सिनेमा सोल्यूशन नहीं सोच दे सकता है: टीम चक्रव्यूह
- दुर्गेश सिंह
निर्देशक प्रकाश झा ताजातरीन मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाने के लिए जाने जाते रहे हैं। जल्द ही वे दर्शकों के सामने नक्सल समस्या पर आधारित फिल्म चक्रव्यूह लेकर हाजिर हो रहे हैं। फिल्म में अर्जुन रामपाल पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं तो अभय देओल और मनोज वाजपेयी नक्सल कमांडर की भूमिका में। फिल्म की लीड स्टारकास्ट से लेकर निर्देशक प्रकाश झा से पैनल बातचीत:
अभय देओल
मैं अपने करियर की शुरुआत से ही ऐक्शन भूमिकाएं निभाना चाहता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कोई किरदार मुझे नहीं मिला। यदि मिला भी तो उसमें ऐक्शन भूमिका का वह स्तर नहीं था। हिंदी सिनेमा में अक्सर ऐसा होता है कि लोग ऐक्शन के बहाने में कहानी लिखते हैं और उसको ऐक्शन फिल्म का नाम दे देते हैं। मुझे ऐसा किरदार बिल्कुल ही नहीं निभाना था। चक्रव्यूह में कहानी के साथ ऐक्शन गूंथा हुआ है। मुझे अभिनय का स्केल भी यहां अन्य फिल्मों से अलग लगा। मुझे यह नहीं पता था कि मेरा लुक कैसा होने वाला है। मैंने कई बार सोचा कि अगर नक्सल बनने वाला हूं तो कौन सी वर्दी पहनूंगा और कितनी फटी हुई होगी। फिर यहीं पर प्रकाश जी अन्य निर्देशकों से अलग हो जाते हैं। मैंने और प्रकाश जी ने बैठकर रीडिंग और डिस्कशन किए। प्रकाश जी की खासियत है कि आप किरदार के बारे में इनकी स्क्रिप्ट पढक़र जान जाते हैं। मसलन नक्सल विचारधारा और सोनी सोरी के बारे में फिल्म की स्क्रिप्ट पढऩे के बाद ही मुझे पता चला।
प्रकाश झा- मैं एक ऐसे राज्य से संबंध रखता हूं जहां के लोगों के लिए यह विचारधारा और इससे जुड़ा आंदोलन नई बात नहीं है। इस आंदोलन से जुड़े लोंगों से मेरी मुलाकात काफी पहले से होती रही है। बिहार और झारखंड में जहां-जहां नक्सल गतिविधियां है उसके बारे में मुझे पता है। 2003 में जब अंजुम रजबअली ने मुझे यह कहानी सुनाई तो मुझे लगा था कि इस पर बिना रिसर्च के फिल्म नहीं बन सकती है। यह कहानी दो ऐसे दोस्तों की कहानी है, जो समान सोच रखते हंै। एक पुलिस अधिकारी है जबकि दूसरा कानून की रेखा के दूसरी ओर जाकर नक्सली बन जाता है। फिल्म में समाज और उसकी व्यवस्था से जुड़े कई सवाल हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर दंगे। साठ साल की आजादी के बाद अब जब लोकतंत्र को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं तो इस तरह के संकेत खतरनाक है।
अर्जुन रामपाल
मैं हिंदू कालेज से पढ़ा हूं, मैंने अपने कई दोस्तों को इस विचारधारा का सपोर्ट करते हुए देखा है। मुंबई आने के बाद मैं कॉमर्शियल सिनेमा करता रहा और महानगर में रहने की वजह से मुझे इतनी जानकारी नहीं थी कि नक्सल क्या होते हैं और क्या करते हैं लेकिन मुझे पता चल गया। दर्शक को भी इस फिल्म के बाद पता चल जाएगा। प्रकाश जी के साथ काम करके एक ट्यूनिंग बन गई है। राजनीति प्रकाश छह साल पहले बनाना चाहते थे लेकिन उसमें देर हुई। छह साल पहले ही वो पृथ्वी के किरदार के लिए मेरे पास आए थे। जब फिल्म बनने लगी तो भी वो किरदार उन्होंने मुझे फिर से इस फिल्म का ऑफर दिया। एक निर्देशक का उम्र के इस पड़ाव में डेडिकेशन देखते बनता है। उनकी स्तर की रिसर्च करने वाले बहुत ही कम निर्देशक हैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में। मुझे और अभय को तो उन्होंने कई बाद ऐसी स्थिति में डाल दिया कि अरे यार अब यह कैसे होगा?
