर
करते हैं। वैसे कोई पूछने नहीं आता।
- अभी तो प्रमोशन को लेकर इतना ज्यादा शोर होता है। ‘ओम शांति ओम’ के समय शाहरुख ने कहा था
कि दर्शक चाहेंगे तो मैं सिनेमा के टिकट पर भी डांस कर लूंगा।
0 मैं नहीं कर सकती। सब का अपना-अपना तरीका है। हां,
आजकल यह जरूरी तरीका
हो गया है।
- एक्टिंग का जज्बा कहां से आया?
0 बहुत पहले की बात है। बचपन में शुरूआत हो गई। ऐसा कोई
जज्बा मुझे नहीं आया था। बस,संयोग की बात है। फिल्म मिल गई और कर लिया। ऐसा कुछ शौक नहीं
था। मैंने सोचा नहीं था कभी एक्टर बनने के बारे में।
- कुछ तो रहा होगा कि पर्दे पर दिखना है?
0 नहीं, कुछ भी नहीं था। मेरी मम्मी से देव साहब ने बहुत रिक्वेस्ट
की थी। फिर मम्मी ने इजाजत दे दी थी। उस फिल्म के बाद भी मैंने सोचा नहीं था कि मैं
एक्टिंग में अपना करिअर बनाऊंगी। मैं तो स्कूल वापस चली गई थी पढऩे के लिए। जब वापस
आई तो फिर वही हुआ कि जबरदस्ती रिक्वेस्ट कर के मुझ से हीरोइन का रोल करवाया गया और
फिर वह आदत बन गई। ऐसा नहीं था कि मुझे हीरोइन बनना है। अपने आपको मैंने कभी इस रूप
में देखा ही नहीं था।
- कह सकते हैं कि काम करते-करते शौक हो गया?
0 हां। काम करते-करते एक तो आदत भी हो जाती है। फिर आप
उसको इंज्वॉय करते हो। आप अच्छा काम करते हुए अच्छे लोगों से मिलते हो अपने करिअर में
तो आपको अच्छा लगने लगता है। फिर आप उसको और आगे बढ़ाते हो। पैशन से काम करते हो। मुझे
लगता है सृजनात्मक संतुष्टि का एक रास्ता मिल गया। सूजनात्मकता मेरे अंदर थी। उसे फिल्मों
का माध्यम मिल गया और वह मुझे अच्छा लगने लगा।
- क्या आप लिखती भी हैं?
0 वह तो चलता रहता है। इधर-उधर स्क्रिप्टिंग भी चलती
रहती है। ऐसा कोई औपचारिक लेखन नहीं किया है। कोई महत्वाकांक्षा नहीं है लेखक बनने
की।
- अभी सोचा नहीं है?
0 लेखन करती
रहती हूं,लेकिन
उसका क्या करना है, सोचा नहीं है अब तक। चूंकि एक्टिंग से कभी उतना समय मिला नहीं कि कुछ और करने के
बारे में मैं सोचूं। इस करिअर में इतनी व्यस्त रही और इतना समय और इतनी एनर्जी यह प्रोफेशन
ले लेता है कि आप कुछ और सोच ही नहीं पाते।
- अपने अनुभव से आप क्या कहेंगी? लोग कहते हैं कि हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री डेमोक्रेटिक है और यहां सब को बराबर मौके मिलते हैं। आप कैसे देखती हैं?
0 हमको मिल गया। वह अलग बात है। मैं यह नहीं बोलूंगी
कि मुझे नहीं मिला। लेकिन सबको मौका मिलता हो ऐसा तो नहीं होता। शायद यही स्थिति हर
प्रोफेशन में है। दस लाख लोग जॉब के लिए अपलाई करेंगे तो शायद एक को जॉब मिलेगा। फिल्म
भी उसी किस्म का बिजनेस है। लेकिन हां, यह बात भी है कि किसी भी क्वालिटी के बिना और किसी बैकग्राउंड
के बिना यहां पर आकर अपना करिअर बना सकते हैं आप। वह है। फिर भी किसी को मौका मिलता
है, किसी को
नहीं मिलता है। हर एक को तो मिलता हुआ मैंने देखा नहीं।
- खासकर हम हिंदी बेल्ट का बात करें तो। सामान्य तौर
पर उत्तर भारत के लोगों को लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री अच्छी जगह नहीं है। वे
अपनी लड़कियों को नहीं भेजेंगे।
0 लेकिन पिक्चर हमलोग देखते हैं न?
- वह तो एंटरटेन होने के लिए। और फिर इतना लंबा स्ट्रगल
है, जिसमें
लड़कियां या लडक़ों का दम टूट जाता है। लडक़े तो खैर आते हैं, लड़कियां को भेजा ही नहीं जाता। आम
भारतीय परिवारों में पहले भैया के बारे में सोचा जाता है। उसके बाद ही बहन का नंबर
आता है। आपको ऐसा कुछ तो नहीं झेलना पड़ा होगा?
