फिल्म समीक्षा : शांघाई-गौरव सोलंकी
यह रिव्यू गौरव सोलंकी के ब्लॉग रोटी कपड़ा और मकान से चवन्नी के पाठकों के लिए...
शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है
एक लड़का है, जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक दुकान खुलेगी और ‘समृद्धि इंगलिश क्लासेज’ से वह अंग्रेजी सीख लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘शंघाई’ के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘राष्ट्रीय फ़िल्म’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी ‘राष्ट्रीय कथा’ है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो सकती है।
लेकिन कपड़े झाड़कर
खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह ‘शंघाई’
कहीं गर्व से नहीं भरती, कहीं अपने सम्मान में तनकर सीधे खड़े होने की माँग नहीं
करती, बल्कि आपकी छाती पर हथौड़े मारती है और आपके कानों को हमेशा के लिए आपके
ढाँचे से निकालकर एक बूढ़ी औरत की उस पुकार में ले जाती है, जो हमारे रचे इस वर्तमान
में रह नहीं पा रही, इसलिए अतीत में जाकर अपने बेटे कुक्कु को पुकारती रहती है।
’कुक्कु कौन है?’
वीडियो शूटर जोगी उस
बेटे की बेटी शालिनी से पूछता है। और हम सब एक दूसरे से। कुक्कु यूं तो शालिनी के
पिता हैं लेकिन वह हर आदमी भी है जिसे सच्चे होने की सज़ा मिली। जिसे हर शहर की
पुलिस झूठे केसों में ढूंढ़ती है, सताती है, ख़त्म करती है। जिसे किसी बेचैन रात में
इसीलिए कुचल दिया गया, क्योंकि वह कमज़ोरों के कुचले जाने का विरोध कर रहा था। जो
बराबरी के लिए लड़ रहा था, उसे पचासों लोगों ने मारा और हम सब की चुप्पी ने। कि हम
अख़बार पढ़ते रहे, वे सब बिके हुए अख़बार, जिन्हें इस बात की फ़िक्र ज़्यादा है कि एक
हीरोइन टीना की प्रियंका चोपड़ा से कोई अनबन है क्या। कि हम मॉल्स में जाते रहे, 35
रुपए का पानी पीने, 90 रुपए की मकई खाने, जिन्हें हमारी ज़मीन और उसी के कुंओं से
निकाला गया। हम उन काँच के दरवाज़ों के पीछे खड़े होकर उस मॉल में आने वालों से
समृद्धि इंगलिश क्लासेज से सीखी टूटी फूटी अंग्रेजी में कहते रहे, “मे आई चैक यू सर?” और इस से भारत चमकता रहा, चमक रहा है, पुल, बाँध,
सड़क, एटोमिक पावर, स्काईस्क्रैपर, सेक्स, सेंसेक्स, आईपीएल, बिगबॉस। और सल्फ़ास
खाकर वे सब मरते रहे, जिन्हें हर रेल में चिपके हुए ‘सिक्योरिटी गार्ड और हैल्पर की भर्ती’ के विज्ञापन ही मार डालते थे। टीवी पर ख़बर आई
कि ‘हमारे पत्रकार ने शिवजी के
कुत्ते से बात की है।’ हमने
आँखें गड़ाकर देखी भी।
ख़ैर, डॉक्टर अहमदी ने जो कहानी सुनाई और जो दिबाकर बनर्जी और उनकी टीम ने हमें सुनाई, उस कहानी पर हमारे और आपके बात करने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, क्योंकि जहाँ वह कहानी पहुँचनी चाहिए, वहाँ शायद ‘राउडी राठौड़’ देखी जा रही हो या अगली ऐसी ही किसी दूसरी फ़िल्म का इंतज़ार किया जा रहा हो। (मैं ग़लत सिद्ध होऊं, यह चाहता रहूंगा) और जहाँ हम उसे देख रहे हैं, बात कर रहे हैं, वहाँ हमारे पास उस कहानी के अच्छे अंत का शायद कोई विकल्प नहीं। बदलना तो है लेकिन बदलें कैसे, यह सोचने की हमें फ़ुर्सत नहीं है। और साहस तो देखिए, महंगा बहुत है।
