अब्बा कैफी आजमी को याद कर रही हैं शबाना आजमी
-रघुवेन्द्र सिंह
कैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे. वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे. वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे. इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रूपए देती थी. उसी में घर का खर्च चलता था. उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था. कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई. उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो. कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था. उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है. उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो. तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए. उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना.
कैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे. वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे. वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे. इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रूपए देती थी. उसी में घर का खर्च चलता था. उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था. कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई. उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो. कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था. उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है. उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो. तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए. उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना.
कैफी साहब ने 1951 में पहला गीत
बुजदिल फिल्म के लिए लिखा रोते-रोते बदल गई रात. हमको याद करना चाहिए कि
कैफी साहब ट्रेडीशनल बिल्कुल नहीं थे. शिया घराने में एक जमींदार के घर में
उनकी पैदाइश हुई थी. मर्सिहा शिया के रग-रग में बसा हुआ है. मुहर्रम में
मातम के दौरान हजरत अली को जिन अल्फाजों में याद करते हैं, वह शायरी में
है. उसकी एक रिद्म है. शिया घरानों में इस चीज की समझ हमेशा से रही है.
उसके बाद, वे जिस माहौल में पले-बढ़े, वहां शायरी का बोल-बाला था. गयारह
साल की उम्र में उन्होंने लिखा था, ‘‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े,
हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े.’’ गैर मामूली टैलेंट उनमें हमेशा
से था. उस जमाने में जो भी फिल्मों से जुड़े, चाहे वह साहिर हों, मजरूह
हों, शैलेंद्र हों, कैफी साहब हों, सबने इसे रोजगार का जरिया बनाया. ये सब
शायरी करते थे, लेकिन शायरी की वजह सो कोई आमदनी नहीं थी. फिल्म आमदनी का
एक जरिया बन गई.
एक नानू भाई वकील थे, जो स्टंट
टाइप की फिल्में लिखते थे. उनके लिए भी कैफी साहब ने गीत लिखे. साथ में वे
पार्टी का काम भी करते रहते थे. उनको पहला बड़ा ब्रेक मिला 1959 में, फिल्म
कागज के फूल में. अबरार अल्वी ने उन्हें गुरूदत्त से मिलवाया. गुरूदत्त से
बड़ी जल्दी उनकी अच्छी बन गई. कैफी साब कहते थे, ‘‘उस जमाने में फिल्मों
में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी. आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी. उसके बाद
उसमें शब्द पिरोए जाते थे. ये ठीक ऐसे ही था कि पहले आपने कब्र खोद ली.
फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश करें. तो कभी मुर्दे का पैर बाहर
रहता था तो कभी कोई अंग. मेरे बारे में फिल्मकारों को यकीन हो गया कि ये
मुर्दे ठीक गाड़ लेता है, इसलिए मुझे काम मिलने लगा.’’ वे यह भी बताते हैं
कि कागज के फूल का जो मशहूर गाना है वक्त ने किया क्या हंसीं सितम.. ये यूं
ही बन गया था. एस डी बर्मन और कैफी आजमी ने यूं ही यह गाना बना लिया था,
जो गुरूदत्त को बेहद पसंद आया. उस गाने के लिए फिल्म में कोई सिचुएशन नहीं
थी, लेकिन गुरूदत्त ने कहा कि ये गाना मुझे दे दो. इसे मैं सिचुएशन में फिट
कर दूंगा. आज अगर आप कागज के फूल देखें तो ऐसा लगता है कि वह गाना उसी
सिचुएशन के लिए बनाया गया है.
कैफी साहब के गाने बेइंतेहा मशहूर
हुए, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं हुई. गुरूदत्त डिप्रेशन में चले गए. उसके
बाद कैफी साहब के पास शोला और शबनम फिल्म आई. उसके गाने बहुत मशहूर हुए.
