फिल्म समीक्षा : शांघाई-वरूण ग्रोवर
वरूण ग्रोवर ने शांघाई की यह पर लिखी है। उनसे पूछे बगैर मैंने उसे चवन्नी के पाठकों के लिए यहां पोस्ट किया है। moifightclub.wordpress.com/2012/06/11/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AD%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%8B-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%88/ आनंद लें।
नोट: इस लेख में कदम-कदम पर spoilers हैं. बेहतर यही होगा कि फिल्म देख के पढ़ें. (हाँ, फिल्म देखने लायक है.) आगे आपकी श्रद्धा.
मुझे नहीं पता मैं लेफ्टिस्ट हूँ या राइटिस्ट. मेरे दो बहुत करीबी,
दुनिया में सबसे करीबी, दोस्त हैं. एक लेफ्टिस्ट है एक राइटिस्ट. (वैसे
दोनों को ही शायद यह categorization ख़ासा पसंद नहीं.) जब मैं लेफ्टिस्ट के
साथ होता हूँ तो undercover-rightist होता हूँ. जब राइटिस्ट के साथ होता
हूँ तो undercover-leftist. दोनों के हर तर्क को, दुनिया देखने के तरीके
को, उनकी political understanding को, अपने अंदर लगे इस cynic-spray से
झाड़ता रहता हूँ. दोनों की समाज और राजनीति की समझ बहुत पैनी है, बहुत नयी
भी. अपने अपने क्षेत्र में दोनों शायद सबसे revolutionary, सबसे संजीदा
विचार लेकर आयेंगे. और बहुत हद तक मेरी अपनी राजनीतिक समझ ने भी इन दोनों
दोस्तों से घंटों हुई बातों के बाद भस्म होकर पुनर्जन्म लिया है. मैं अब हर
बड़े मुद्दे (अन्ना, inflation, मोदी, कश्मीर, और काम की फिल्मों) पर उनके
विचार जानने की कोशिश करता हूँ. और बहुत कन्फ्यूज रहता हूँ. क्योंकि अब
मेरे पास हर सच के कम से कम दो version होते हैं. क्योंकि आज के इस दौर में
हर सच के कम से कम दो version मौजूद हैं.
इस अजब हालात की बदौलत मैं हर चीज़ को दो नज़रियों से देखता हूँ, देख
पाता हूँ. अक्सर ना चाहते हुए भी. यह दिव्य-शक्ति मुझे मेरा political
satire शो (जय हिंद)
लिखने में बहुत मदद करती है लेकिन मेरी बाकी की ज़िंदगी हराम हो गयी है.
अब मैं किसी एक की साइड नहीं ले सकता. (मुझे याद है बचपन में मैं और मेरा
छोटा भाई क्रिकेट के फ़ालतू मैचों में भी, जैसे कि जिम्बाब्वे बनाम
श्रीलंका, अपनी अपनी साइड चुन लेते थे. इससे मैच का मज़ा कई गुना बढ़ जाता
था. और देखने का एक मकसद मिलता था.) और साइड न ले सकना बहुत बड़ा श्राप है.
यह सब इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि शांघाई में भी ऐसे ही ढेर सारे सच हैं.
यह आज के शापित समय की कहानी है. ढेर सारे Conflicting सच जो पूरी फिल्म
में एक दूसरे से बोतल में बंद जिन्नों की तरह आपस में टकराते रहते हैं. आज
के हिंदुस्तान की तरह, आप इस फिल्म में भी किसी एक की साइड नहीं ले सकते.
उस डॉक्टर अहमदी की नहीं जो अमेरिका में प्रोफेसरी कर रहे हैं और अपने
लेफ्टिस्ट विचारों से एक बस्ती के आंदोलन को हवा देने चार्टर्ड फ्लाईट पकड़
के आते हैं. वो जो निडर हैं और सबसे नीचे तबके के हक की बात बोलते हैं
लेकिन सच में आज तक एक भी displaced को rehabilitate नहीं कर पाए हैं.