मैंने भी तो यह फ़िल्म एक मॉल में देखी, झारखंड से आए एक गार्ड ने मुस्कुराकर मेरी तलाशी ली जो बारह घंटे की एक रात के सौ रुपयों के लिए रात को एक दूसरी बिल्डिंग में चौकीदारी करता है, और जिसके साथ खड़ा उसका कोई हमपेशा मुझे विकल्प देता है कि कि मैं डेढ़ सौ रुपए में दो टब पॉपकोर्न ले सकता हूं या कोल्डड्रिंक की दो बोतल।
’शंघाई’ का एक और नायक कृष्णन यह सब नहीं जानता था। वह विकास के बाँध देखता था लेकिन उनके पानी में मिले इंसानी खून को, उसकी आईआईटी की पढ़ाई, हाईप्रोफ़ाइल सरकारी नौकरी और विदेश जाने के सपने अनदेखा कर देते थे। शंघाई सबसे अच्छा काम यही करती है कि उसके लैपटॉप पर आग फेंककर उसे भारतनगर के कीचड़ में उतारती है और सब देखने देती है। तब लौटने या बचने का कोई रास्ता नहीं। वह ईमानदार रहा है और दिमागदार भी, और उसी के पास शक्ति भी है। इसीलिए वह बाकी नायकों की तरह शहीद नहीं होता। वही व्यवस्था का इकलौता उम्मीद भरा चेहरा भी है।
ख़ैर, डॉक्टर अहमदी ने जो कहानी सुनाई और जो दिबाकर बनर्जी और उनकी टीम ने हमें सुनाई, उस कहानी पर हमारे और आपके बात करने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, क्योंकि जहाँ वह कहानी पहुँचनी चाहिए, वहाँ शायद ‘राउडी राठौड़’ देखी जा रही हो या अगली ऐसी ही किसी दूसरी फ़िल्म का इंतज़ार किया जा रहा हो। (मैं ग़लत सिद्ध होऊं, यह चाहता रहूंगा) और जहाँ हम उसे देख रहे हैं, बात कर रहे हैं, वहाँ हमारे पास उस कहानी के अच्छे अंत का शायद कोई विकल्प नहीं। बदलना तो है लेकिन बदलें कैसे, यह सोचने की हमें फ़ुर्सत नहीं है। और साहस तो देखिए, महंगा बहुत है।
मैंने भी तो यह फ़िल्म एक मॉल में देखी, झारखंड से आए एक गार्ड ने मुस्कुराकर मेरी तलाशी ली जो बारह घंटे की एक रात के सौ रुपयों के लिए रात को एक दूसरी बिल्डिंग में चौकीदारी करता है, और जिसके साथ खड़ा उसका कोई हमपेशा मुझे विकल्प देता है कि कि मैं डेढ़ सौ रुपए में दो टब पॉपकोर्न ले सकता हूं या कोल्डड्रिंक की दो बोतल।
’शंघाई’ का एक और नायक कृष्णन यह सब नहीं जानता था। वह विकास के बाँध देखता था लेकिन उनके पानी में मिले इंसानी खून को, उसकी आईआईटी की पढ़ाई, हाईप्रोफ़ाइल सरकारी नौकरी और विदेश जाने के सपने अनदेखा कर देते थे। शंघाई सबसे अच्छा काम यही करती है कि उसके लैपटॉप पर आग फेंककर उसे भारतनगर के कीचड़ में उतारती है और सब देखने देती है। तब लौटने या बचने का कोई रास्ता नहीं। वह ईमानदार रहा है और दिमागदार भी, और उसी के पास शक्ति भी है। इसीलिए वह बाकी नायकों की तरह शहीद नहीं होता। वही व्यवस्था का इकलौता उम्मीद भरा चेहरा भी है।
यूं तो ‘शंघाई’ पर एक फ़िल्म की तरह भी बात की जा सकती है और बताया जा सकता है कि कैसे
