जिंदगी का जश्न है ‘बर्फी’-अनुराग बसु



-अजय ब्रह्मात्मज
अनुराग बसु की ‘बर्फी’ आम हिंदी फिल्मों से अलग दिख रही है। स्वयं अनुराग बसु की पिछली फिल्मों से इसकी जमीन अलग है और किरदार भी। अनुराग बसु खुद बता रहे हैं ‘बर्फी’ के बारे में ़ ़ ़
पहला ट्रेलर आया ताक लगाा कि यह सायलेंट फिल्म है। फिल्म में ताजगी और उल्लास है। गानों के आने के बाद जिज्ञासाएं और बढ़ गईं हैं। क्या है यह फिल्म?
ट्रेलर में फिल्म की सारी बातें क्लियर नहीं की जा सकतीं। एक ही कोशिश रहती है कि फिल्म का सही इमोशन दर्शकों में जेनरेट हो जाए और एक इंटरेस्ट रहे। यह सायलेंट फिल्म तो नहीं है, लेकिन संवाद बहुत कम हैं। मेरी फिल्मों में आप कई बार ऐसे लंबे दृश्य देखेंगे, जिनमें कोई संवाद नहीं होता। ‘गैंगस्टर’ में 20 मिनट का एक ऐसा ही सीन था। ‘बर्फी’ की कहानी लिखते समय चुनौती रही कि कैसे बगैर संवादों को बातें रखी जाए। इसका अलग मजा और नशा है। शब्दों को भाव और एक्सप्रेशन में बदल देना। रणबीर के होने की वजह से मुझे सुविधा हुई। वे कमाल के एक्टर हैं। उनका कैरेक्टर ट्रेलर में भी समझ में आता है। झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) को ऑटिज्म है। वह दुनिया को एकदम अलग तरीके से देखती है। बहुत ही शुद्ध है। श्रुति (इलियाना डिक्रुजा) एक सामान्य लडक़ी है। उसे मालूम नहीं है कि उसे जिंदगी से क्या चाहिए? उसे यह नहीं मालूम है कि छोटी-छोटी बातों में बड़ी खुशियां होती हैं। यह फिल्म 1970 में शुरू होती है। सारे किरदारों की आज तक की जर्नी फिल्म में दिखाई गई है।
-आप की फिल्म पीरियड का फील दे रही है। आप ने बताया भी कि यह 1970 से अभी तक की जर्नी है। हम सभी जानते हैं कि 1970 के बाद के बंगाल में राजनीतिक उथल-पुथल रही है। क्या आप की फिल्म के बैकड्रॉप में ऐसी कोई बात है?
शुरू में हमने सोचा था कि बंगाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करेंगे। कम से कम उसे छूते हुए निकल जाएंगे। बाद में लगा कि फिल्म का मूड थोड़ा अलग है। ‘बर्फी’ वास्तव में जिंदगी का जश्न है। इस फिल्म की कहानी की बहुत छोटी सी शुरुआत हुई थी। लिखते समय किरदारों ने ही इसे ढाला। आज का समय हर लिहाज से इतना प्रदूषित हो चुका है कि ऐसी फिल्म की कल्पना करना भी मुश्किल है। आज कल महानगरों में फेसबुक से प्रेम आरंभ होता है। कार की बैक सीट पर वह जवान होता है और कोर्ट में जाकर वह दम तोड़ देता है। सोशल प्रेशर, क रियर, इगो,आमदनी ़ ़ ़ इन सबके बीच मनुष्य अपनी शुद्धता खो चुका है। ‘बर्फी’ के सारे किरदार इस दुनिया से अलग जिंदगी जीते हैं। मैंने फिल्म में दार्जीलिंग की पृष्ठभूमि रखी है। वैसे ये किरदार कहीं भी हो सकते हैं। दरअसल मैंने इस कहानी की शुरूआत दार्जीलिंग में की थी,इसलिए मेरा हीरो भी वहीं का हो गया। दार्जीलिंग की यह कहानी उत्तर बंगाल से सफर करते हुए कलकत्ते तक आती है।
-आप की फिल्मों में कोई पैटर्न नहीं दिखता। हर फिल्म दूसरी फिल्म से थोड़ी अलग हो जाती है। क्या किसी खास तलाश में हैं आप?