0 बिल्कुल नहीं। हमारे परिवार में औरतों को ही सब कुछ
माना गया है। औरतों की स्टें्रग्थ को बहुत ही सपोर्ट किया गया है। हमें हमेशा से यही
कहा गया है कि सब बराबर है, कोई ऊंचा नीचा नहीं है। चाहे वे अमीर-गरीब हों, चाहे वे आदमी-औरत हो। सब
में कुछ न कुछ क्वालिटी होती है। हमें बचपन से यह समझाया गया था कि हर इंसान इक्वल
है। हम तो उसी थॉट पर बड़े हुए हैं। हम तो एकेडमिक फील्ड के हैं। मेरे ग्रैंड नाना
मैथमेटिशियन थे। वे भी नॉर्थ इंडियन थे। ऐसा नहीं कि हम कहीं और से आए हैं। मेरी मां
और मेरे नाना झांसी के हैं। मेरी नानी यूपी की हैं। मैं यह नहीं समझती कि इक्विलिटी
का थॉट किसी एक जगह को बिलौंग करता है। हम तो बहुत ही प्रोग्रेसिव परिवार में बड़े
हुए हैं। वहां औरतों को हमेशा कहा गया कि अपने पैरों पर खड़ा होना सीख लो। अपने पैरों
पर खड़े हो जाओ और फायनेनसियली इंडेपेंडेंट हो जाओ। फिर जो डिसीजन लेना है,
वह ले लेना। मेरी नानी
कहती थी कि कम से कम बी.ए. कर लो फिर जिस करिअर में जाना है जाओ। बेसिक एजुकेशन की
रिक्वायरमेंट और बेसिक फायनेनसियल इंडेपेंडेंस हमें बचपन से सिखाया गया है। हां,ऐसे परिवार कम हैं,
लेकिन बढ़ रहे हैं।
पहले ऐसी धारणा थी और फिल्म इंडस्ट्री को बुरी जगह माना जाता था। आजकल तो सारे अच्छे-बड़े
परिवारों के बच्चे आते हैं हीरोइन या हीरो बनने के लिए। अमीर भी आते हैं और पढ़े-लिखे
भी आते हैं। हर जगह से आते हैं। मुझे नहीं लगता है कि आज कोई इतना स्टिग्मा है फिल्म
इंडस्ट्री का। फिल्म इंडस्ट्री के बारे में ऐसी धारणाएं क्यों बनी? क्यों हुआ? कैसे हुआ? उसे समझना मुश्किल है। हमको
इतिहास में बहुत पीछे जाना पड़ेगा इसे समझने के लिए कि एंटरटेंमेंट को क्यों इतना छोटा
या बुरा समझा जाता है।
- एक टैबू बना के रखा हुआ है।
0 हां, जबकि हमारी कल्चर में तो फाइन आर्ट को और क्रिएटिविटी
को बहुत महत्व दिया गया है। चाहे वह नृत्य हो, चाहे वह संगीत हो। ये तो हमारा कल्चर
है। मुझे नहीं लगता है कि ज्यादा देर या ज्यादा सालों तक इससे दूर रह पाएंगे। मुझे
लगता है सब बदल रहा है। सोच बदल रही है।
- प्रियंका चोपड़ा और कंगना रनौत को एक साथ नेशनल अवार्ड
मिले। सिर्फ ये देखें कि दो लड़कियां छोटे शहरों से आईं। एक यूपी में बरेली से निकली।
एक हिमाचल के जिले मंडी से। दोनों को मिले पुरस्कारों से भी सोच बदलती है समाज की।
0 सही कह रहे हैं। पहले तो अच्छे परिवारों के लोग अपने
बेटियों का विवाह भी नहीं करते थे फिल्म इंडस्ट्री में। लडक़ा फिल्म में काम करता है।
नहीं,नहीं,
नहीं। स्टिग्मा तो
दोनों के लिए है। लड़कियों के लिए और लडक़ों के लिए भी। ऐसा आप मत समझिए कि लडक़े जो
फिल्मों में काम कर रहे हैं, उन्हें अच्छा देखा या समझा जाता है। सिर्फ लड़कियों के साथ ही
पूर्वाग्रह नहीं है।
- मैं आपसे टिप्स मांगू कि लड़किया कैसे इंडेपेंडेंट
हो और फिल्मों के लिए क्या अप्रोच रखें तो क्या सलाह देंगी?
0 फिल्म का तो मैं नहीं कहूंगी,क्योंकि आय डोंट नो। लेकिन
हां, इंडीविजुअलिटी किसी इंसान को नहीं मारनी चाहिए। पुरूषों के लिए
थोड़ा आसान है अपनी इंडीविजुअलिटी को अंडरलाइन करना या डिक्लेयर करना। औरत के लिए फिर
भी मुश्किल है। यह हमारे देश की ही बात नहीं है। सारी दुनिया में यह प्रॉब्लम है,
मुद्दा है और एक इश्यु
है। मैं कहूंगी कि पहले अपना पैशन ढूंढें। ढूंढने का मतलब ऐसा नहीं कि कोई जर्नी पर
निकल जाएं। अपना पैशन और अपनी इच्छा सभी को समझ में आती है। सबको पता होता है कि हमको
यह करना है। क्या बेहतर करना है? या कर सकती हैं? यह भी पता लग जाता है। मैं यह अच्छा कर सकती हूं या करूंगी।
जब अपना पैशन समझ में आ जाता है तो उसे अचीव करने के लिए, उसे पाने के लिए हर एफर्ट लगाना जरूरी
है। हर इंसान को अपनी इडीविजुअलिटी के साथ ही जीना चाहिए। उसे किसी के लिए नहीं मारना
चाहिए। अच्छा होगा कि आपके आस-पास के लोग आपकी जर्नी में मदद करें, आपको सपोर्ट करें,आपकी स्पिरिट को ना रोकें।
कई बार शायद आप करना चाहें और आप को पर्याप्त सपोर्ट न मिले। हम बहुत लकी हैं कि किसी
की रोक नहीं लगी। हर औरत,हर लडक़ी को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। आर्थिक रूप से स्वतंत्र
होना चाहिए। क्योंकि सारी प्रॉब्लम आगे जाकर इसी वजह से होती है कि औरतें डिपेंडेंट
हो जाती हैं। स्ट्रेंग्थ हम सभी के पास है। उसे सिर्फ अपलाई करने की बात होती है।
- आपको लगता है कि इंडियन मिडिल क्लास की लड़कियां कुछ
भी अचीव कर सकती है? मैं अपर क्लास की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनकी बात कर रहा हूं जिनके फैमिली में
आज के दौर में दस से बारह हजार रुपए महीने की आमदनी है।
0 डिपेंड करता है कि वे क्या अचीव करना चाहती हैं।
- अचीवमेंट को सामान्य ढंग से परिभाषित नहीं किया जा
सकता। कुछ भी हासिल करना...