इमरान हाशमी कोई और ही लगने लगते हैं, कैसे चुम्बन के एक पागल सीन में उत्तेजना के
अलावा सब कुछ है- सारा दर्द और गुस्सा, कैसे आप सिनेमाहॉल से बाहर आकर अभय देओल से
मिल लेना चाहते हैं, कैसे मुझ जैसे नासमझ का यह भ्रम चूर-चूर होकर टूटता है कि
कल्कि ज़्यादा अच्छी अभिनेत्री नहीं हैं, कैसे छोटे से छोटा एक-एक किरदार लिखा गया
है और कैसे सब अभिनेताओं ने उन्हें जिया है, कैसे फ़िल्म अपने गरीबों के साथ खड़ी
रहती है और उनके बुरे होने पर भी इसकी मज़बूर वजहों पर ज़्यादा ठहरती है, कैसे कर्फ़्यू
के एक सीन पर फ़िल्म अपने किरदारों के साथ न चलकर उसके साथ वाली समांतर सड़क पर चलती
है – बन्द शटरों और आग को दिखाती
हुई, कैसे डॉ. अहमदी की ‘किसकी
प्रगति किसका देश’ किताब बेच रहे
दुकानदार के चेहरे पर कालिख पोती जाती है, स्लो मोशन में, ताकि यह थोड़ी हम सबके
चेहरों पर भी पुते। थोड़ी उनके चेहरों पर भी जिन्हें ‘भारत माता की जय’ गाने में भारत माता का अपमान दिखता है, लेकिन अपनी और
गिरोह जैसी पार्टियाँ चलाने वाले अपने राजनेताओं की करतूतों में नहीं।
गौर कीजिए कि ‘शंघाई’ की रिलीज के दिन ही एक अदालत एक मानवाधिकार संस्था की कार्यकर्ता और उसके पति को इसलिए उम्रकैद की सजा सुनाती है क्योंकि उनके पास से प्रतिबंधित नक्सली साहित्य बरामद हुआ था।
गौर कीजिए कि ‘शंघाई’ की रिलीज के दिन ही एक अदालत एक मानवाधिकार संस्था की कार्यकर्ता और उसके पति को इसलिए उम्रकैद की सजा सुनाती है क्योंकि उनके पास से प्रतिबंधित नक्सली साहित्य बरामद हुआ था।
इसीलिए ‘शंघाई’ सौ प्रतिशत बेबाकी से कही गई एक दुर्लभ और सच्ची कहानी है जिस पर
प्रतिबन्ध लगाने की माँगें की जाएंगी, यह भी बड़ी बात नहीं कि ऐसा करने के लिए वही
हिंसके रास्ते अपनाए जाएँ जिनकी पोल ‘शंघाई’ खोलती है। ‘शंघाई’ की कहानी को शायद कभी स्कूलों में नहीं सुनाया जाएगा, इस फ़िल्म को कभी
किसी कोर्स में भी शामिल नहीं किया जाएगा, जबकि उसका देखा जाना कम से कम वोट डालने
से पहले की ज़रूरी योग्यता तो बना ही देना चाहिए।
लेकिन तब भी ख़त्म करने से पहले हमें शंघाई के दो और नायकों की भी बात करनी चाहिए। उसकी, जो जोधपुर के अपने घर से तब भाग आया था जब उसकी दूसरी जाति की प्रेमिका के घरवाले उसे मारने आ रहे थे और उसके पिता ने उसके लिए दरवाजा खोलकर पूछा था कि लड़ना है या भागना है? तब वह भाग आया था लेकिन जब क्लाइमैक्स के एक सीन में वह सीपीयू लेकर चीखता हुआ भागता है तो यह लड़ना ही है। आख़िरी लड़ाई, जिसका नायक वही है। और हमारी पुलिस उसे अश्लील फ़िल्में बनाने के इल्ज़ाम में ढूंढ़ रही है।
और एक और नायक शालिनी सहाय, जो अपनी सूरत से विदेशी लगती है और इसीलिए वह वीडियो शूटर उससे अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में बात करता है। वह औरत के शरीर में सारी नैतिकता बसा देने वाले समाज पर थूकती हुई अपने शरीर को खूंटी पर टांग देने को तैयार हो जाती है, ताकि न्याय मिल सके। यह तब है, जब उसके पास न्याय का दम घोटने वाले हाथों को काट डालने के लिए तीखे दाँत भी हैं। वह फ़िल्म के लगभग सब पुरुष किरदारों से ज़्यादा निडर है।