जाने क्या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें और जीत ही लेंगे बाजी हम-तुम, लेकिन
फिर फिल्म नहीं चली. फिर अपना हाथ जगन्नाथ आई. एक के बाद एक कैफी साहब की
काफी फिल्में आईं और सबके गाने मशहूर, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक भी फिल्म
नहीं चली. शमां जरूर एक फिल्म थी, जिसमें सुरैया थीं, उसके गाने मशहूर हुए
और वह पिक्चर भी चली. लेकिन ज्यादातर जिन फिल्मों में इन्होंने गाने लिखे,
वह नहीं चलीं. फिर फिल्म इंडस्ट्री ने इनसे पल्ला झाडऩा शुरू कर दिया और
लोग यह बात कहने लगे कि कैफी साहब लिखते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन ये अनलकी
हैं.
इस माहौल में चेतन आनंद एक दिन
हमारे घर में आए. उन्होंने कहा कि कैफी साहब, बहुत दिनों के बाद मैं एक
पिक्चर बना रहा हूं. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के गाने आप लिखें. कैफी
साहब ने कहा कि मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है और आपके साथ काम करना
मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, लेकिन लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में
हैं. चेतन आनंद ने कहा कि मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं. मैं मनहूस
समझा जाता हूं. चलिए, क्या पता दो निगेटिव मिलकर एक पॉजिटिव बन जाए. आप इस
बात की फिक्र न करें कि लोग क्या कहते हैं. कर चले हम फिदा जाने तन
साथियों.. गाना बना. हकीकत (1964) फिल्म के तमाम गाने और वह पिक्चर बहुत
बड़ी हिट हुई. उसके बाद कैफी साहब का कामयाब दौर शुरू हुआ. चेतन आनंद साहब
की तमाम फिल्में वो लिखने लगे, जिसके गाने बहुत मशहूर हुए.
हीर रांझा (1970) में कैफी साहब
ने एक इतिहास कायम कर दिया. उन्होंने पूरी फिल्म शायरी में लिखी. हिंदी
सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. आप उसका एक-एक शब्द देखें, उसमें
शायरी है. उन्होंने इस फिल्म पर बहुत मेहनत की. वह रात भर जागकर लिखते थे.
उन्हें हाई ब्लडप्रेशर था. सिगरेट बहुत पीते थे. इसी दौरान उन्हें ब्रेन
हैमरेज हुआ और फिर पैरालसिस हो गया. उसके बाद फिर एक नया दौर शुरू हुआ. नए
फिल्ममेकर्स कैफी साहब की तरफ अट्रैक होने लगे. उनमें चेतन आनंद के बेटे
केतन आनंद थे. उनकी फिल्म टूटे खिलौने के गाने उन्होंने लिखे. उसके बाद
उन्होंने मेरी दो-तीन फिल्मों टूटे खिलौने, भावना, अर्थ के गाने लिखे. बीच
में सत्यकाम, अनुपमा, दिल की सुनो दुनिया वालों बनीं. ऋषिकेष मुखर्जी के
साथ भी उन्होंने काम किया. अर्थ के गाने बहुत पॉपुलर हुए और फिल्म भी बहुत
चली.
कैफी साहब का लिखने का अपना अंदाज
था. जब डेडलाइन आती थी, तब वे लिखना शुरू करते थे. वो रात को गाने लिखने
बैठते थे. उनका एक खास तरह का राइटिंग पैड होता था. वे सिर्फ मॉन्ट ब्लॉक
पेन से लिखते थे. बाकी उनकी कोई जरूरत नहीं होती थी. ऐसा नहीं होता था कि
बच्चों शोर मत करो, अब्बा लिखना शुरू कर रहे हैं. उनका अपना स्टडी का कमरा
था, उसको वो हमेशा खुला रखते थे. हम लोग कूदम-कादी करते रहते थे. रेडियो
चलता रहता था, ताश खेला जा रहा होता था. मैं हमेशा अब्बा से यह सवाल पूछती
थी कि क्या गाने हकीकत की जिंदगी से प्रेरित होते हैं? अब्बा कहते थे कि
शायर के लिए, राइटर के लिए, यह बहुत जरूरी है कि जो घटना घटी है, वह उससे
थोड़ा सा अलग हो जाए, तब वह लिख सकता है. फिल्म की जो लिरिक राइटिंग है, वह
महदूद होती है. वो सिचुएशन पर डिपेंड होती है. शायर जिंदगी को परखता है.