0 किसी भी इंसान के लिए अचीव करना इंपोसिबल तो नहीं है।
हां, मुश्किल
हो सकती है या शायद ऐसा हो के जर्नी के आखिरी में कुछ न मिले। आप जो गोल अचीव करने
निकले थे वह न मिले। इसका मतलब यह नहीं है कि आप एफर्ट ही न करें। इस सोच से निकलना
जरूरी है कि मैं कुछ नहीं कर सकती। आपको जो चाहिए, उसे अचीव करने के लिए तो निकलना
पड़ेगा। शायद आपको वह न मिले लेकिन करना तो है।
- अच्छा आपको मन में कभी द्वंद्व रहा कि कैसी फिल्में
करनी हैं या कैसे रोल करने हैं?
0 मैंने कभी ऐसा प्लान या कैलकुलेशन नहीं किया। मतलब
उस मोमेंट में मेरे मन ने क्या बोला... मुझे करना है तो मैंने कर लिया। मैं किसी रिजल्ट
को सोच के या किसी डर की वजह से यह कर रही हूं या डर की वजह से यह नहीं कर रही हूं,
ऐसा मेरे साथ कभी नहीं
हुआ। मुझे अच्छा लग रहा है। इंज्वॉय करने वाली हूं तो मैं कर लेती हूं। मेरा सिर्फ यही आधार होता है कि मुझे कोई चीज भा
गई, एक्साइट
कर गई तो मैं कर लूंगी। कैसी फिल्म है? सीरियस है या कॉमेडी है। ये है, वो है। यह मैंने कभी नहीं
सोचा। अपने-आपको किसी बंदिश में बांध के मैं काम नहीं कर सकती। ऐसा कभी किया नहीं।
- तो क्या आपको लगता है कि आप राइट ट्रैक पर हो?
0 कभी सोचा नहीं कि ये राइट ट्रैक है या रौंग ट्रैक है।
ऐसा अगर सोचते तो कुछ राइट नहीं लगता। राइट या रौंग ... शुरूआत में तो मुझे नहीं लगता कि कोई इतना समझ भी
पाता है। यह तो एक्सपीरियेंस से आता है। एक्सपीरियेंस तो आपको हर चीज करनी है न।
- ऐसा कोई रोल कभी मुफ्त में या संतोष के लिए...
0 कभी नहीं। संतोष के लिए तो नहीं होता है। बहुत सारे
लोग बोल के जाते हैं। सही कहूं तो काम करने की मेरी वजहें अलग रही हैं। मैंने किसी
फॉर्मूला को एक्सेप्ट किया ही नहीं। फिर लोगों ने मुझे फार्मूला देना भी बंद कर दिया।
मैंने अपना रास्ता ढूंढ लिया।
- जैसे ‘माचिस’ फिल्म थी। आपको जब अवार्ड मिला। एक पहचान मिली तो उस
समय अच्छा लगा होगा। उस समय जिम्मेदारी का भी एहसास हुआ होगा? चलो इस ढंग से लोग मुझे मान
रहे हैं, तो
मुझे ऐसा ही काम करना चाहिए। लेकिन शायद वही कहीं अलग किस्म का बंधन बन गया आप के लिए।
यह तो बहुत सीरियस एक्टर है?
0 नहीं, मैंने बिल्कुल ऐसा नहीं सोचा कि अब मुझे ऐसा ही करना
चाहिए। मुझे जो आसानी से मिलता गया और मुझे जो लगा कि मैं आसानी से कर लूंगी। वे मैंने
कर लिए। उस में लोगों को सीरियस लगा या करिअर का प्लान लगा तो ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा।
हां, अच्छा
लगा कि मेरे काम को पहचान मिली। अगर मुझे अवार्ड नहीं भी मिलता तो भी वह डिसीजन अच्छा
लगता, ‘माचिस’
को करने का। क्योंकि
उसे करने का एक्सपीरियेंस मेरे लिए अच्छा था। अवार्ड तो चलो आपके लिए बोनस हो जाता
है। मेरा कोई डिसीजन या मेरे पैरामीटर कुछ बदलते ही नहीं। मेरे लिए तो काम करने का
एक्सपीरियेंस अच्छा होना चाहिए। मुझे क्रिएटिवली
संतोष मिलना चाहिए। डायरेक्टर को खुशी होनी चाहिए कि मैंने कैरेक्टर को अच्छे से निभाया।
मेरे अंदर खुद पर्सनल ग्रोथ में एक स्टेप आगे आना चाहिए। मुझे कुछ मिल गया ऐसा मुझे
लगना चाहिए। वही मेरी सक्सेस है।
- आप रिजल्ट पर ज्यादा ध्यान देती हैं या?
