आइटम नंबर भी गाएंगे : रूना लैला व आबिदा परवीन
-अमित कर्ण
बांग्लादेश की प्रख्यात गायिका रूना लैला और पाकिस्तान की अजीमो-शान आबिदा परवीन अगले कुछ महीनों तक भारत में नजर आने वाली हैं। कलर्स के सिंगिंग रिएलिटी शो ‘सुर-क्षेत्र’ में दोनों आशा भोंसले के संग जज की भूमिका में हैं। इस शो में भारत और पाकिस्तान के प्रतिभागी हिस्सा ले रहे हैं। दोनों का मानना है कि इन दिनों आइटम नंबर का जलवा है, लेकिन लंबी रेस में मेलोडी ही सस्टेन करेगी।
-संगीत क्या है?
रूना:- यह इबादत का, प्यार का पैगाम फैलाने का सबसे नायाब जरिया है। यह समाज, राष्ट्र और दुनिया को जोडऩे वाली कड़ी है। म्यूजिक प्रिचेज लव। इस शो में भी हम वही रखने की कोशिश कर रहे हैं। मौसिकी के जरिए हम सब एक हो सकते हैं। इसकी मिसाल भी क्रॉस-बॉर्डर शो में देखने को मिलते हैं। वहां विभिन्न मुल्कों के प्रतिभागी साथ गा रहे हैं। खाना खा रहे हैं। हंसी-मजाक करते हैं। कोई अंतर महसूस नहीं होता। मेरे ख्याल से संगीत के जरिए हम आपसी कड़वाहट कम कर सकते हैं। सियासी लोगों से एक ही दरख्वास्त है कि संगीत को संगीत ही रहने दें, इसे सियासत का नाम न दें।
आबिदा:- यह मेरे लिए परवरदिगार की ईजाद है। इसके चलते पूरी कायनात जाहिर हुई। आप दुनिया में कहीं चले जाएं। इन्हीं 12 सुरों के भीतर सारी कायनात की आवाज शामिल है। यह खुदा की कैफियत है। इक हकीकत है। जरिया है, जिसकी मदद से हम खुद को खुदा से जोड़ सकते हैं।
-वक्त के साथ इसमें क्या बदलाव आए हैं? आप को लगता है कि गजल और कव्वाली जैसे गानों के जॉनर से युवा पीढ़ी कनेक्ट हो रही है?
रूना:- गीत-संगीत तो काफी बदला है। एक समय था, जब मैंने ‘एक से बढक़र एक’ के लिए गाना गाया था। यह हेलेन पर फिल्माया गया था, लेकिन आज इस तरह के गाने हीरोइन पर फिल्माए जा रहे हैं। आइटम नंबर ने जोर पकड़ा है। गजल और कव्वाली के प्रति युवाओं का प्रेम बढ़ा है। आज सुरीले संगीत में पिरोया हुआ अर्थपूर्ण गाना युवाओं को बहुत पसंद पड़ता है।
आबिदा:- कोई खास बदलाव नहीं है। गाने कहानी की तरह हैं। जिस तरह दुनिया में आज भी 9 किस्म की कहानियां हैं, वैसे ही सुर 12 ही हैं। 13 न ईजाद हुआ है, न होगा। फिल्मों की बात करें, तो उनमें सूफीयाना संगीत का प्रभाव काफी बढ़ा है। मुझे याद है, जब रब्बी शेरगिल एक बार मेरे पास आए और कहा कि आप की वजह से मैं सूफी संगीत सुनता हूं। यह सुनकर काफी अच्छा लगा। आप के दूसरे सवाल का जवाब भी रब्बी शेरगिल हैं। उनके गानों को सबसे ज्यादा युवाओं ने पसंद किया। आज से सात साल पहले उनका गाया गाना ‘बुल्ला की जाना’ आज भी लोगों को काफी पसंद हैं। कहने का मतलब यह है कि अगर बेहतर संगीत हो, तो गजल और कव्वाली युवाओं को ज्यादा अट्रैक्ट करती है।
-हिंदी फिल्मों के लिए गाने की क्या योजनाएं हैं? इन दिनों आइटम नंबर का दौर है। गाएंगी?
रूना:- मैं अच्छे ऑफर के इंतजार में हूं। आखिरी बार अमिताभ बच्चन की ‘अग्निपथ’ में गाना गाया था। इन दिनों हिंदी फिल्म गीत-संगीत में ढेर सारे प्रयोग हो रहे हैं। पाकिस्तान और दूसरे मुल्क के कलाकार अपना जलवा बिखेर रहे हैं। मौका मिला तो जरूर गाऊंगी। जहां तक, आइटम नंबर का सवाल है, तो उसमें बुरा क्या है? मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि लोग उन गानों को गलत नजरों से क्यों देखते हैं। हां, अल्फाज गलत नहीं होने चाहिए। अच्छे लफ्ज से लैस गाने मिलें, तो जरूर गाऊंगी।
आबिदा : शाहरुख ‘रा-वन’ का ऑफर लेकर मेरे पास आए थे। ए आर रहमान मुझे बहुत चाहते हैं। उन्होंने मुझे एक गाना ऑफर किया है। इंशाअल्लाह सही वक्त आने पर मैं जरूर हिंदी फिल्मों के लिए गाऊंगी। आइटम नंबर वाले गानों में एक अलग किस्म की ऊर्जा है। उसे हीन नजरों से नहीं देखा जाना चाहिए। मेरी पसंदीदा गायिका आशा जी ने कई आइटम नंबर को अपनी आवाज दी है।
-अदाकार के लिए एक तय फेज होता है। गायिकी के साथ भी ऐसा ही है न? बेहतरीन आवाज के मालिक कुमार शानु आज कहां हैं किसी को पता नहीं?