मनोज बाजपेयी
मैंने तो इस विचारधारा के साथ जीवन के कई साल बिताए हैं। मेरे लिए नक्सली का किरदार निभाना बहुत मुश्किल नहीं रहा। किरदार का लुक कैसा होगा? किरदार कैसे बोलेगा, हां इस पर जरूर थोड़ी बात हुई। बाकी प्रकाश झा के साथ काम करके अच्छा लगता है। अपने गांव- देश के हैं और दूसरी चीजों को लेकर उनकी समझ एकदम स्पष्ट है। इस मसले पर किसी भी तरह का स्टैंड लेना गलत होगा। जिसकी जमीन छीनी जा रही है, वह अपने हक के लिए लड़ेगा ही जबकि राज्य सत्ता के विरूद्ध जाना प्रजातंत्र के खिलाफ जाना है। हमें इस मसले पर बीच का रास्ता निकालना होगा अन्यथा स्थितियां विकट होती जाएंगी।
प्रकाश झा
फिल्म का काम है समस्या को उजागर करना न कि समाधान बताना। कोई फिल्मकार समाधान कैसे बता सकता है। वह भी एक ऐसी समस्या का जिसकी चपेट में देश के 250 जिले आते हों। शहरों में बैठकर हमें समस्या जितनी सरल लगती है उतनी सरल है नहीं। आजादी के बाद जो कुछ भी हुआ है इस देश में वह लगभग गलत हुआ है। आज साठ साल की आजादी के बाद हम लोकतंत्र पर सवाल उठा ही चुके हैं। पिछले सात-आठ सालों में जितना घूमता रहा हूं उतना ही रिसर्च किया है। गडचिरोली से लेकर बालाघाट तक और झारखंड के इलाकों में उसको देखकर लगता है समस्या इतना सरल नहीं है। मैंने जमीनी रिसर्च को ही कहानी में पिरोने की कोशिश की है। मसलन, नक्सलों की सबसे बड़ी आमदनी वसूली से आती है, पुलिस के फेक इनकाउंटर से लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के सलवा जुडूम के गठन तक की कहानी फिल्म की मूल कहानी को कहीं न कहीं इंस्पायर तो करती ही हैं। साथ ही इस फिल्म में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती जा रही खाई की वजह से जो हिंसक विचारधारा पनप रही है उसकी भी बात की गई है।
अभय देओल
मुझे लगता है कि यही पटकथा की खासियत है जो प्रकाश जी ने दो दोस्तों के माध्यम से कहने की कोशिश की है। दो दोस्तों की कहानी है जो विचारधारा अलग होने की वजह से अलग हो जाते हैं और फिर जब उनमें दुश्मनी होती है तो वे कैसे एक दूसरे से पेश आते हैं। दो लाइन में कहूं तो यही फिल्म की कहानी है। नक्सल विचारधारा के साथ् कहानी को कैसे गूंथा जाए, ये प्रकाश जी का कमाल है। वो अपनी फिल्मों का अंत दर्शकों के ऊपर छोड़ देते हैं। एक निर्देशक के तौर पर उन्हें पता है कि क्या गलत है और क्या सही है लेकिन दर्शकों के सामने उनकी किसी भी फिल्म का एक अंत नहीं होता। यह दर्शकों पर होता है कि उन्हें इस फिल्म से क्या सीख लेनी है।
अर्जुन रामपाल
फिल्म में मेरा एक संवाद है कि देश को सीमा पार के दुश्मनों से उतना खतरा नहीं है जितना अंदर बैठे दुश्मनों से है। एक आईपीएस अधिकारी अधिकारी का किरदार निभाने के दौरान मुझे पता लगा कि किसी भी पुलिस अधिकारी को काम करने में कितनी मुश्किल होती होगी। इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। पूरे देश को पता है कि सिस्टम फेल हो रहा है तो क्या सिस्टम को सुधारा ही नहीं जा सकता। करप्शन से पूरा देश परेशान है लेकिन उसका समाधान कैसे होगा? एक लडक़ा अपना हक पाने के लिए नक्सली बनता है लेकिन उसकी विचारधारा की आड़ में भी करप्शन पनप रहा है। ऐसे कई मुद्दे इस फिल्म के माध्यम से उठाए गए हैं। दर्शकों के लिए यह फिल्म एक सीख के तौर पर भी है कि एक फिल्म की कहानी के जरिए देश में घटित हो रही चीजों की भी जानकारी आपको मिल रही है।