0 रिजल्ट पर मैं ध्यान देती तो जो मैंने किया है,वह कर ही नहीं पाती। जब भी फिल्म मैं साइन करने जाती थी, तो लोग आकर बोलते थे कि यह
गलत होने वाला है। मैंने उनकी बातों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। जब प्रोसेस पर पूरा
भरोसा है तो प्रोसेस में रहना ही मुझे लगता है। अब उसको फिलॉसफी के तौर पर देखें तो
समझ में आता है कि कर्म करते जाओ और फल की चिंता मत करो। मैंने अपनी फिल्मों को बहुत
इंज्वॉय किया है। सारी फिल्मों को करने का एक्सपीरियेंस मजेदार रहा है। अगर इंज्वाॉय
नहीं किया है तो फिर वह मेरे लिए एक फेल्योर रहा है। भले ही वह फिल्म हिट हो गई हो
या जो भी हुआ हो। मेरे लिए फिर मायने नहीं रखती वह फिल्म। मुझे उस प्रोसेस को इंज्वॉय
करना चाहिए बस। मुझे लगता है कि आर्टिस्ट के लिए सबसे इंगेजिंग चीज उसका प्रोसेस ही
होता है। हां, सब चाहते हैं कि फिल्म हिट हो जाए और लोगों को पसंद आए। यह सोच कर काम करेंगे कि हिट हो जाएगी तो फिर इंज्वॉय
कर ही नहीं पाएंगे। फिल्म बनाने का प्रोसेस ही इतना इंगेजिंग होता है कि आप रिजल्ट
के बारे में कई बार भूल जाते हैं।
- अपने कौन से कैरेक्टर आप को याद है?
0 ‘चांदनी बार’ का याद है, ‘अस्तित्व’ का याद है। ‘माचिस’ का याद है। ‘मकबूल’ और ‘चीनी कम’ का याद है। क्योंकि सब अलग हैं एक-दूसरे से। सभी को मैंने बहुत
इंज्वॉय किया।
- कुछ लोग कहते हैं कि आप की एक्टिंग में एक मेथड और
पैटर्न है? क्या आप भी महसूस करती हैं?
0 पता नहीं। मैंने अपनी एक्टिंग के बारे में ऐसा कभी
सोचा नहीं।
- अपने काम को कितनी बार देखती हैं?
0 मैं बिल्कुल नहीं देखती। मुझे मालूम है कि अगर मैं
फिल्म देखूंगी तो लगेगा कि इस फिल्म को दोबारा शूट करूं। हां,एकाध बार देखा है ट्रायल
में। फिर मुझे लगता है कि अब आगे चलो। इतना समय भी नहीं होता। पैटर्न तो स्क्रिप्ट
के हिसाब से बनता है। जैसे स्क्रीन का रिक्वायरमेंट हो, कैरेक्टर का रिक्वायरमेंट हो और जो
कहानी में उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। आर्टिस्ट उसी हिसाब से परफॉर्म करता है। इंटेंस मूवमेंट,
परफॉर्मिंग मूवमेंट,शायद स्क्रिप्ट की रिक्वायरमेंट
के हिसाब से बन गई हो। उसे ही लोग पैटर्न समझ रहे हों।
- परसेंटेज में अगर सोचें तो कितना परसेंट आप डायरेक्टर
की बात मानती हैं और कितना परसेंट अपनी तरफ से जोड़ती हैं कैरेक्टर में?
0 कैरेक्टर तो स्क्रिप्ट में लिखा होता है। मुझे डायरेक्टर
से इतना कुछ योगदान नहीं मिलता। मुझे जैसा कैरेक्टर समझ में आया,वैसे निभा लेती हूं। मुझे
लगता है कि हर एक्टर अपनी समझ से, अपने ही परसेप्सन से किसी कैरेक्टर को समझता है। एक ही कैरेक्टर
दो एक्टर करें तो उनके परफार्मेंस अलग होंगे। कोई और करे तो किसी और ढंग से मेरे कैरेक्टर
को जी सकता है। मेरी जितनी समझ है कैरेक्टर की, मैं वैसे ही करूंगी। हां,
अगर डायरेक्टर को लगा
कि कुछ गलत जा रहा है तो वह बता सकता है... कुछ अगर एड कर सके परफॉर्मेंस में। तो ही
डायरेक्टर का कंट्रीब्यूशन समझा जाएगा मेरे हिसाब से। वरना तो इतनी अंडरस्टैंडिंग से
हम काम कर ही लेते हैं। मेरे डायरेक्टर बहुत सपोर्टिंग रहे हैं। मुझे बहुत आजादी दी
गई है, आज तक
मैंने जितने कैरेक्टर को पोट्रे किया है। कभी रोक नहीं लगायी गई, मुझे कभी बताया नहीं गया
है कि ऐसे करूं या वैसे करूं? मेरे डायरेक्टर ने मुझे हमेशा एप्रीसिएट किया है और सपोर्ट किया
है। एक टीम वर्क भी होता है, आप डिसकस करते हैं। आप व्यक्त करते हैं आयडिया। डायरेक्टर तो
कैप्टन ऑफ द सीप है। उसे डिसाइड करना है, वो अगर समझे कि शॉट ठीक नहीं है तो फिर पचास बार करवाए।
लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं मेरे साथ। मैंने अच्छे लोगों के साथ काम किया।
- आपको नहीं लगता कि आपको जितना काम मिलना चाहिए,
उतना नहीं मिला?
