संग संग: संजय चौहान और सरिता चौहान

संघर्षो के बीच बढ़ता रहा प्यार
स्क्रिप्ट राइटर  संजय चौहान का करियर  शुरू हुआ था पत्रकारिता से। धीरे-धीरे टीवी की दुनिया में और फिर बॉलीवुड में उन्होंने कदम बढाए। उनकी चर्चित फिल्में, पान सिंह तोमर, आई एम कलाम, साहब-बीबी और गैंगस्टर हैं। चित्रकार सरिता से उनकी मुलाकात 20 साल पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में हुई थी। सरिता की कूची और संजय की कलम की जुगलबंदी जल्दी ही हो गई और दोनों ने मुलाकात के दो वर्ष बाद ही शादी कर ली। रचनात्मकता, रिश्तों की शुरुआत और रोज्ाी-रोज्ागार के संघर्ष को लेकर उनसे हुई लंबी बातचीत।
दिल्ली-भोपाल मेल
संजय :  मैं भोपाल का हूं और सरिता दिल्ली की ठेठ पंजाबी। हमारी लव स्टोरी में ट्रेजिक एंगल था कि यहां कोई विरोधी नहीं था। लोग उम्मीद से हमें देखते थे। उन्हें लगता था कि हम दोनों समझदार हैं, परिवार का भरण-पोषण तो कर ही लेंगे। सरिता के एक मामा को अलबत्ता कुछ आपत्ति थी। पंजाबी शादी में मामा का होना ज्ारूरी होता है, लिहाज्ा उन्हें मनाने के लिए काफी पापड बेलने पडे। मैं लगभग बेरोज्ागार था उस समय, लेकिन इनके घर वालों को इससे कोई फर्क नहीं पडता था।
सरिता :  हां, संजय बेरोज्ागार  थे और मेरी पेंटिंग्स से इतना पैसा नहीं आता था कि घर चल सके। शादी के बाद हमने मिल कर इनकी नौकरी के लिए कोशिशें शुरू कीं। दो-एक जगह काम किया तो अच्छा नहीं लगा। फिर पत्रकारिता में आए। कुछ प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेज्ा  में काम किया। लिखना इनका शौक था तो लगा कि रचनात्मक क्षेत्र में ही काम करें तो बेहतर होगा।
काम, शौक और नौकरी
संजय :  पत्रकार तो मैं 11वीं कक्षा के बाद ही बन गया था। कॉलेज  के दिनों में एक राष्ट्रीय समाचार-पत्र के परिचर्चा कॉलम में लोगों के विचार इकट्ठा करता था। फिर उसी संस्थान में नौकरी मिल गई। काम के साथ पढाई करना मुश्किल हुआ तो मैंने ग्रेजुएशन  प्राइवेट किया। उसी दौरान मध्य प्रदेश कला परिषद में नौकरी मिली। उसकी पत्रिका की प्रिंटिंग के सिलसिले में मुझे बार-बार मुंबई जाना होता था। भोपाल के भारत भवन का शुरुआती दौर बहुत समृद्ध रहा है। कुमार गंधर्व जैसे लोग यहां परफॉर्मेस दिया करते थे। नीलम महाजन और उदय प्रकाश जैसे लोगों से मैं भारत भवन में ही मिला। ये सब कहते थे कि मुझे पढाई जारी रखनी चाहिए। मैं जेएनयू से हिंदी साहित्य पढना चाहता था। उदय प्रकाश ने मुझे प्रोत्साहित किया। इस तरह जेएनयू से एम.फिल किया, फिर टीचिंग शुरू की। यहीं से फिर पत्रकारिता की भी शुरुआत हुई।
सरिता : मैंने संजय से कहा कि मुझे भी पेंटिंग में आगे बढना है तो संजय ने कहा कि इसे प्रोफेशनली करो। इसके बाद मैंने दिल्ली की कुछ आर्ट गैलरीज्ा  में प्रदर्शनियों की शुरुआत की। हमारी ज्िांदगी  आसान नहीं थी। लेकिन तकलीफ जैसा कोई एहसास नहीं था। दिल्ली में हमारे घर के ऊपर एक कमरा ख्ाली था तो मैंने उसे ही स्टूडियो बनाया और काम शुरू कर दिया। यहीं हमारी बेटी सारा भी दुनिया में आई। आय का कोई नियमित स्रोत नहीं था। मेरे पेरेंट्स नोएडा शिफ्ट हो गए, जबकि मुझे शो के सिलसिले में दिल्ली आना-जाना पडता था। पर उनके कारण मुझे भी नोएडा शिफ्ट होना पडा। तभी हम दोनों ने निर्णय लिया कि संजय को मुंबई जाकर िकस्मत आज्ामानी  चाहिए। पेरेंट्स  ने आर्थिक तौर पर काफी संभाला। यह हमारा निर्णय था कि हमें क्रिएटिव  फील्ड में रहना है, तो किसी से शिकायत नहीं कर सकते थे।
संजय : इसी बीच टीमवर्क  फिल्म्स नामक प्रोडक्शन  कंपनी से एक काम मिला। तरुण तेजपाल ने मुझे टीमवर्क  के संजय रॉय  और मोहित चड्ढा से मिलवाया। मुझे ओ.आर.एस. घोल की स्क्रिप्ट लिखने को कहा गया। सच बताऊं तो मज्ा आया। एक स्क्रिप्ट लिखी तो उन्होंने  दो-तीन और लिखवा लीं। इसके बाद एक चैनल के लिए आइडिया मांगा। धारावाहिक लिखने के बाद मुझे लगा कि इस फील्ड में करियर शुरू कर सकता हूं। तब मैं एक पत्रिका में काम कर रहा था, बॉस को काम के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि कुछ समय छुट्टी लेकर नए काम को देख लूं। वहां बात न बने तो वापस आ जाऊं। ख्ौर,  थोडी दुविधा और थोडी हिम्मत के साथ मैं आगे बढा।
पेशे की पशोपेश
सरिता :  अच्छी-भली नौकरी छोडने का संजय का फैसला लोगों को अजीब लग सकता था, पर मुझे नहीं लगा। मुझे पता है कि शौक को जीविका बनाना मुश्किल है। हमारे रिश्ते में अच्छी बात रही कि हमने एक-दूसरे को कभी कुछ करने से रोका नहीं। संजय ने हमेशा मेरा उत्साह बढाया। संजय मुंबई आ गए। मेरा मन दिल्ली में नहीं लगता था। धीरे-धीरे परिवार का दबाव भी बढा कि इतने लंबे समय तक अलग-अलग रहना ठीक नहीं है। इस तरह वर्ष 2001 में हम मुंबई आए। सारा को यहां सेटल होने में बहुत वक्त लगा, क्योंकि उसकी परवरिश जॉइंट  फेमिली  में हुई थी। दिल्ली के पांच हजार फीट के घर से निकलकर मुंबई के 1बीएचके फ्लैट में एडजस्ट करना मुश्किल था। शुरू में उत्साह कम हुआ, लेकिन मैंने यहां पहली एकल प्रदर्शनी की तो उत्साह बढा। कुछ दोस्त बने तो लगा कि यहां रहा जा सकता है।
संजय :  मुंबई आकर मैं सबसे पहले पुराने दोस्तों से मिला। एक दोस्त ने सिद्धांत सिनेविज्ान  के मालिक मनीष गोस्वामी को मेरा बायोडाटा दिया। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के केसेज्ा  को लेकर कहानियों की ज्ारूरत थी। शुरुआत में उन्हीं के फ्लैट में रहा। बहुत मदद की उन्होंने मेरी।
पेरेंटिंग के सबक
संजय:  सरिता का चेहरा बहुत पारदर्शी है। वह अपने एक्सप्रेशन नहीं छिपा पाती हैं। इनके इसी चेहरे से मुझे प्यार हुआ था। सारा के आने के बाद हम दोनों के जीने के मायने ही बदल गए हैं। जब छोटी थी तो हम बचते थे एक-दूसरे से बहस करने से। लेकिन अब जब वह बडी हो गई है तो हम खुल कर एक-दूसरे से बहस करते हैं। झगडे हमारे बीच कभी नहीं हुए हैं। बच्चे सबको जीना सिखा देते हैं। सारा के आने के बाद से मेरे पेरेंट्स  के प्रति भी मेरा नज्ारिया  बदल गया। मैंने उनकी कीमत समझी और मां को फोन करके अपने हर बुरे बर्ताव के लिए उनसे माफी भी मांगी। सचमुच पिता बनने के बाद ही पेरेंट्स की भूमिका का एहसास होता है। बच्चे जिम्मेदारी लेना सिखा देते हैं।
जिदगी को मिली धूप
संजय :  मुझे याद है कि मैंने अपने दोस्त अश्विनी चौधरी की पहली फिल्म धूप लिखी। हम ओम पुरी  साहब को कहानी सुनाने गए। वे अपने कमरे में चले गए। बाद में जब हम उनके कमरे में गए तो वहां चारों ओर टिशू पेपर्स  मिले। उन्होंने कहा, अरे कितना रुलाओगे? मेरे लिए इससे बडा सम्मान नहीं हो सकता। इस तरह फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग शुरू हुई।
सरिता : मैं शूटिंग में संजय के साथ नहीं जाती, मुझे पसंद नहीं है। लेकिन आई एम कलाम के लिए जब फिल्मफेयर अवार्ड मिला तो मैं इनके साथ थी। वह दिन मेरे लिए बेहद ख्ास था। संजय मंच पर अवॉर्ड ले रहे थे और मैं दर्शकों के बीच बैठी इन्हें देख रही थी। यह एहसास बहुत बडा था मेरे लिए।
दुर्गेश सिंह