प्रकाश झा
लोग कहते हैं कि राजनीति के बाद से मैंने फिल्मों में स्टैंड लेना बंद कर दिया है। मैंने अपनी किसी फिल्म में कभी कोई स्टैंड नहीं लिया है। मैंने अपनी हर फिल्म में किरदारों या कहानी के जरिए तथ्यों को पेश किया है। मृत्युदंड का उदाहरण लें तो पाएंगे कि तीन औरतें आर्थिक उदारीकरण और मंडल कमीशन के बाद के दौर में जूझ रही हैं लेकिन मैंने वहां भी नहीं बताया कि मंडल कमीशन गलत है या सही या फिर आर्थिक उदारीकरण गलत है या सही। मुझे कहानी के माध्यम से जो समीकरण सही लगता है वही दर्शकों के सामने पेश करता हूं। मैंने आज तक कभी कोई स्टैंड नहीं लिया यहां तक कि दामुल में भी मैंने दर्शकों के सामने स्पष्ट तौर पर कोई निर्णय दिया।
मनोज वाजपेयी
हमारे मुल्क में इतनी विविधताएं हैं और अलग-अलग विचारधाराओं के लोग हैं। आप एक विवादित मसले पर अपना फैसला किसी फिल्म के जरिए नहीं सुना सकते हैं। जिस नक्सल कमांडर का किरदार मैं निभा रहा हूं वह एकबारगी आपको देश के कई नक्सल कमांडरों का मिक्स वर्जन लगेगा लेकिन इसका किरदार ही ऐसा है कि आप किसी एक नाम नक्सल कमांडर से इसको कनेक्ट न कर सकें। हमारे देश में इतने पढ़े- लिखे लोग हैं कि न जाने किसकी विचारधारा कहां से आहत हो जाए? सिनेमा के जरिए स्टैंड लेना मुझे नहीं लगता कि उचित है।
अभय देओल
मैं अपने करियर की शुरुआत से ही ऐक्शन भूमिकाएं निभाना चाहता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कोई किरदार मुझे नहीं मिला। यदि मिला भी तो उसमें ऐक्शन भूमिका का वह स्तर नहीं था। हिंदी सिनेमा में अक्सर ऐसा होता है कि लोग ऐक्शन के बहाने में कहानी लिखते हैं और उसको ऐक्शन फिल्म का नाम दे देते हैं। मुझे ऐसा किरदार बिल्कुल ही नहीं निभाना था। चक्रव्यूह में कहानी के साथ ऐक्शन गूंथा हुआ है। मुझे अभिनय का स्केल भी यहां अन्य फिल्मों से अलग लगा। मुझे यह नहीं पता था कि मेरा लुक कैसा होने वाला है। मैंने कई बार सोचा कि अगर नक्सल बनने वाला हूं तो कौन सी वर्दी पहनूंगा और कितनी फटी हुई होगी। फिर यहीं पर प्रकाश जी अन्य निर्देशकों से अलग हो जाते हैं। मैंने और प्रकाश जी ने बैठकर रीडिंग और डिस्कशन किए। प्रकाश जी की खासियत है कि आप किरदार के बारे में इनकी स्क्रिप्ट पढक़र जान जाते हैं। मसलन नक्सल विचारधारा और सोनी सोरी के बारे में फिल्म की स्क्रिप्ट पढऩे के बाद ही मुझे पता चला।