0 मैं करती ही नहीं। आपको क्यों लगता है कि हमें काम
मिलता ही नहीं।
- नहीं हमें लगता है कि आप काम नहीं कर रही हैं।
0 मैं काम करती ही नहीं। लोग डरते हैं मेरे पास आने से।
आपको नहीं मालूम? मैं हर काम को हां करती ही नहीं। सिर्फ वही करती हूं जो चीज मुझे अच्छी लगती है।
और मुझे कम चीजें अच्छी लगती है। उसकी वजह से मैं कम काम करती हूं। आपकी रिक्वायरमेंट
बड़ी होती है तो आपकी च्वायसेस कम हो जाते हैं। लेकिन मैं वही करती हूं जो मुझे अच्छा
लगता है। मैं किसी वजह से ज्यादा काम करने के लिए ज्यादा फिल्में साइन नहीं करती हूं।
हमेशा से ऐसी रही हूं। बीस-बाइस साल हो गए हैं। मैंने 60 या 65 फिल्में की है।
- हिंदी फिल्मों से सब वाकिफ हैं। दूसरे लैंग्वेज की
कौन सी फिल्म बड़ी या उल्लेखनीय रही है?
0 तेलुगू की मेरी एक बहुत ही खास फिल्म है। वह बहुत बड़ी
हिट है तेलगु की ‘सिसिन्द्री’। फिर मणि रत्नम की ‘इरुवर’ तेलगु में है जो अच्छी फिल्म है। राजीव मेनन की ‘कंडदुकोंदेन कंदुकोंदेन’,
बंगाली की ‘अभयारण्य’ गौतम घोष की, जो सत्यजित रे की फिल्म की
सिक्वल थी। मलयालम में ‘काला पानी’। ‘काला पानी’ हिंदी में डब हुई थी,लेकिन ओरिजनल मलयालम में बनी थी।
ऐसी काफी फिल्में मैंने साउथ में भी की हैं और उनके एक्सपीरियेंस भी मेरे लिए काफी
अच्छे रहे हैं। बहुत अच्छे लोगों सेे मिली मैं साउथ में और बिल्कुल एक अलग दुनिया से
मेरा सामना हुआ। शुरू में जब मैं मलयालम फिल्में कर रही थी तो वहां से बहुत ही सीखने
को मिला। बहुत ही रिच कल्चर है मलयालम का। फिल्मों के बारे में उनके परसेप्शन से सीखा।
मेरे लिए बहुत नया था सब कुछ। वहां प्रियदर्शन हैं, संतोष शिवन हैं, मोहन लाल हैं, मणि रत्नम हैं। सभी बहुत
ही क्रिएटिव और इवोल्व माइंड के लोग रहे। मेरे लिए वह अनुभव खास और संतोषजनक रहा। एक्टिंग
मेरा काम है और इरादे अच्छे रहे,लेकिन आप को लोग भी ऐसे मिल जाएं जो आपकी ग्रोथ में आपकी मदद
करे तो फिर इससे बेहतर चीज नहीं हो सकती है। और मैं ऐसे लोगों से मिली हूं अपने करिअर
में जो बेहतर और बेहतरीन रहे हैं। ये सब एक्सपीरियेंस एड करते हैं आपकी जिंदगी में।
काम तो चलो ठीक है, काम तो होता ही रहता है।
- फिल्में और सहयोगी कलाकारों से विकास में मदद मिलती
है?
0 जी, बिल्कुल। लोग ही हैं न? आप लोगों के जरिए ही ग्रो करेंगे
न। आप लोगों के जरिए ही इस दुनिया में एग्जिस्ट करते हैं। हम सभी सोशल एनिमल हैं। लोगों
के बिना तो आपकी ग्रोथ नहीं है।
- एक्टर-एक्ट्रेस होने के साथ ही आपका दायरा छोटा होता
चला जाता है। आपकी दुनिया बहुत बड़ी हो जाती है,लेकिन दायरा छोटा होता चला जाता है।
उसमें कई सारे फैक्टर काम कर रहे होते हैं। किस से मिलना है, किस का स्वार्थ है,
कौन किस इंटरेस्ट से
मिल रहा है? आप का लर्निग प्रोसेस फिल्म टू फिल्म चलता जाता है।
0 उसमें भी एक ग्रोथ है।
- कई बार संदेह होता है कि आपके पर्सनल ...
0 आपको नहीं लगता है कि ये पर्सनल ग्रोथ है।
- है लेकिन...
0 आप अगर कम्पेयर करें किसी कॉमन आदमी से
- कॉमन से तो बेहतर है। जाहिर सी बात है।
0 तो फिर कैसे कह सकते हैं कि आपकी ग्रोथ नहीं-
- मैं एक बौद्धिक समग्रता की बात कर रहा हूं। लगातार
और खास दिशा में ग्रोथ होनी चाहिए। जैसे अभी सोसायटी कैसी है, सभी इक्वल है कि नहीं?