Comments

Suman ( cpjha@yahoo.com) said…
बातचीत अच्छी लगी , पर " पेट नहीं भरा " , इस बातचीत की अगली किश्त भी आये तो बेहतर
Vibha Rani said…
यही समझदारी जीवन भर काम आती है और एक दूसरे के प्रति समर्पित करती है। लोग सीखें अपने आस-पास से ही।
Unknown said…
bahut accha laga pad ke ,pahale baar pada hai...ismai kuch or aage bhi padne ka man hai....
Rakesh Mittal said…
Looking forward to hear more about them
Anonymous said…
संजय से तो कई बार मिला हूँ। सरिता जी से आज मिला। अच्छा लगा। दोनों को, बल्कि तीनों को (सारा को भी) मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। चवन्नी चैप वाले दाढ़ी वाले बाबा को सलाम।
अनिल जनविजय
bahut khubsurat aur prerak hai ap, bhabhiji aur ap dono ke sangharsh ki ye wangi. really you inspired me.
manjusha ganguly said…
kabhee bhopal me benu da manjusha bhee hua karte the......... sanju... kah kar bulate the aab sanjaya ji kahaan hain aap ?
Renu, Ramana & Godavari said…
Love you guys! Keep rocking!!
Madhubani News said…
बहुत बढ़िया। मैं बिहार से हु और हम भी 12th से ही न्यूज़ लिखता हूं। अभी bachelor कर रहा हु और छोटो छोटी कहानी भी लिखता हूं
आप हमारी कहानी पढ़ सकते है gunjankumar97.blogspot.com and madhubaninews1.blogspot.com पर।

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को