फिल्म समीक्षा : हीरोइन
-अजय ब्रह्मात्मज
कल तक हीरोइन की हर तरफ चर्चा थी। निर्माण के पहले हीरोइनों की अदला-बदली से विवादों में आ जाने की वजह से फिल्म के प्रति जिज्ञासा भी बढ़ गई थी। और फिर करीना कपूर जिस तरह से जी-जान से फिल्म के प्रचार में जुटी थीं, उस से तो यही लग रहा था कि उन्होंने भी कुछ भांप लिया है। रिलीज के बाद से सारी जिज्ञासाएं काफूर हो गई हैं। मधुर भंडारकर की हीरोइन साधारण और औसत फिल्म निकली। हीरोइन उनकी पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर और एकांगी है। मधुर भंडारकर के विषय भले ही अलग हों,पर उनकी विशेषता ही अब उनकी सीमा बन गई है। वे अपनी बनाई रुढि़यों में ही फस गए हैं। सतही और ऊपरी तौर पर हीरोइन में भी रोमांच और आकर्षण है,लेकिन लेखक-निर्देशक ने गहरे पैठने की कोशिश नहीं की है। हीरोइनों से संबंधित छिटपुट सच्चाईयां हम अन्य फिल्मों में भी देखते रहे हैं। यह फिल्म हीरोइन पर एकाग्र होने के बावजूद हमें उनसे ज्यादा कुछ नहीं बता या दिखा पाती।
हीरोइन कामयाब स्टार माही अरोड़ा की कहानी है। माही मशहूर हैं। शोहरत, ग्लैमर और फिल्मों से भरपूर माही की जिंदगी में कायदे से उलझनें नहीं होनी चाहिए। हमें एक फिल्म पत्रकार बताती है कि टूटे परिवार से आने की वजह से माही बायपोलर सिंड्रम की शिकार है। वह असुरक्षित और संबंधों में अस्थिर है। ऊपर से मां का दबाव..वह अपनी जिंदगी जी ही नहीं पाती। उसके साथी उसके कंफ्यूजन और अस्थिरता को और बढ़ाते हैं। उसके पास किसी दोस्त या रिश्तेदार का ऐसा कंधा नहीं है,जहां वह दो आंसू बहा सके। सिगरेट, शराब और गोलियों में वह अप्राप्य शांति खोजती है। वह रिश्तों को पहचान भी नहीं पाती। अपने करिआ और ग्लैमर की फिक्र में वह सच्चा प्यार भी खो देती है। कहने को वह इंडेपेंडेंट लड़की है, लेकिन अपनी दुरुहताओं में ऐसी घिरी है कि न तो उसे चैन है और सुकून। मधुर भंडारकर की हीरोइन भावनाओं के उद्वेग में लरजती-कांपती कमजोर लड़की है। शंका और अनिर्णय से अपनी पोजीशन बनाए रखने की उसकी हर कोशिश असफल होती है। यह करीना कपूर की अभिनय क्षमता का कमाल है कि वह इस कमजोर किरदार में भी अपनी छाप छोड़ जाती हैं। हीरोइन सिर्फ करीना कपूर की भाव-भंगिमाओं और अदाओं के लिए देखी जा सकती है। करीना ने अपनी पिछली फिल्मों की तुलना में अधिक एक्सपोज किया है। फिल्म में ऐसे एक्सपोजर की खास जरूरत नहीं थी।
सिर्फ माही ही नहीं, हीरोइन के अधिकतर किरदार अधूरे, कंफ्यूज और भटकाव के शिकार हैं। मधुर भंडारकर की फिल्मों में प्रबल ग्रंथिपूर्ण मध्यवर्गीय दृष्टिकोण रहता है,जो सफल और उच्चवर्गीय समूह की जिंदगी को हिकारत की नजर से पेश करता है। ऐसे समूह और समाज के अंधेरों को मधुर मध्यवर्गीय चश्मे से देखते हैं। मध्यवर्गीय मानसिकता के दर्शकों को उनकी फिल्में अच्छी लगती हैं। ऐसे दर्शकों को हीरोइन भी अच्छी लग सकती है। मधुर ने पत्र-पत्रिकाओं में आए दिन छपते किस्सों को ही दृश्य बना दिया है। उन किस्सों की परतों और पृष्ठभूमि में वे नहीं जाते। उनकी पहले की फिल्मों में भी यथार्थ का टच भर रहा है। हीरोइन में यह टच पूर्वाग्रहों और धारणाओं को ही लेकर चलता है। यही कारण है कि माही का द्वंद्व हमें झकझोर नहीं पाता। उसे हमारी हमदर्दी नहीं मिल पाती। हीरोइन में करीना कपूर के अलावा दिव्या दत्ता ने अपने हिस्से के दृश्यों को संजीदगी से निभाया है। माही के सेक्रेटरी बने रशीद भाई की भूमिका में गोविंद नामदेव सटीक अभिनय किया है। अर्जुन रामपाल अपने किरदार की तरह ही बिखरे रहे। रणदीप हुडा छोटी भूमिकाओं में माहिर होते जा रहे हैं। यह फिल्मों के लिए अच्छा है,लेकिन उनके करिअर को आगे नहीं बढ़ाता। हीरोइन फिल्म इंडस्ट्री की अंदरुनी झलक नहीं देती। इंडस्ट्री के इस रूप और रंग-ढंग से फिल्मों के शौकीन दर्शक वाकिफ हैं। मधुर फिल्म पत्रकारों की हमेशा अजीब सी झलक देते हैं।
हीरोइन में सबसे ज्यादा निराश इसके सवादों और गीतों ने किया। टायटल सौंग सारगर्भित हो सकता था,जो हीरोइन की सही तस्वीर पेश करता। इसी प्रकार हलकट जवानी के बोल चालू होने के चक्कर में स्तरहीन हो गए हैं। एक-दो संवादों पर तालियां बज सकती हैं,लेकिन भावों के अनुरूप संवादों की कमी खलती है। ऐसा लगता है कि संवाद पहले अंगे्रजी में लिखे गए हों और फिर उनका हिंदी अनुवाद कर दिया गया हों। संवादों में हिंदी की रवानी नहीं है।
रेटिंग- ** 1/2 ढाई स्टार
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