और हाँ, अगर मैंने अनंत जोग, फारुक शेख, प्रोसेनजित, सुप्रिया पाठक और पितोबाश के अभिनय की, निकोस की सिनेमेटोग्राफी और नम्रता राव की एडिटिंग की, प्रीतम दास के साउंड डिजाइन की और माइकल मैक्लीयरी के बैकग्राउंड संगीत की कहीं तारीफ़ नहीं की तो मुझे नादान समझकर माफ़ कीजिए। फ़िल्म को इस स्तर तक ले जाने वाले बहुत सारे और भी लोग हैं, जिनके नाम मुझे नहीं मालूम।
लेकिन तब भी ख़त्म करने से पहले हमें शंघाई के दो और नायकों की भी बात करनी चाहिए। उसकी, जो जोधपुर के अपने घर से तब भाग आया था जब उसकी दूसरी जाति की प्रेमिका के घरवाले उसे मारने आ रहे थे और उसके पिता ने उसके लिए दरवाजा खोलकर पूछा था कि लड़ना है या भागना है? तब वह भाग आया था लेकिन जब क्लाइमैक्स के एक सीन में वह सीपीयू लेकर चीखता हुआ भागता है तो यह लड़ना ही है। आख़िरी लड़ाई, जिसका नायक वही है। और हमारी पुलिस उसे अश्लील फ़िल्में बनाने के इल्ज़ाम में ढूंढ़ रही है।
और एक और नायक शालिनी सहाय, जो अपनी सूरत से विदेशी लगती है और इसीलिए वह वीडियो शूटर उससे अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में बात करता है। वह औरत के शरीर में सारी नैतिकता बसा देने वाले समाज पर थूकती हुई अपने शरीर को खूंटी पर टांग देने को तैयार हो जाती है, ताकि न्याय मिल सके। यह तब है, जब उसके पास न्याय का दम घोटने वाले हाथों को काट डालने के लिए तीखे दाँत भी हैं। वह फ़िल्म के लगभग सब पुरुष किरदारों से ज़्यादा निडर है।
और हाँ, अगर मैंने अनंत जोग, फारुक शेख, प्रोसेनजित, सुप्रिया पाठक और पितोबाश के अभिनय की, निकोस की सिनेमेटोग्राफी और नम्रता राव की एडिटिंग की, प्रीतम दास के साउंड डिजाइन की और माइकल मैक्लीयरी के बैकग्राउंड संगीत की कहीं तारीफ़ नहीं की तो मुझे नादान समझकर माफ़ कीजिए। फ़िल्म को इस स्तर तक ले जाने वाले बहुत सारे और भी लोग हैं, जिनके नाम मुझे नहीं मालूम।
कुल मिलाकर, राजनीति,
ब्यूरोक्रेसी, कॉर्पोरेट, और इनकी मुट्ठी में जनता - शंघाई हमारे समाज के हर
हिस्से को अलग फ़ॉर्मेट में, लेकिन उसी कैमरे से देखती है जैसे दिबाकर अपनी पहले की
फ़िल्मों में देखते आए हैं। लेकिन यह उन सबसे अलग है और बहुत आगे। यह आपसे पूछती है
कि क्या दिबाकर ख़ुद इससे ज़्यादा सम्पूर्ण और साहसी फ़िल्म बना पाएँगे? हम यह दिबाकर
से पूछते हैं। और चलते-चलते उन्हें बताते हैं कि वे हमारे ‘राष्ट्रीय फ़िल्मकार’ जैसे हैं। अगर इससे कुछ बूंद भी शुक्रिया अता हो
सकता हो तो हमें चिल्लाकर कहने दीजिए कि हम उन्हें और उनकी फ़िल्मों को बेहद प्यार
करते हैं और उन्हें हमारे समय की सबसे अच्छी फ़िल्में मानते हैं, भले ही उन्हें ईनाम
दिलवाने और सुपरहिट बनाने की हमारी औकात न हो।
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