डॉक्टर अहमदी की बीच चौक में हुई हत्या (सफ़दर हाशमी?)
जिसे एक्सीडेंट साबित करना कोई मुश्किल काम नहीं, जगाता है उनकी
पूर्व-छात्रा और प्रेमिका शालिनी को. लेकिन आप शालिनी की भी साइड नहीं ले
सकते क्योंकि वो एक अजीब से idealism में जीती है. वो idealism जो ढेर सी
किताबें पढ़ के, दुनिया देखे बिना आता है. वो idealism जो अक्सर छात्रों
में होता है, तब तक जब तक नौकरी ढूँढने का वक्त नहीं आ जाता.
शालिनी का idealism उसको अपनी कामवाली बाई की बेटी को पढाने के लिए पैसे
देने को तो कहता है लेकिन कभी उसके घर के अंदर नहीं ले जाता. और इसलिए जब
शालिनी पहली बार अपनी बाई के घर के अंदर जाती है तो उसकी टक्कर एक दूसरी
दुनिया के सच से होती है और शालिनी को उस सच पे हमला करना पड़ता है. उसकी
किताबें कोने में धरी रह जाती हैं और वार करने के लिए हाथ में जो आता है वो
है खाने की एक थाली. Poetically देखें तो, दुनिया का अंतिम सच.
हम middle-class वालों के लिए सबसे आसान जिसकी साइड लेना है वो है IAS
अफसर कृष्णन. उसे अहमदी की मौत की रपट बनाने के लिए one-man enquiry
commission का चीफ बनाया गया है. (“हमारे देश में ऐसे कमीशन अक्सर बैठते
हैं. फिर लेट जाते हैं. और फिर सो जाते हैं.”, ऐसा मैंने देहरादून में १९८९
में एक कवि सम्मेलन में सुना था.) कृष्णन IIT का है. IITs देश की और इस
फिल्म की आखिरी उम्मीद हैं. अगर इन्साफ मिला तो कृष्णन ही उसे लाएगा. लेकिन
अंत आते आते कृष्णन का इन्साफ भी बेमानी लगने लगता है. वो दो चोरों में से
एक को ही पकड़ सकता है. एक चोर को इस्तेमाल कर के दूसरे को पकड़ सकता है.
कौन सा चोर बड़ा है यह ना हम जानते हैं ना वो. और पकड़ भी क्या सकता है,
इशारा कर सकता है कि भई ये चोर है इसे पकड़ लो. उसे हिंदुस्तान की कछुआ-छाप
अदालतें पकड़ेंगी या नहीं इसपर सट्टा लगाया जा सकता है. (आप किसपर सट्टा
लगाएंगे? बोफोर्स मामले में किसी पे लगाया था कभी?) कृष्णन का इन्साफ एक
मरीचिका है. जैसे बाकी का shining India और उसके IIT-IIM हैं. (एक लाइन जो
फिल्म के ट्रेलर में थी लेकिन फाइनल प्रिंट में नहीं – कृष्णन की कही हुई-
‘सर जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है .’)
शांघाई के बाकी किरदार भी इतने ही flawed हैं. इतने ही उलझे हुए. (शायद
इसीलिए Comedy Circus को अपनी आत्मा बेचे हुए हमारे देश को यह फिल्म समझ ही
नहीं आ रही.) लेकिन इन सब के बावजूद शांघाई एक serious फिल्म नहीं है.
Depressing है, डरावनी भी…लेकिन उतनी ही जितना कोई भी well-written
political satire होता है. दो हिस्सा ‘जाने भी दो यारों’ में एक हिस्सा ‘दो
बीघा ज़मीन’ घोली हुई. ’दो बीघा ज़मीन’ से थोड़ी ज़्यादा भयावह… ‘जाने भी
दो यारों’ से काफी ज़्यादा tongue in cheek. (‘जाने भी दो यारों’ से कुछ और
धागे भी मिलते हैं. Politician-builder lobby, एक हत्या, अधमने पत्रकार,
ह्त्या की जाँच, और एक अंतिम दृश्य जो कह दे ‘यहाँ कुछ नहीं हो सकता.’)