जब आप जिंदगी के दर्द को महसूस करते हैं, जिंदगी से मुहब्बत महसूस करते हैं
तब आप अपने अंदर के इमोशन से इन टच रहते हैं.
कैफी साहब ने गर्म हवा (1973) के
डायलॉग लिखे, जो जिंदगी से जुड़े हुए थे. जावेद साहब को एक-एक डायलॉग याद
हैं. मजेदार बात है कि गर्म हवा में सबको एक किरदार जो याद रहता है वह है
बलराज साहनी की मां का, जो कोठरी में जाकर बैठ जाती है और कहती है कि यह घर
मैं बिल्कुल नहीं छोड़ूंगी. यह किस्सा मम्मी की नानी के साथ हुआ था, जो
उन्होंने कैफी साहब को सुनाया था, जिसे उन्होंने हूबहू लिख दिया था. गीता
और बलराज जी के बीच में बहुत सारे सीन हैं. वह मेरे और अब्बा के बीच के
रिश्ते से हैं. फारुक और गीता के बीच के सीन मेरे और बाबा के बीच के हैं.
वो हमेशा अपने आस-पास की घटनाओं पर नजर रखते थे. मैं आजाद हूं फिल्म के गीत
कितने बाजू कितने सर में उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सक्रियता का असर
देखा जा सकता है.
कैफी साहब ने बहुत मुख्तलिफ
डायरेक्टरर्स के साथ काम किया. उस वक्त जिन लोगों का बहुत नाम था, जिनमें
कैफी साहब, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर और
शैलेंद्र थे, ये सब लेफ्टिस्ट मूवमेंट से जुड़े थे और सब प्रोग्रेसिव
राइटर्स थे. उनके पास जुबान की माहिरी थी. उस जमाने में गानों में जो जुबान
इस्तेमाल होती थी, वो हिंदुस्तानी थी और उसमें उर्दू बहुत अच्छी तरह से
शामिल थी. चाहे आप शैलेंद्र को देख लें, साहिर को देखें, जां निसार अख्तर
को देखें या फिर कैफी साहब को, सबके गीतों में बाकायदा शायरी और जिंदगी का
एक फलसफा भी होता था.
कैफी साहब के लिखे तुम इतना जो
मुस्कुरा रहे हो (अर्थ), कर चले हम फिदा (हकीकत), दो दिन की जिंदगी
(सत्यकाम), जरा सी आहट (नौनिहाल), झूम-झूम ढलती रात (कोहरा), ये नैन
(अनुपमा) मुझे बहुत पसंद हैं. मैं इन गीतों को बार-बार सुनती हूं. हां,
पाकीजा (1972) फिल्म का चलते-चलते कोई यूं ही मिल गया था.. भी मुझे बहुत
पसंद है.
आज जिस तरह के गाने लिखे जाते हैं
और उनमें जिस तरह के अल्फाज होते हैं, उस पर मुझे बहुत अफसोस है. मैं
सोचती हूं कि कहां चले गए वो गाने. आज हम हिंदी फिल्म के गानों को खो रहे
हैं. मुझे लगता है कि यह हम गलती कर रहे हैं. जाहिर है कि वक्त के साथ सबको
बदलना चाहिए, लेकिन हिंदी फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसका गाना है. यह उसे
दुनिया के सभी सिनेमा से अलग बनाता है. अगर हम उसकी खूबी यानी यूएसपी को
निकाल देंगे तो फिर हमारे पास रह क्या जाएगा? मुझे लगता है कि हमें इस दौर
से निकलना चाहिए.