रूना:- गायिकी का भी फेज होता है, लेकिन यह अदाकारों के दौर से लंबा चलता है। लता जी और आशा जी की आवाज आज भी उतनी ही प्यारी लगती है, जितनी सातवें और आठवें दशक में लगती थी। यह निर्भर करता है, कि गायिका या गायक विशेष खुद को वक्त के साथ कितना तालमेल बिठाते हैं। मेरा मानना है कि जो बदलते समय के साथ नहीं चलते वे गुम हो जाते हैं। कुमार शानु की स्थिति में भी ऐसा हुआ होगा।
आबिदा:- आप का एक सवाल युवाओं की दिलचस्पी को लेकर था, तो उन्हीं युवाओं की आइडियल मैडोना का हवाला दूंगी, जो आज भी स्टेज पर आती हैं, तो आग लग जाती है। नुसरत फतेह अली खां साहब की आवाज युवा कलाकारों पर भी फिट बैठती थी। अहम यह है कि समय के साथ संतुलन बिठाया जाए। जगजीत सिंह के गाने आमिर खान स्टारर ‘सरफरोश’ तक में आए थे।
-कहते हैं, तानसेन जब गाते थे, तो बारिश होने लगती थी, आग लग जाती थी। आप दोनों ऐसा मानती हैं?
आबिदा:- इसका जवाब पहले मैं दूंगी। ऐसा है। गायिकी में बहुत ताकत है। तानसेन का असल नाम तान हुसैन था। उन पर इमाम हुसैन का हाथ था। मेरे पीर भी ऐसा करते थे। वे जो चाहते, अपनी गायिकी से कर सकते थे।
रूना:- आबिदा जी ने बिल्कुल सही कहा। गीत कई मर्ज की दवा है। यह हमारी एफीसिएंसी बढ़ाती है।
बांग्लादेश की प्रख्यात गायिका रूना लैला और पाकिस्तान की अजीमो-शान आबिदा परवीन अगले कुछ महीनों तक भारत में नजर आने वाली हैं। कलर्स के सिंगिंग रिएलिटी शो ‘सुर-क्षेत्र’ में दोनों आशा भोंसले के संग जज की भूमिका में हैं। इस शो में भारत और पाकिस्तान के प्रतिभागी हिस्सा ले रहे हैं। दोनों का मानना है कि इन दिनों आइटम नंबर का जलवा है, लेकिन लंबी रेस में मेलोडी ही सस्टेन करेगी।
-संगीत क्या है?
रूना:- यह इबादत का, प्यार का पैगाम फैलाने का सबसे नायाब जरिया है। यह समाज, राष्ट्र और दुनिया को जोडऩे वाली कड़ी है। म्यूजिक प्रिचेज लव। इस शो में भी हम वही रखने की कोशिश कर रहे हैं। मौसिकी के जरिए हम सब एक हो सकते हैं। इसकी मिसाल भी क्रॉस-बॉर्डर शो में देखने को मिलते हैं। वहां विभिन्न मुल्कों के प्रतिभागी साथ गा रहे हैं। खाना खा रहे हैं। हंसी-मजाक करते हैं। कोई अंतर महसूस नहीं होता। मेरे ख्याल से संगीत के जरिए हम आपसी कड़वाहट कम कर सकते हैं। सियासी लोगों से एक ही दरख्वास्त है कि संगीत को संगीत ही रहने दें, इसे सियासत का नाम न दें।
आबिदा:- यह मेरे लिए परवरदिगार की ईजाद है। इसके चलते पूरी कायनात जाहिर हुई। आप दुनिया में कहीं चले जाएं। इन्हीं 12 सुरों के भीतर सारी कायनात की आवाज शामिल है। यह खुदा की कैफियत है। इक हकीकत है। जरिया है, जिसकी मदद से हम खुद को खुदा से जोड़ सकते हैं।
-वक्त के साथ इसमें क्या बदलाव आए हैं? आप को लगता है कि गजल और कव्वाली जैसे गानों के जॉनर से युवा पीढ़ी कनेक्ट हो रही है?