प्रकाश झा- मैं एक ऐसे राज्य से संबंध रखता हूं जहां के लोगों के लिए यह विचारधारा और इससे जुड़ा आंदोलन नई बात नहीं है। इस आंदोलन से जुड़े लोंगों से मेरी मुलाकात काफी पहले से होती रही है। बिहार और झारखंड में जहां-जहां नक्सल गतिविधियां है उसके बारे में मुझे पता है। 2003 में जब अंजुम रजबअली ने मुझे यह कहानी सुनाई तो मुझे लगा था कि इस पर बिना रिसर्च के फिल्म नहीं बन सकती है। यह कहानी दो ऐसे दोस्तों की कहानी है, जो समान सोच रखते हंै। एक पुलिस अधिकारी है जबकि दूसरा कानून की रेखा के दूसरी ओर जाकर नक्सली बन जाता है। फिल्म में समाज और उसकी व्यवस्था से जुड़े कई सवाल हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर दंगे। साठ साल की आजादी के बाद अब जब लोकतंत्र को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं तो इस तरह के संकेत खतरनाक है।
अर्जुन रामपाल
मैं हिंदू कालेज से पढ़ा हूं, मैंने अपने कई दोस्तों को इस विचारधारा का सपोर्ट करते हुए देखा है। मुंबई आने के बाद मैं कॉमर्शियल सिनेमा करता रहा और महानगर में रहने की वजह से मुझे इतनी जानकारी नहीं थी कि नक्सल क्या होते हैं और क्या करते हैं लेकिन मुझे पता चल गया। दर्शक को भी इस फिल्म के बाद पता चल जाएगा। प्रकाश जी के साथ काम करके एक ट्यूनिंग बन गई है। राजनीति प्रकाश छह साल पहले बनाना चाहते थे लेकिन उसमें देर हुई। छह साल पहले ही वो पृथ्वी के किरदार के लिए मेरे पास आए थे। जब फिल्म बनने लगी तो भी वो किरदार उन्होंने मुझे फिर से इस फिल्म का ऑफर दिया। एक निर्देशक का उम्र के इस पड़ाव में डेडिकेशन देखते बनता है। उनकी स्तर की रिसर्च करने वाले बहुत ही कम निर्देशक हैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में। मुझे और अभय को तो उन्होंने कई बाद ऐसी स्थिति में डाल दिया कि अरे यार अब यह कैसे होगा?
मनोज बाजपेयी
मैंने तो इस विचारधारा के साथ जीवन के कई साल बिताए हैं। मेरे लिए नक्सली का किरदार निभाना बहुत मुश्किल नहीं रहा। किरदार का लुक कैसा होगा? किरदार कैसे बोलेगा, हां इस पर जरूर थोड़ी बात हुई। बाकी प्रकाश झा के साथ काम करके अच्छा लगता है। अपने गांव- देश के हैं और दूसरी चीजों को लेकर उनकी समझ एकदम स्पष्ट है। इस मसले पर किसी भी तरह का स्टैंड लेना गलत होगा। जिसकी जमीन छीनी जा रही है, वह अपने हक के लिए लड़ेगा ही जबकि राज्य सत्ता के विरूद्ध जाना प्रजातंत्र के खिलाफ जाना है। हमें इस मसले पर बीच का रास्ता निकालना होगा अन्यथा स्थितियां विकट होती जाएंगी।
प्रकाश झा
फिल्म का काम है समस्या को उजागर करना न कि समाधान बताना। कोई फिल्मकार समाधान कैसे बता सकता है। वह भी एक ऐसी समस्या का जिसकी चपेट में देश के 250 जिले आते हों। शहरों में बैठकर हमें समस्या जितनी सरल लगती है उतनी सरल है नहीं। आजादी के बाद जो कुछ भी हुआ है इस देश में वह लगभग गलत हुआ है। आज साठ साल की आजादी के बाद हम लोकतंत्र पर सवाल उठा ही चुके हैं। पिछले सात-आठ सालों में जितना घूमता रहा हूं उतना ही रिसर्च किया है। गडचिरोली से लेकर बालाघाट तक और झारखंड के इलाकों में उसको देखकर लगता है समस्या इतना सरल नहीं है। मैंने जमीनी रिसर्च को ही कहानी में पिरोने की कोशिश की है। मसलन, नक्सलों की सबसे बड़ी आमदनी वसूली से आती है, पुलिस के फेक इनकाउंटर से लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के सलवा जुडूम के गठन तक की कहानी फिल्म की मूल कहानी को कहीं न कहीं इंस्पायर तो करती ही हैं। साथ ही इस फिल्म में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती जा रही खाई की वजह से जो हिंसक विचारधारा पनप रही है उसकी भी बात की गई है।