दिबाकर की नज़र
दिबाकर बनर्जी को बहुत से लोग हमारे समय का सबसे intellectual
फिल्म-मेकर मानते हैं. वैसे मेरे हिसाब से intellectual आज के समय की सबसे
भद्र गाली है लेकिन जो मानते हैं वो शायद इसलिए मानते हैं कि उनके अलावा
कोई और है ही नहीं जो कहानी नहीं, concepts पर फिल्म बना रहा हो. दिबाकर की
दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए’ देखने वाले बहुतों को लगा कि कहानी नहीं
थी. या कहानी पूरी नहीं हुई. हाल ही में प्रकाशित ‘शहर और सिनेमा वाया दिल्ली’ के लेखक मिहिर पंड्या
के शब्दों में “‘ओए लक्की..’ शहरी नागरिक समाज की आलोचना है. इस समाज की
आधुनिकता की परिभाषा कुछ इस तरह गढ़ी गयी है कि उसमें हाशिए का व्यक्ति चाह
कर भी शामिल नहीं हो पाता.”
उनकी पिछली फिल्म ‘लव, सेक्स, और धोखा’ voyeursim को तीन दिशाओं से छुप
के देखती एक चुपचाप नज़र थी. यानी कि voyeurism पर एक voyeuristic नज़र.
अब आप बताइये, आज कल के किस और निर्देशक की फिल्मों को इस तरह के सटीक
concepts पे बिछाया जा सकता है? और क्योंकि वो concepts पर फिल्में बनाते
हैं इसलिए उनकी हर फिल्म एक नयी दुनिया में घुसती है, एक नया genre पकडती
है.
लेकिन उनकी जो बात सबसे unique है वो है उनकी detailing. शर्तिया उनके
level की detailing पूरे हिंदुस्तान के सिनेमा में कोई नहीं कर रहा. उनके
satire की चाबी भी वहीँ है. बिना दो-पैसा farcical हुए भी वो सर्वोच्च
दर्ज़े का satire लाते हैं. Observation इतना तगड़ा होता है, और इतनी
realistic detailing के साथ आता है कि वही satire बन जाता है. और शांघाई
में ऐसे observations किलो के भाव हैं. कुछ मासूम हैं और कुछ morbid, लेकिन
सब के सब effortless.
स्टेज शो में चल रहे Item song का एक नेता जी की entry पर रुक जाना, और
item girl का झुक कर नेता को नमस्ते करना, कृष्णन का अपने laptop पर भजन
चलाकर पूजा करना, चीफ मिनिस्टर के कमरे के बाहर बिना जूतों के जुराबें पहन
कर बैठे इंतज़ार करता IAS अफसर और कमरे में जाते हुए रास्ते में एक कोने
में पड़े गिफ्ट्स के डब्बों का अम्बार, सुबह gym और शाम को हलवे-पनीर की
दावत की रोजाना साइकल में उलझा सत्ता का एक प्रतिनिधि, तराजू पर मुफ्त में
बांटे जाने वाले laptops से तुलता एक ज़मीनी नेता, हस्पताल में अपने मरते
हुए प्रोफेसर को देख बिफरी सी शालिनी के चिल्लाने पर नर्स का कहना ‘आपको
fighting करना है तो बाहर जाकर कीजिये’, अंग्रेजी स्पीकिंग कोर्स की क्लास
में दीवार पर मूँछ वाले सुपरमैन की पेन्टिंग, एक पूरी बस्ती ढहा देने के
पक्ष में lobbying कर रहे दल का नारा ‘जय प्रगति’ होना, अपने टेम्पो से एक
आदमी को उड़ा देने के बाद भी टेम्पो वाले को दुनिया की सबसे बड़ी फ़िक्र ये
होना कि उसका टेम्पो पुलिस से वापस मिलेगा या नहीं – यह सब हमारे सुगन्धित
कीचड़ भरे देश के छींटे ही हैं.