मेरे लिए हर नई फिल्म अंधेरी गुफा में घुसने की तरह होता है। एक हफ्ते की शूटिंग के बाद उसी अंधेरे में चीजें दिखनी लगती हैं और एक राह मिलती है। मेरी ज्यादातर फिल्में बनने के दौरान ही शेप लेती हैं। यही वजह है कि मैं फिल्म की कहानी नहीं सुना पाता। अभी तक मैंने जो फिल्में की थीं, वे ज्यादातर डार्क और इमोशनल कंफ्लिक्ट की फिल्में की। यह फिल्म बिल्कुल अलग है। यहां ताजगी है, रौशनी है और खुशी है। ‘काइट्स’ के बाद जब मैंने यह फिल्म शुरू की तो मेरे दोस्तों ने मुझे डराया भी कि कोई सेफ फिल्म करो। मैं आशंकाओं के बावजूद यही फिल्म करना चाहता था, क्योंकि इसके किरदारों से मुझे प्यार हो गया था। कोई भी फिल्म डेढ़ से दो साल में बनती है। अगर फिल्म के कंटेंट से डायरेक्टर का प्यार न हो तो फिल्म बनाना मुश्किल हो जाए। फिर तो लगेगा यार जल्दी काम खत्म करो और फिल्म को रिलीज कर दो। आखिरी दिन की शूटिंग में भी पहले दिन का जोश दिखे, तो आप मान लीजिए कि आप की फिल्म दर्शकों को पसंद आएगी।
-क्या यूनिट के सभी सदस्यों से आप फिल्म का कंटेंट शेयर करते हैं?
क्या फिल्म बन रही है, यह तो सभी को मालूम रहता है। बाकी नैरेशन देने से मैं बहुत घबराता हूं। इसके लिए बदनाम भी हूं कि मैं प्रोड्युसर और एक्टर को ठीक से कहानी नहीं सुनाता। फिल्म शुरू होने के पहले यूनिट के सारे सदस्यों को एक साथ सारी बात समझा देता हूं। उसके बाद वे अपने काम की जिम्मेदारी और प्लैनिंग खुद ही तय करते हैं। एक्टर को अलग से सुनाना-समझाना और राजी करना होता है। सीन इम्प्रोवाइज करने की मेरी बुरी आदत से सभी परेशान रहते हैं। अब सोचा है कि अगली फिल्म से यह आदत बदल दूंगा। मंै एक्टर के पीछे नहीं पड़ता। उन्हें फील समझा देता हूं। सीन करते समय वे जो भी गरमागरम इमोशन साथ लेकर आएं। मैं मेथर और प्रिपेरेशन में बहुत ज्यादा यकीन नहीं करता।
-आप की फिल्मों के ज्यादातर किरदार अनगढ़ होते हैं। उनमें परफेक्शन की कमी रहती है। हिंदी फिल्मों में हमें किरदारों को ब्लैक एंड ह्वाइट में देखने की आदत रही है। यही कारण है कि आप की फिल्में इंटररेस्टिंग होने के बावजूद नार्मल नहीं लगती?
समाज में ही देख लें, कितने लोग परफेक्ट हैं। हमलोग परफेक्ट होने का ढोंग रचते हैं। मैंने अपनी फिल्मों के किरदारों को इसी समाज से लिया है। मुझसे लोग कहते हैं कि मेरे किरदारों के हाव-भाव से उनके कैरेक्टर का सही अनुमान नहीं लगता। पता नहीं रहता कि वे आगे क्या करने वाले हैं। हम सभी लोग अपनी नार्मल जिंदगी में भी इतने ही अस्पष्ट होते हैं। हमें नहीं मालूम होता कि अगले दस सालों में क्या होगा? हमारे निजी संबंधों में क्या बदलाव आएंगे?

Comments

bahut badhiya ...sach ke kareeb...kal gana dekha tha..khavabon ke tinko se chal banayen aashiyan..tabhi soch liya tha , is film ko jarur dekhna hai...badhaaee...

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