रूना:- गीत-संगीत तो काफी बदला है। एक समय था, जब मैंने ‘एक से बढक़र एक’ के लिए गाना गाया था। यह हेलेन पर फिल्माया गया था, लेकिन आज इस तरह के गाने हीरोइन पर फिल्माए जा रहे हैं। आइटम नंबर ने जोर पकड़ा है। गजल और कव्वाली के प्रति युवाओं का प्रेम बढ़ा है। आज सुरीले संगीत में पिरोया हुआ अर्थपूर्ण गाना युवाओं को बहुत पसंद पड़ता है।
आबिदा:- कोई खास बदलाव नहीं है। गाने कहानी की तरह हैं। जिस तरह दुनिया में आज भी 9 किस्म की कहानियां हैं, वैसे ही सुर 12 ही हैं। 13 न ईजाद हुआ है, न होगा। फिल्मों की बात करें, तो उनमें सूफीयाना संगीत का प्रभाव काफी बढ़ा है। मुझे याद है, जब रब्बी शेरगिल एक बार मेरे पास आए और कहा कि आप की वजह से मैं सूफी संगीत सुनता हूं। यह सुनकर काफी अच्छा लगा। आप के दूसरे सवाल का जवाब भी रब्बी शेरगिल हैं। उनके गानों को सबसे ज्यादा युवाओं ने पसंद किया। आज से सात साल पहले उनका गाया गाना ‘बुल्ला की जाना’ आज भी लोगों को काफी पसंद हैं। कहने का मतलब यह है कि अगर बेहतर संगीत हो, तो गजल और कव्वाली युवाओं को ज्यादा अट्रैक्ट करती है।
-हिंदी फिल्मों के लिए गाने की क्या योजनाएं हैं? इन दिनों आइटम नंबर का दौर है। गाएंगी?
रूना:- मैं अच्छे ऑफर के इंतजार में हूं। आखिरी बार अमिताभ बच्चन की ‘अग्निपथ’ में गाना गाया था। इन दिनों हिंदी फिल्म गीत-संगीत में ढेर सारे प्रयोग हो रहे हैं। पाकिस्तान और दूसरे मुल्क के कलाकार अपना जलवा बिखेर रहे हैं। मौका मिला तो जरूर गाऊंगी। जहां तक, आइटम नंबर का सवाल है, तो उसमें बुरा क्या है? मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि लोग उन गानों को गलत नजरों से क्यों देखते हैं। हां, अल्फाज गलत नहीं होने चाहिए। अच्छे लफ्ज से लैस गाने मिलें, तो जरूर गाऊंगी।
आबिदा : शाहरुख ‘रा-वन’ का ऑफर लेकर मेरे पास आए थे। ए आर रहमान मुझे बहुत चाहते हैं। उन्होंने मुझे एक गाना ऑफर किया है। इंशाअल्लाह सही वक्त आने पर मैं जरूर हिंदी फिल्मों के लिए गाऊंगी। आइटम नंबर वाले गानों में एक अलग किस्म की ऊर्जा है। उसे हीन नजरों से नहीं देखा जाना चाहिए। मेरी पसंदीदा गायिका आशा जी ने कई आइटम नंबर को अपनी आवाज दी है।
-अदाकार के लिए एक तय फेज होता है। गायिकी के साथ भी ऐसा ही है न? बेहतरीन आवाज के मालिक कुमार शानु आज कहां हैं किसी को पता नहीं?
रूना:- गायिकी का भी फेज होता है, लेकिन यह अदाकारों के दौर से लंबा चलता है। लता जी और आशा जी की आवाज आज भी उतनी ही प्यारी लगती है, जितनी सातवें और आठवें दशक में लगती थी। यह निर्भर करता है, कि गायिका या गायक विशेष खुद को वक्त के साथ कितना तालमेल बिठाते हैं। मेरा मानना है कि जो बदलते समय के साथ नहीं चलते वे गुम हो जाते हैं। कुमार शानु की स्थिति में भी ऐसा हुआ होगा।
आबिदा:- आप का एक सवाल युवाओं की दिलचस्पी को लेकर था, तो उन्हीं युवाओं की आइडियल मैडोना का हवाला दूंगी, जो आज भी स्टेज पर आती हैं, तो आग लग जाती है। नुसरत फतेह अली खां साहब की आवाज युवा कलाकारों पर भी फिट बैठती थी। अहम यह है कि समय के साथ संतुलन बिठाया जाए। जगजीत सिंह के गाने आमिर खान स्टारर ‘सरफरोश’ तक में आए थे।
-कहते हैं, तानसेन जब गाते थे, तो बारिश होने लगती थी, आग लग जाती थी। आप दोनों ऐसा मानती हैं?
आबिदा:- इसका जवाब पहले मैं दूंगी। ऐसा है। गायिकी में बहुत ताकत है। तानसेन का असल नाम तान हुसैन था। उन पर इमाम हुसैन का हाथ था। मेरे पीर भी ऐसा करते थे। वे जो चाहते, अपनी गायिकी से कर सकते थे।
रूना:- आबिदा जी ने बिल्कुल सही कहा। गीत कई मर्ज की दवा है। यह हमारी एफीसिएंसी बढ़ाती है।
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