फिल्म समीक्षा : फरारी की सवारी
मध्यवर्गीय मुश्किलों में भी जीत
-अजय ब्रह्मात्मज
विनोद चोपड़ा फिल्म्स स्वस्थ मनोरंजन की पहचान बन चुका है। प्रदीप सरकार
और राजकुमार हिरानी के बाद इस प्रोडक्शन ने राजेश मापुसकर को अपनी फिल्म
निर्देशित करने का मौका दिया है। राजेश मापुसकर ने एक सामान्य विषय पर
सुंदर और मर्मस्पर्शी कहानी बुनी हैं। सपने टूटने और सपने साकार होने के
बीच तीन पीढि़यों के संबंध और समझदारी की यह फिल्म पारिवारिक रिश्ते की
बांडिंग को प्रभावपूर्ण तरीके से पेश करती है। राजेश मापुसकर की कल्पना को
विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने कागज पर उतारा है। बोमन ईरानी,
शरमन जोशी और ऋत्विक सहारे अपने किरदारों को प्रभावशाली तरीके से निभा कर
फरारी की सवारी को उल्लेखनीय फिल्म बना दिया है।
फिल्म के शीर्षक फरारी की सवारी की चाहत सहयोगी किरदार की है, लेकिन इस
चाहत में फिल्म के मुख्य किरदार अच्छी तरह गुंथ जाते हैं। रूसी (शरमन जोशी)
अपने प्रतिभाशाली क्रिकेटर बेटे केयो (ऋत्विक सहारे) के लिए कुछ भी कर
सकता है। तीन पीढि़यों के इस परिवार में कोई महिला सदस्य नहीं है। अपने
बिस्तर पर बैठे मूंगफली टूंगते हुए टीवी देखने में मशगूल मोटा पापा (बोमन
ईरानी) घर की हर गतिविधि से वाकिफ रहते हैं। उनके कान हमेशा जगे रहते हैं।
मोटा पापा अपने किशोरावस्था में क्रिकेटर थे। रणजी खेल चुके थे, लेकिन
नेशनल टीम में चुनाव के दिन दोस्त दिलीप धर्माधिकारी की साजिश की वजह से
छंट गए थे। क्रिकेट में छल-कपट भुगत चुके मोटा पापा नहीं चाहते कि उनका
बेटा क्रिकेटर हो। बेटा तो मान जाता है, लेकिन पोते में आनुवंशिक गुण आ
जाता है।
केयो धुरंधर क्रिकेटर है। अपनी उम्र के इस तीक्ष्ण खिलाड़ी का चुनाव
लार्ड्स के विशेष प्रशिक्षण के लिए होने वाला है। एक ही दिक्कत है कि चुने
जाने पर उसे डेढ़ लाख रुपए की फीस भरनी होगी। सीमित आय के इस परिवार के लिए
इतनी भरी रकम जुटाना मुश्किल काम है। रूसी अत्यंत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ
नागरिक है। बेटे के भविष्य के लिए वह एक बार अपनी ईमानदारी से डिगता है।
उसे कुछ घंटों के लिए अपने पिता के संपर्क से सचिन तेंदुलकर की लाल फरारी
किसी को उपलब्ध करावा देनी है, जिसके एवज में उसे डेढ़ लाख रुपए मिल
जायेंगे। घटनाएं कुछ यों घटती हैं कि वह सचिन तेंदुलकर को बताए बगैर उनकी
फरारी लेकर निकल जाता है। उसके बाद की घटनाएं फरारी की तरह तेज स्पीड से
घटती हैं।
फरारी की सवारी में पिता-पुत्र संबंध का लेखक-निर्देशक ने मार्मिक चित्रण
किया है। फिल्म रुलाने की कोशिश में जबरन भावुक नहीं होती, फिर भी केयो के
परिवार की स्थिति-परिस्थति देख कर आंखें भर आती हैं। अभाव और वंचना के बीच
पलते सपने के अंकुर विश्वास दिलाते हैं कि प्रतिभाएं कहीं भी फूट सकती हैं।
उन्हें बढ़ने के लिए सही माहौल और मौका मिलना चाहिए। फरारी की सवारी
मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा का रूपक गढ़ती है, जिसमें सचिन तेंदुलकर और उनकी
फरारी का प्रतीकात्मक इस्तेमाल फिल्म के मर्म को गाढ़ा और परिचित करता है।
फिल्म में राजकुमार हिरानी के संवादों की सहजता जोड़ती है। फिल्म हमें अपने
आस-पास की लगने लगती है,क्योंकि रूसी,्र केयो और मोटा पापा की दशा-दुर्दशा
से देश के अनेक परिवार गुजर रहे हैं। अच्छी बात है कि फिल्म अनावश्यक रूप
से भावुक नहीं होती और सामान्य मध्यवर्गीय जीवन का मुश्किलों को उजागर कर
देती है।
यह फिल्म ऋत्विक सहारे, शरमन जोशी और बमन ईरानी के प्रशंसनीय और विश्वसनीय
अभिनय के लिए भी देखी जा सकती है। सहयोगी कलाकारों में सीमा पाहवा,
सत्यदीप मिश्र और परेश रावल आदि ने सुंदर और उपयुक्त योगदान दिया है।
सिनेमैटोग्राफर सुधीर पलासणे ने फरारी की स्पीड के साथ भावों की तीव्रता को
भी बखूबी पर्दे पर उतारा है। रात में दादा-पोते के बीच हुआ क्रिकेट मैच
भावपूर्ण बन गया है। फिल्म के नाटकीय दृश्यों में अनुरूप पाश्र्र्व संगीत
और उम्दा कलाकारों के अभिनय की जुगलबंदी प्रभाव डालती है। फिल्म का संगीत
सामान्य और जरूरत के मुताबिक है। विद्या बालन का आयटम सॉन्ग माला जाऊ दे
फिल्म में चिप्पी की तरह नहीं आया है। वह फिल्म का हिस्सा बन गया है।
सचमुच,देसी ड्रेस और डांस में भी अभिनेत्रियां आकर्षक लग सकती हैं।
*** 1/2 साढ़े तीन स्टार
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