आजकल के गानों में अल्फाज सुनाई
ही नहीं देते हैं. बिना अल्फाज के मुझे गाने का मतलब ही नहीं समझ में आता
है. मैं सोचती हूं कि कब आएगा वह पुराना वक्त? मुझे यकीन है कि वह वक्त
आएगा जरूर, क्योंकि आप देखिए जिस जमाने में एक लडक़ी को देखा तो ऐसा लगा..
गाना चल रहा था, उसी जमाने में सरकाई लेओ खटिया जाड़ा लगे भी चला था. ठीक
वैसा ही दौर चल रहा है आज. हम लोगों के साथ ज्यादती कर रहे हैं. हम कहते
हैं कि उनको अच्छे गीत का टेस्ट नहीं है, लेकिन अगर हम उन्हें वैसे गाने दे
ही नहीं रहे हैं तो वो सुनेंगे कहां से? और फिर हम इस गलत नतीजे पर पहुंच
जाते हैं कि गाने की कोई अहमियत नहीं होती है. मुझे लगता है कि कैफी साहब
की दसवीं सालगिरह पर हमें एक बार फिर कमिट करना चाहिए.. वो इतने बड़े शायर
थे, हम उनके काम को उठाएं, संभालें, देखें और युवा लेखकों को प्रेरणा दें
ताकि वे कुछ सीखें.
जब फूट-फूटकर रो पड़ीं शबाना
अर्थ
कैफी
आजमी द्वारा लिखित अर्थ फिल्म के गीत तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो.. की
शूटिंग दो दिन तक हुई थी. इस गीत की शूटिंग के दौरान हर शॉट के बाद शबाना
आजमी की आंखों से बरबस आंसू निकल आते थे. बकौल शबाना, ‘‘मेरी आंखों से
भर-भरकर आंसू निकल आते थे, क्योंकि वो इतनी नजाकत से लिखे हैं. कैसे बताएं
कि वो तन्हा क्यों हैं.. इतनी खूबसूरती से यह गाना लिखा हुआ है.’’
कैफी आजमी के जीवन पर एक नज़र:-
-कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मिजवां ग्राम में 1919 में हुआ था.
-कैफी आजमी की जन्मतिथि उनकी अम्मी को याद नहीं थी. उनके मित्र डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सुखदेव ने उनकी जन्मतिथि चौदह जनवरी रख दी.
-उन्होंने 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली. बाद में वे प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के सक्रिय कार्यकर्ता बने.
-1951 में वे फिल्मों से जुड़े.
शाहिद लतीफ की फिल्म बुजदिल में उन्होंने पहली बार गीत लिखे. बाद में
उन्होंने हीर रांझा, मंथन और गर्म हवा फिल्मों का लेखन किया.
-कैफी आजमी ने सईद मिर्जा की फिल्म नसीम (1997) में अभिनय किया. यह किरदार पहले दिलीप कुमार निभाने वाले थे.
-कैफी आजमी केवल मॉन्ट ब्लॉक पेन
से लिखते थे. उनकी पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क के फाउंटेन हॉस्पिटल में
होती थी. जब उनकी मौत हुई, तो उनके पास अट्ठारह मॉन्ट ब्लॉक पेन थे.
-कैफी आजमी को सात हिंदुस्तानी (1969) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
-भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री
सम्मान से सम्मानित किया था. इसके अलावा, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार
एवं गर्म हवा (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ कथा, पटकथा एवं संवाद के फिल्मफेयर
पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
-कैफी आजमी ने कुल अस्सी हिंदी फिल्मों में गीत लिखे हैं.
(जनवरी २०१२-फिल्मफेयर)
Comments
'बचपन से ये रंग लाल है'
http://duboyamujhkohonene.blogspot.in/2012/07/blog-post_20.html
............
International Bloggers Conference!
बहुत बहुत धन्यवाद...