कहां पर क्या चल रहा
है, देश में
ढेर सारे नक्सल मूवमेंट चल रहे हैं। देश में तमाम घटनाएं घट रही है।
0 वही मैं आपको बोलना चाह रही थी। एक तो हमारे अंदर अवेयर
होने की इच्छा होनी चाहिए। आप चाहे एक्टर हों, आप चाहे कॉमन मैन हों, चाहे आप कोई इंडस्ट्रीयलिस्ट
हों। अगर सिर्फ अपनी ही फील्ड के बारे में अवेयरनेस हो तो भी ठीक है। जो अवेयर होना
चाहता है बाकी चीजों के बारे में,वह हो जाता है। है न? ऐसा नहीं है कि फिल्म वाले केवल फिल्म और इंडस्ट्री के बारे में ही सोचते हैं और
वही जिंदगी हो जाती है। ऐसा नहीं है। आज कल हर चीज के बारे में सूचनाएं उपलब्ध है।
अवेयर आप होना चाहें तो हो सकते हैं। मानसिक और बौद्धिक विकास वयक्ति की अपनी चाहत
पर निर्भर करता है। मुझे ऐसा लगता हैकि फिल्में ढेर सारा समय लेती हैं। शायद समय नहीं
होता है बाहर की दुनिया के बारे में सोचने का। सब जल्दी-जल्दी में और समय का महत्व
है। अगर आप उस किस्म के इंसान हैं, जिसको अपने प्रोफेशन के बाहर भी देखना है या सीखना है या दूसरी
दुनिया के टच में रहना है तो आप कर लोगे। मुझे लगता है कि हर प्रोफेशन का थोड़ा सा
बुरा पक्ष है कि ज्यादातर लोग अपने ही काम के बारे में सोचते रहते हैं। इंजीनियर को
शायद हिस्ट्री की जानकारी नहीं होगी। हिस्टोरियन को शायद कैमिस्ट्री के बारे में इतना पता नहीं होगा। खाली हमारी फिल्म
इंडस्ट्री को दोष दिया जाता है।
- लेकिन आप जैसे लोग इससे बाहर निकलने के लिए क्या करें?
आप क्या करती हैं?
0 मेरी ऐसी जान-बूझ के ऐसी कोशिश नहीं होती कि बाहर निकलूं
या न निकलूं। मैं इसको कुछ इतना बड़ा इश्यु नहीं बनाती हूं। सिटीजन ऑफ द वल्र्ड बनने
की कोशिश नहीं करती। मैं कम काम करती हूं।
एक हमारी फैमिली भी होती हैं। हमारे रिश्ते होते हैं। वे इंडस्ट्री के बाहर
होते हैं तो आपका एक कनेक्शन होता है दूसरी दुनिया से। आप ट्रैवेल करते हैं,
आप किताबें पढ़ते हैं
तो उसके जरिए दुनिया के बारे में आपका नजरिया बढ़ता जाता है। हां, मुझ में सचेत रूप से हमेशा
ग्रो करने का और दूसरी चीजों को समझने का उत्साह रहा है। एक्सपीरियेंस करने का बहुत
शौक रहा है। मुझे हमेशा से शौक था मैं हर चीज को खोजूं, एक्सपीरियेंस करूं। अगर मेरे दिमाग
में कोई चीज अटक गई है या कोई वर्ड अटक गया है तो उसके बारे में मालूम करना है,
तो उस इंटरनेट पर देख
लूंगी। मैं ट्रैवेल बहुत करती हूं। इस वजह से मुझे मालूम है कि बहुत बड़ी दुनिया है,
जो आप की दुनिया के
अलावा भी है।
- ट्रैवेलिंग काम के सिलसिले में या -
0 मोस्टली अब तक जो ट्रैवेल हुआ है,वह काम के सिलसिले में हुआ
है। आप का एक्सपोजर बढ़ता जाता है। आप काम भी करते हैं और आपकी नॉलेज और अवेयरनेस बढ़ती
जाती है। फिर मैं छुट्टियां भी लेती हूं। मैं काम के सिलसिले में बहुत ट्रैवेल करती
हूं, शायद ये
मेरे प्रोफेशन की बहुत अच्छी चीज है। देश-दुनिया
की ऐसी जगहें देख आते हैं,जो शायद वैसे नही जाते। मुझे ट्रावेल करने का शौक बहुत है। नई
जगहें देखनें का, एक्सपीरियेंस करने और मुझे लगता है कि हम सबको अपने सामथ्र्य के अनुसार थोड़ा ट्रैवेल
कर लेना चाहिए। दुनिया में कुछ भी हो रहा है। कई चीजें खत्म होने वाली है। पानी ऊपर
आएगा। ग्लैसियर पिघल रहे हैं। हमें अच्छी-अच्छी जगहों पर जाकर एक्सपीरियेंस कर लेना
चाहिए।
- खाने-पीने की बात करें तो कितने शौकीन हैं?
0 शौक नहीं है मुझे। मैं बचपन से ही बहुत कम शौक रखती
हूं अपने खाने के बारे में। जो मेरे सामने रखो मैं खा लूंगी। कुछ विशेष नहीं चाहिए।
हां, अच्छा
खाना अच्छा लगता है। स्पेशली जब ट्रैवेल करती हूं तों ऐसा लगता है कि हर चीज को खाओ,
एक्सपीरियेंस करो।
थाई खाना अच्छा लगता है। इटालियन खाना अच्छा लगता है। लेकिन पकाने का बिल्कुल शौक नहीं
है। अंडा उबालना भी नहीं आता। मेरे सामने रख दे तो मैं खा लूंगी। वरना दस दिन भी खुद
बनाना पड़े तो शायद भूखी बैठी रहूंगी।
- मैंने देख है लोगों को गोवा में तंदूरी और चीन में
भात-दाल खाते हुए...