दिबाकर के पास वो cynical नज़र है जो हमें अपने सारे flaws के साथ
अधनंगा पकड़ लेती है और थोड़ा सा मुस्कुरा कर परदे पर भी डाल देती है.
शांघाई के एक-एक टूटे फ्रेम से हमारे देश का गुड-मिश्रित-गोबर रिस रहा है.
आप इसपर हँस सकते हैं, रो सकते हैं, या जैसा ज्यादातर ने किया – इसे छोड़
के आगे बढ़ सकते हैं यह कहते हुए कि ‘बड़ी complicated पिच्चर है यार.’
फिल्म की आत्मा
जग्गू और भग्गू इस फिल्म की आत्मा होने के लिए थोड़े अजीब किरदार हैं.
इन दोनों ने सिर्फ पैसों के लिए उस आदमी को अपने टेम्पो के नीचे कुचल दिया
जो असल में उन्हीं की लड़ाई लड़ रहा था. और उसके मरने के बाद भी कम से कम
भग्गू को तो कोई अफ़सोस नहीं है. उसे बस यही चिंता है कि जग्गू मामा जेल से
कब छूटेगा और उन्हें उनका टेम्पो वापस कब मिलेगा.
ऐसे morally खोखले प्राणी इस फिल्म की आत्मा हैं. और यही इस फिल्म का
मास्टर-स्ट्रोक भी है. फिल्म इन्हीं से शुरू होती है, और इनपर ही खत्म होती
है. पहले सीन में भग्गू अपने मामा जग्गू से पूछ रहा है कि मटन को अंग्रेजी
में क्या कहते हैं. उसने सुना है कि मिलिट्री में लड़ाई पे जाने से पहले
मटन खिलाया जाता है. उसके इस सवाल का अर्थ थोड़ी देर में समझ आता है.
प्रोफेसर अहमदी को मारने के काम को भग्गू युद्ध से कम नहीं मान रहा, और
इसलिए वो मटन की सोच रहा है. वो एक कोचिंग में अंग्रेजी भी सीख रहा है,
ताकि इस गुरबत की ज़िंदगी से बाहर निकले. कहाँ, उसे नहीं पता, पर बाहर कुछ
तो होगा शायद ये धुंधला ख्याल उसके दिमाग में है. लेकिन अंग्रेजी सीख रहा
है इसलिए भी मटन की अंग्रेजी सोच रहा है. (संवादों में इस detailing का
जादू दिबाकर के अलावा किसकी फिल्म में दिखता है? और इसके लिए फिल्म की
सह-लेखिका उर्मी जुवेकर को भी सलाम.)
भग्गू फिल्म में (और देश में) दिखने वाले हर उग्र aimless युवा का
representative है. हर उस भीड़ का collective face जो भंडारकर ओरिएंटल
रिसर्च इंस्टीट्यूट में घुसकर तोड़फोड़ करती है क्योंकि किसी ने उन्हें कह
दिया है कि शिवाजी के खिलाफ लिखी गयी किताब की रिसर्च यहीं हुई थी. भग्गू
को नहीं जानना है शिवाजी कौन थे, या किताब में उनपर क्या बुरा लिखा गया था.
उसे बस तेज़ी से दौड़ती इस भीड़ में अपना हिस्सा चाहिए. उसे दुनिया के शोर
में अपनी आवाज़ चाहिए. उसे थोड़े पैसे चाहिए और कुछ पलों के लिए यह एहसास
चाहिए कि वो कुछ ऐतेहासिक कर रहा है. किसी म्यूजियम या पेंटिंग exhibition
पर हमला करना, किसी किताबों की दुकान जला देना, किसी पर ट्रक चढ़ा देना…सब
ऐतेहासिक है, और भग्गू ये सब करेगा. क्योंकि भग्गू वैसे भी क्या ही कर रहा
है?