अभय देओल
मुझे लगता है कि यही पटकथा की खासियत है जो प्रकाश जी ने दो दोस्तों के माध्यम से कहने की कोशिश की है। दो दोस्तों की कहानी है जो विचारधारा अलग होने की वजह से अलग हो जाते हैं और फिर जब उनमें दुश्मनी होती है तो वे कैसे एक दूसरे से पेश आते हैं। दो लाइन में कहूं तो यही फिल्म की कहानी है। नक्सल विचारधारा के साथ् कहानी को कैसे गूंथा जाए, ये प्रकाश जी का कमाल है। वो अपनी फिल्मों का अंत दर्शकों के ऊपर छोड़ देते हैं। एक निर्देशक के तौर पर उन्हें पता है कि क्या गलत है और क्या सही है लेकिन दर्शकों के सामने उनकी किसी भी फिल्म का एक अंत नहीं होता। यह दर्शकों पर होता है कि उन्हें इस फिल्म से क्या सीख लेनी है।
अर्जुन रामपाल
फिल्म में मेरा एक संवाद है कि देश को सीमा पार के दुश्मनों से उतना खतरा नहीं है जितना अंदर बैठे दुश्मनों से है। एक आईपीएस अधिकारी अधिकारी का किरदार निभाने के दौरान मुझे पता लगा कि किसी भी पुलिस अधिकारी को काम करने में कितनी मुश्किल होती होगी। इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। पूरे देश को पता है कि सिस्टम फेल हो रहा है तो क्या सिस्टम को सुधारा ही नहीं जा सकता। करप्शन से पूरा देश परेशान है लेकिन उसका समाधान कैसे होगा? एक लडक़ा अपना हक पाने के लिए नक्सली बनता है लेकिन उसकी विचारधारा की आड़ में भी करप्शन पनप रहा है। ऐसे कई मुद्दे इस फिल्म के माध्यम से उठाए गए हैं। दर्शकों के लिए यह फिल्म एक सीख के तौर पर भी है कि एक फिल्म की कहानी के जरिए देश में घटित हो रही चीजों की भी जानकारी आपको मिल रही है।
प्रकाश झा
लोग कहते हैं कि राजनीति के बाद से मैंने फिल्मों में स्टैंड लेना बंद कर दिया है। मैंने अपनी किसी फिल्म में कभी कोई स्टैंड नहीं लिया है। मैंने अपनी हर फिल्म में किरदारों या कहानी के जरिए तथ्यों को पेश किया है। मृत्युदंड का उदाहरण लें तो पाएंगे कि तीन औरतें आर्थिक उदारीकरण और मंडल कमीशन के बाद के दौर में जूझ रही हैं लेकिन मैंने वहां भी नहीं बताया कि मंडल कमीशन गलत है या सही या फिर आर्थिक उदारीकरण गलत है या सही। मुझे कहानी के माध्यम से जो समीकरण सही लगता है वही दर्शकों के सामने पेश करता हूं। मैंने आज तक कभी कोई स्टैंड नहीं लिया यहां तक कि दामुल में भी मैंने दर्शकों के सामने स्पष्ट तौर पर कोई निर्णय दिया।
मनोज वाजपेयी
हमारे मुल्क में इतनी विविधताएं हैं और अलग-अलग विचारधाराओं के लोग हैं। आप एक विवादित मसले पर अपना फैसला किसी फिल्म के जरिए नहीं सुना सकते हैं। जिस नक्सल कमांडर का किरदार मैं निभा रहा हूं वह एकबारगी आपको देश के कई नक्सल कमांडरों का मिक्स वर्जन लगेगा लेकिन इसका किरदार ही ऐसा है कि आप किसी एक नाम नक्सल कमांडर से इसको कनेक्ट न कर सकें। हमारे देश में इतने पढ़े- लिखे लोग हैं कि न जाने किसकी विचारधारा कहां से आहत हो जाए? सिनेमा के जरिए स्टैंड लेना मुझे नहीं लगता कि उचित है।
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