0 मुझे लगता है कि कुछ समय के बाद सब के अपना टेस्ट और
अपना घर और अपनी कंट्री का खाना याद तो आता है। हां मैं किसी भी खाने पर सरवाइव कर
सकती हूं।
- सिर्फ खाने-पीने को लेकर नहीं, कपड़े में, अपनी सोच में। अपने दूसरी
चीजों में, अपनी दूसरी चीजों की बात करें। लोग
कह रहे हैं कि दुनिया छोटी हो रही है। गौर करें तो सारी लड़कियां एक जैसी दिखती हैं।
चाहे वो, गुजरात
की हो, पंजाब
की हो या बिहार की हो। वही कुर्ती, हर जगह वही लडक़ी या हर जगह वही लडक़े। ऐसी यूनिफार्मिटी होती
जा रही है, जहां कल्चर और सारी चीजें लगभग खत्म होती जा रही हैं।
0 कुछ मामले में ये अच्छी बात है। यह एक प्रकार का मिलना
और मिश्रण है। इस से हमारे निगेटिव वाल्व टूट जाएंगे। सारी निगेटिव चीजें हट जाएं तो
मैं इसे बहुत अच्छी चीज मानती हूं। हां, लेकिन हर जगह का एक कल्चर होता है, वह बचा रहना चाहिए। सारी
दुनिया को एक मानते हुए अपनी विशिष्टता बचाए रखना जरूरी है। अपने समाज के सपने न खोएं।
बहुत समय लगेगा सारी दीवारों को हटने में। मुझे लगता है जब तक देश हैं और उनकी सीमाएं
हैं, तब तक
अंतर बना रहेगा। ठीक है कि अंतर को समाप्त कर एक-दूसरे के साथ एग्जिस्ट करना है। उसमें
परस्पर सहमति होनी चाहिए। दुनिया वाकई छोटी होती चली जा रही है और माइंडसेट बदल रहे
हैं। चाहे आप शादियों में देख लो दो देशों की, एक नेशनलिटी की शादी दूसरी नेशनलिटी
से। यह बहुत अच्छी चीज है। मुझे लगता है कि अगर आपकी सीमाएं आपको बांधती है तो वह ठीक
बात नहीं है। लेकिन अगर आप उन सीमाओं को क्रॉस करना चाह रहे हैं और आप कर पाओ तो ग्रेट।
- कितनी पॉलिटीकल हैं?
0 बिल्कुल नहीं। मुझे पॉलिटीक्स बिल्कुल समझ में नहीं
आती।
- हम सभी पॉलिटिकल जीव हैं।आप मानें न मानें,समझें ना समझें ़ ़ ़प्रभावित
तो होती है?
0 यह सवाल रहने दें। पॉलिटीक्स न छेड़ें तो बेटर है।
- यह कितना सही है कि आपके परफॉर्मेंस में सामने वाला
एक्टर कंट्रीब्यूट करता है।
0 कंट्रीब्यूशन का मुझे पता नहीं,लेकिन आपके लिए मुश्किल जरूर
कर सकते हैं। आपकी परफॉर्मेंस जो आपके अंदर है वही निकलेगी। मुझे नहीं लगता है कि वे
कुछ एड कर सकते हैं। उनके रिएक्शन उनके साथ, आपके रिएक्शन आपके साथ। मैंने ऐसा
कभी सोचा नहीं। लेकिन एक काम का एटमोस्टफेयर होता है। उसे अच्छा या बुरा बना सकते हैं।
आपकी अगर टाइमिंग-टयूनिंग एक-दूसरे के साथ अच्छी हो तो सीन उभर कर आ सकता है। आपकी
परफॉर्मेंस को कौन कितना हेल्प कर सकता है,उस पर मुझे संदेह है।
- वैसे जिन लोगों के साथ काम किया उन लोगों में किसी
एक का नाम लेना मुश्किल होगा या
0 इंज्वॉयमेंट के लेवल अलग होते हैं। मैंने कुछ एक्टर
के साथ बिल्कुल इंज्वॉय नहीं किया। हां, लेकिन काम किया। उससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता फायनली
आप कैरेक्टर हो और जो कैरेक्टर की सीमा में हो आप वही करोगे और वो एक्टर भी वही करेगा।
या तो आप इंज्वॉय करोगे या फिर आप सोचेगे कि कब पैकअप हो और मैं कब घर जाऊं। ऑफकोर्स
बच्चन साहब का साथ बहुत इंज्वॉय किया है। सनी देओल के साथ मैंने बहुत इंज्वॉय किया
है। सनी तो प्रिय हंै, शायद मैंने इसीलिए इंज्वॉय
किया है। वे किसी के लेने-देने में नहीं रहते। बस शूटिंग पर आ जाएं आराम से यही बहुत
बड़ी बात है । हम उनके साथ बहुत अच्छे-अच्छे आउटडोर में गए हैं। बहुत प्रोटेक्टिव हैं
हमारे बारे में। अगर क्राउड में किसी लडक़े
ने छेड़ा तो मैं उनको बोल देती थी, वो जाकर फिर पिटाई करते थे। मेरे लिए वह हिरोइक चीज होती थी।
सनी बहुत ही सीधे और हेल्पफुल हैं।
- ये हम माने कि थिएटर से आए हुए एक्टर कैरेक्टर को ज्यादा
रीड करते हैं या ज्यादा स्टडी के साथ तैयार करते हैं।
0 पता नहीं ये थिएटर की वजह से है या ऐसी पर्सनैलिटी
होती है। थिएटर का एक स्कूलिंग एक कल्चर अलग होता है। शायद उनका एक्टिंग को लेकर आउटलुक
अलग होता है। मैं थिएटर की नहीं हूं इसलिए ठीक-ठीक नहीं बता सकती।
- आपने स्टडी नहीं की है, एक्टिंग करनी है तो सीख लें,
एक्टिंग कैसी की जाती
है?
