फिल्म समीक्षा :शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी
संजय लीला भंसाली की बड़ी बहन बेला भंसाली सहगल की पहली फिल्म है शिरीन
फरहाद की तो निकल पड़ी। बेला काफी अर्से से फिल्म बनाना चाहती थी और वे
पहले भी असफल कोशिशें कर चुकी हैं। एक समय अदनान सामी के साथ तो उनकी फिल्म
लगभग फ्लोर पर जाने वाली थी। बहरहाल, भाई संजय लीला भंसाली ने बहन की
ख्वाहिश पूरी कर दी। बेला भंसाली सहगल ने अपने भाई से बिल्कुल अलग किस्म की
फिल्म निर्देशित की है। वैसे इसे संजय लीला भंसाली ने ही लिखा है। शिरीन
फरहाद.. की प्रेमकहानी मशहूर शिरीं-फरहाद की प्रेमकहानी से अलग और आज के
पारसी समुदाय की है।
शिरीन फरहाद.. पारसी समुदाय के दो कुंवारे प्रौढ़ों की कहानी है। फरहाद की
उम्र 45 की हो चुकी है। सीधे-सादे और नेक फरहाद के जीवन में अभी तक किसी
लड़की का आगमन नहीं हुआ है। मां की प्रबल इच्छा है कि उसके बेटे को एक लायक
बीवी मिल जाए। बार-बार संभावित बीवियों से रिजेक्ट किए जाने के कारण फरहाद
अब शादी के नाम से ही बिदक जाता है। उधर शिरीन पारिवारिक जिम्मेदारियों के
कारण शादी के बारे में सोच भी नहीं सकी है। दोनों किरदारों के घरों में
कैमरे के आने के साथ हम पारसी समुदाय की जीवनशैली, सोच और आचार-व्यवहार से
भी परिचित होते हैं। हिंदी फिल्मों ने तो इन्हें ज्यादातर मजाकिया अंदाज
में ही छोटे किरदारों में पेश किया है।
शिरीन फरहाद.. का पूरा परिवेश पारसी है। बेला भंसाली सहगल ने बड़ी
खूबसूरती के साथ उसे रचा है। हास्य पैदा करने के उद्देश्य से उन्होंने
पारसी समुदाय के हंसी-मजाक, बैठकें और सामुदायिकमेल-जोल की जो तस्वीर पेश
की है, वह पारसी समुदाय की सही तस्वीर नहीं लगती। सामुदायिक मेल-जोल में
उनकी मार-पीट और उठा-पटक के दृश्य नाटकीय और नकली हो गए हैं। हां, उन्होंने
शिरीन और फरहाद को गढ़ने में नाटकीयता का कम उपयोग किया है।
एक जमाने में जैसे परेश रावल गुजराती किरदारों के लिए तयशुदा कलाकार थे।
वैसे ही इन दिनों पारसी किरदार के लिए बमन ईरानी पहली पसंद बन गए हैं।
पिछले दो-तीन सालों में हमने अनेक पारसी किरदारों में उन्हें देखा है।
शिरीन फरहाद.. में बेला ने उन्हें रोमैंटिक और संवेदनशील प्रौढ़ की भूमिका
दी है। मां और शिरीन के बीच फंसे फरहाद के द्वंद्व को बमन ईरानी ने समुचित
ढंग से व्यक्त किया है। लहजा, शैली और बात-व्यवहार में वे बिल्कुल पारसी
लगते हैं। इसके विपरीत शिरीन की भूमिका में फराह खान दिखने में तो पारसी
लगती हैं, लेकिन जैसे ही मुंह खोलती हैं, तो उनका लहजा उनकी पोल खोल देता
है। फराह खान और बेला भंसाली सहगल ने शिरीन के लहजे पर बिल्कुल ध्यान नहीं
दिया है। इस एक कमी से फराह खान की ईमानदारी और सादगी खटाई में पड़ जाती
है। फिल्म में नाचते-गाते समय वह बहुत स्वाभाविक लगती हैं। खासकर, स्वयं
नृत्य निर्देशक होने की वजह से उनके डांसिंग स्टेप्स लय में दिखते हैं। बमन
ईरानी ने भी डांस करते समय उनसे तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश की है। अन्य
किरदारों में फरहाद की मां बनी डेजी ईरानी और दादी शम्मी आंटी स्वाभाविक और
प्रिय लगते हैं।
बेला भंसाली सहगल ने प्रौढ़ प्रेमियों के प्रेम, मिलन और विछोह को उनकी
उम्र के मुताबिक शालीन और रोचक ढंग से पेश किया है। शिरीन और फरहाद की मां
की मुलाकात का पहला दृश्य काफी मजेदार है। शिरीन फरहाद.. में सारे महिला
किरदार स्ट्रांग और स्वतंत्र हैं। ऐसा लगता है कि पारसी समुदाय में परिवार
और समुदाय का नियंत्रण महिलाओं के हाथ में ही रहता है। यों यह संयोग भी हो
सकता है कि इस फिल्म में पुरुष किरदार नहीं आ पाए हों। बेला भंसाली सहगल ने
मार्मिक विषय चुना है, लेकिन उसे पेश करने में वह मार्मिकता कहीं खो गई
है। हम शिरीन फरहाद.. की तकलीफ देखते भर हैं। उसे महसूस नहीं कर पाते।
फिल्म में गीत-संगीत का अधिक योगदान नहीं है। सारे गाने जबरदस्ती ठूंसे गए
हैं, इसलिए अनावश्यक और लंबे लगते हैं।
संरचना और प्रस्तुति की अंतर्निहित कमियों के बावजूद हमें बेला भंसाली सहगल के इस प्रयास की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने लोकप्रिय हो रहे अर्थहीन और कथ्यहीन सिनेमा के इस दौर में एक खास समुदाय के प्रौढ़ों की समस्या पर संवेदनशील फिल्म निर्देशित की है। चूंकि रोमांटिक कामेडी में फूहड़ता शिल्पगत विशेषता के तौर पर घुस गई है,इसलिए संभव है कि उन पर बाजार और समकालीन सफल फिल्मों का दबाव रहा हो। बमन ईरानी और फराह खान को लीड भूमिकाओं के लिए चुनना ही क्रिएटिव हिम्मत है।
अवधि- 112 मिनट
*** तीन स्टार
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