फिल्म समीक्षा : कृष्ण और कंस
साधारण और फिल्मी
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी में बन रही एनीमेशन फिल्मों की सबसे बड़ी सीमा है कि उन्हें कोई
फीचर फिल्म निर्देशक नहीं निर्देशित करता। ज्यादातर एनीमेशन फिल्में
तकनीशियन आर एनीमेशन के जानकार ही निर्देशित करते हैं। एनीमेशन की सामान्य
क्वालिटी तो दिखाई पड़ती है,लेकिन कहानी और ड्रामा रचने में वे कमजोर साबित
होते हैं। दूसरी दिक्कत है कि सभी पौराणिक या मिथकीय किरदारों को लेकर ही
फिल्में रचते हैं। बचपन से सुनी-सुनायी कहानियों में नएपन और रोमांच की कमी
रह जाती है। प्रस्तुति में हिंदी फिल्मों का जबरदस्त प्रभाव एनीमेशन
फिल्मों के विकास में बाधक है। विक्रम वेतुरी की कृष्ण और कंस इन्हीं
सीमाओं और कमियों की शिकार हुई है। कमलेश पांडे के नाम से जगी उम्मीद भी
फिल्म देखते हुए बुझ जाती है।
कृष्ण और कंस मुख्य रूप से बाल कृष्ण की लीलाओं पर केंद्रित है। कहानी केस
से शुरू होती है और कंस के वध के साथ समाप्त होती है। कंस को इंट्रोड्यूस
करने के दृश्य शोले जैसी हिंदी फिल्मों में डकैतों के गांव पर हमले की तरह
पेश किए गए है। मानो कंस नहीं गब्बर सिंह आया हो। आततायी कंस को
इंट्रोड्यूस करने के और भी तरीके हो सकते थे। बाल कृष्ण का अत्यधिक
खिलखिलाना एकरंगी हो गया है। बाल कृष्ण की लीलाओं में परिचित प्रसंग हैं।
पूतना किसी आयटम डांसर की तरह आती है। ऊपर से उसे आयटम सौंग भी दिया गया
है। लेखक,निर्देशक और गीतकार बुरी तरह से चूकते हैं। आज के दर्शकों के
अनुकूल बनाने की जल्दबाजी में मिथक की भ्रष्ट प्रस्तुति खटकती है।
कृष्ण और कंस बेहद साधारण एनीमेशन फिल्म है। हो सकता है बच्चों को देखते
हुए थोड़ा आनंद भी मिले,क्योंकि चलती-फिरती एनीमेटेड तस्वीरें थ्रिल पैदा
करती हैं। बाल कृष्ण की मासूम शरारतें भा सकती हैं। पूतना एवं बकासुर से
मुकाबले के दृश्यों में रोमांच भी है। एनीमेशन सुंदर बन पड़ा है,लेकिन
कहानी की प्रस्तुति रोचक नहीं है। हां,ओम पुरी अपनी आवाज से कंस के किरदार
को जीवंत कर देते हैं। बाकी कलाकारों की आवाजें किरदारों के हाव-भाव के
अनुकूल हैं। दो घंटे से लंबी कृष्ण और कंस सचमुच लंबी लगती है।
** दो स्टार
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