0 मुझे नहीं लगता है कि 1980 के आसपास जो एक्टर आए थे,उन्होंने एक्टिंग सीखने या
समझने की कोशिश की थी। हम सभी ने काम करते हुए सीखा। एक्टिंग को मैंने एज ए सब्जेक्ट
कभी नहीं पढ़ा है। सीखा नहीं है। आपने जो सवाल पूछा भी है मेथड उसे मैं समझ ही नहीं
पाती। मुझे एक्टिंग की टर्मिनोलॉजी समझ में नहीं आती है। मुझे जो अंदर से समझ में आ
गया है। करते समय ही जो होता है,वही एक्टिंग है मेरे लिए।
-- इस बात को लेकर कितना गुस्सा है कि हिंदी में महिला
प्रधान फिल्में एक तो कम बनती हैं। बनती भी हैं तो एक उम्र तक की हीरोइनों को काम मिलता
है। मैं सीधा कहूं कि बच्चन जी को लेकर रोल लिखे जाते हैं, लेकिन तब्बू को लेकर रोल क्यों नहीं
लिखे जाते? तब्बू एक पर्सन नहीं है, एक एक्ट्रेस के...
0 मेरे मामले में तो आप यह बिल्कुल नहीं कह सकते। क्योंकि
मैंने जितनी फिल्में की है वे मेरे लिए ही लिखी गई थी। सभी फिल्मों में फीमेल एक्टर
ही मुख्य हो,यह जरूरी नहीं है। मेरे लिए यह सवाल सही नहीं है।
- आप जहां और जिस उम्र में हैं, वैसे कैरेक्टर लिखे जा सकते
हैं।
0 वैसी मुझे मिलते हैं। मैं कम करती हूं,वह अलग बात है।
- लेकिन क्यों कम करती हैं? अगर मैं शिकायत करूं तो?
0 वह आप कर सकते हैं। मुझे ज्यादा चीजें कुछ खास लगती नहीं। मेरे मुताबिक
नहीं लगती या तो मुझे वे लोग पसंद नहीं आते। या तो पैसा ठीक नहीं लगता। या तो प्रोडयूसर
पर भरोसा नहीं होता कि कैसा प्रेजेंट करेगा। या तो मुझे अपने रोल से हंड्रेड परसेंट
सटिस्फेकशन नहीं होता। कुछ न कुछ होता है कि मैं नहीं करती हूं उसे। लेकिन मुझे लगता
है कि... ये सबसे बड़ा सबूत है कि मेरी फिल्म बन रही है। दो-तीन साल के बाद आ रही है
और मुझे रोल ऑफर होते ही रहते हैं। मेरी च्वॉइस पर है, आय हैव द च्वॉइस। हमारे दर्शक मुख्य
रूप से पुरूष हैं और हमारा समाज भी पुरूष प्रधान है। हमारी फिल्में भी हमारी सोसायटी
की रिफलेक्शन हैं। प्रोडयूसर दर्शकों को वही देगा जो उसकी समझ से दर्शक देखना चाहते
हैं। इतने सालों में दर्शकों ने यह साबित किया है कि वे नायिका प्रधान फिल्में पसंद
नहीं करते। प्रोड्यूसर डरते हैं कि हीरोइन
ओरियेंटेड फिल्में बनाने से नहीं चकंगी। बिजनेस के तौर पर ही प्रोड्यूसर देखेगा न।
फिर भी काफी डायरेक्टर ने हीरोइन के लिए फिल्में लिखी हैं। स्ट्रांग कैरेक्टर दिए हैं
औरतों को। हां, कम है। जैसे मैंने कहा कि हमारी सोसायटी उतनी शायद तैयार नहीं है। लेकिन बदल जाएगा
यह भी।
- एक डायरेक्टर ने कहा कि कहां हैं मीना कुमारी और मधुबाला
जैसी एक्ट्रेस,जो ऐसे रोल लिखे जाएं? क्या कहेंगी आप?
0 आज के जमाने में जो है आप उनके लिए क्रिएट कीजिए। हर
टाइम की अपनी खासियत होती है। हां, एक औरत होने के नाते मैं चाहूंगी कि हीरोइन ओरियेंटेड फिल्में
बनें। लेकिन ऐसा हो तो नहीं सकता। हां, लेकिन मैं ये नहीं कहती कि हर फिल्म हीरोइन ओरियेंटेड
हो और उनमें महिला मुक्ति की बात हो। मेरा ऐसा कुछ मानना नहीं है। जो कैरेक्टर आप औरत
को दे रहे हैं ,वह छिछली और कमजोर न हो। वह स्ट्रांग हो। जिसके अंदर खुद की स्ट्रेंग्थ हो। वो
आप औरत को कैसे पोट्रे करते हैं अपनी स्क्रिप्ट में। वह जरूरी है बस।
- आपके लिए कितना जरूरी है कि जो रोल आप कर रही हैं उसके
मेंटल स्टेट से आप एग्री करें?
0 ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा करने जाऊं तो फिर काम ही नहीं
कर पाऊंगी।
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