जग्गू मामा थोड़ा बूढा है. वो शायद जवानी में भग्गू जैसा ही था. लेकिन
अब वो दौर गुज़र गया. अब वो बोलता नहीं. लेकिन वो मना भी नहीं करता. फिल्म
की सबसे यादगार लाइन में, शालिनी के हाथों बेहिसाब पिटने के बाद और ये पूछे
जाने के बाद कि ‘तुम्हें शर्म नहीं आई सबके सामने एक आदमी को मारते हुए?’,
जग्गू कहता है – ‘आपने भी तो मारा मुझे. मेरी बेटी के सामने. मैने आपका
क्या कर लिया?’ जग्गू सर्वहारा है. जग्गू ‘पीपली लाइव’ के बाद एक बार फिर
प्रेमचंद के ‘गोदान’ का होरी महतो है. जग्गू को हर सुबह अपना ही घर तोडना
है और रात में उसे बनाना है. क्योंकि उसी में बाकी की दुनिया का फायदा है.
बाकी की फिल्म…
बाकी की फिल्म में ढेर सारे और किरदार हैं…हमारे आस-पास से निकले हुए.
जात के बाहर शादी ना कर पाया, जोधपुर से भागा एक लड़का है, जो अभी चीज़ें
समझ ही रहा है. प्रोफेसर अहमदी की बीवी है जो फिल्म के अंत में एक hording
पर नज़र आती है और कालचक्र का एक चक्र पूरा करती है, IAS अफसर कृष्णन का
बॉस है जो बिलकुल वैसा है जैसा हम आँख बंद कर के सोच सकते हैं. और हमेशा की
तरह दिबाकर बनर्जी के कास्टिंग डायरेक्टर अतुल मोंगिया का चुनाव हर रोल के
लिए गज़ब-फिट है.
इतनी अद्भुत कास्टिंग है कि फिल्म का realism का वादा आधा तो यूँ ही
पूरा हो जाता है. इमरान हाशमी तक से वो काम निकाला गया है कि आने वाली
पुश्तें हैरान फिरेंगी देख कर. फारुख शेख (जिनका ‘चश्मे बद्दूर’ का एक फोटो
मेरे डेस्कटॉप पर बहुत दिनों से लगा हुआ है), कलकी, तिलोत्तमा शोम,
पितोबाश, और अभय देओल ने अपने-अपने किरदार को अमृत पिलाया है अमृत. लेकिन
सबसे कमाल रहे अनंत जोग (जग्गू मामा) और सुप्रिया पाठक कपूर (मुख्य
मंत्री). अनंत जोग, जिनके बारे में वासन बाला ने इंटरवल में कहा कि ‘ये तो
पुलिस कमिश्नर भी बनता है तो छिछोरी हरकतें करता है’ इस फिल्म में किसी
दूसरे ही प्लेन पर थे. इतनी ठहरी हुई, खोई आँखें ही चाहिए थीं फिल्म को
मुकम्मल करने को. और सुप्रिया पाठक, जो पूरी फिल्म में hoardings और
banners से दिखती रहीं अंत में सिर्फ एक ३-४ मिनट के सीन के लिए दिखीं
लेकिन उसमें उन्होंने सब नाप लिया. बेरुखी, formality, shrewdness,
controlled relief…पता नहीं कितने सारे expressions थे उस छोटे से सीन में.
जाते जाते…
फिल्म में कुछ कमजोरियां हैं. खास कर के अंत के १०-१५ मिनट जल्दी में
समेटे हुए लगते हैं, और कहीं थोड़े से compromised भी. लेकिन अगर इसे
satire की नज़र से देखा जाए तो वो भी बहुत अखरते नहीं. बाकी बहुतों को पसंद
नहीं आ रही…और जिन्हें नहीं आ रही, उनसे कोई शिकायत नहीं. क्योंकि जैसा कि
मेरे दो मित्रों ने मुझे सिखाया है – सच के कम से कम दो version तो होते
ही हैं.
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