शांघाई, जबरदस्त पॉलिटिकल थ्रिलर-सौरभ द्विवेदी
हमेशा शिकायत रहती थी कि एक देश भारत, और उसका सिनेमा खासतौर पर बॉलीवुड
ऐसा क्यों है। ये देश है, जो आकंठ राजनीति में डूबा है। सुबह उठकर बेटी के
कंघी करने से लेकर, रात में लड़के के मच्छर मारने की टिकिया जलाने तक, यहां
राजनीति तारी है। मगर ये उतनी ही अदृश्य है, जितनी हवा। बहुत जतन करें तो
एक सफेद कमीज पहन लें और पूरे दिन शहर में घूम लें। शाम तक जितनी कालिख
चढ़े, उसे समेट फेफड़ों पर मल लें। फिर भी सांस जारी रहेगी और राजनीति
लीलने को। ये ताकत मिलती है आदमी को सिनेमा से। ये एक झटके में उसे चाल से
स्विट्जरलैंड के उन फोटोशॉप से रंगे हुए से लगते हरे मैदानों में ले जाती
है। हीरो भागता हुआ हीरोइन के पास आता है, मगर धड़कनें उसकी नहीं हीरोइन की
बेताब हो उठती-बैठती दिखती हैं कैमरे को। ये सिनेमा, जो बुराई दिखाता है,
कभी हीरोइन के पिता के रूप में, कभी किसी नेता या गुंडे के रूप में और
ज्यादातर बार उसे मारकर हमें भी घुटन से फारिग कर देता है। मगर कमाल की बात
है न कि आकंठ राजनीति में डूबे इस देश में सिनेमा राजनैतिक नहीं हो सकता।
और होता भी है, मसलन प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में, तो ये चालू मसालों
में मसला हुआ लगता है।
शंघाई सिनेमा नाम के शहर में पहनी गई सफेद चादर है। कोरी, बाजार की नीयत से
कदाचित बची और इसीलिए ये राजनीति की कालिख को भरपूर जगह देती है खुद में।
इसमें दाग और भी उजले नजर आते हैं। और ये तो इस फिल्म के डायरेक्टर दिबाकर
बैनर्जी की अदा है। खोसला का घोसला, लव सेक्स और धोखा में यही सब तो था, बस
रिश्तों, प्यार और मकान की आड़ में छिपा। इस बार पर्दा खुल गया, लाइट जल
गई और सब कुछ नजर आ गया। शंघाई पीपली लाइव का शहरी विस्तार है। वहां विकास
खैरात में पहुंचता है और यहां सैलाब के रूप में। हर भारत नगर नाम की गंदी
बस्ती को एक झटके में चमक के ऐशगाह में, कंक्रीट के बैकुंठ लोक में तब्दील
करने की जिद पाले। इसमें सब आते हैं बारी बारी, अपने हिस्से का नंगा नाच
करने। कुछ ब्यूरोक्रेट, नेता, भाड़े के गुंडे, उन गुंडों के बीच से गिरी
मलाई चाटने को आतुर आम चालाक आदमी और व्यवस्था से लगातार भिड़ते कुछ लोग,
जिन्हें बहुमत का बस चले, तो म्यूजियम में सेट कर दिया जाए। मगर फिल्म अंत
तक आते आते सबके चेहरों पर वैसे ही कालिख पोतती है, जैसे फिल्म की शुरुआत
में एक छुटभैया गुंडा भागू एक दुकानदार के मुंह पर मलता है। ये बिना शोर के
हमें घिनौने गटर का ढक्कन खोल दिखा देती है, उस बदबू को, जिसके ऊपर तरक्की
का हाईवे बना है।
क्यों देखें ये फिल्म
- जबदस्र्त कास्टिंग के लिए। इमरान को जिन्होंने अब तक चुम्मा स्टार समझा
था, वे उसके कत्थे से रंगे दांत और तोंद में फंसी चिकने कपड़े की शर्ट जरूर
देखें। उसका दब्बूपन देखें। सिने भाषा का नया मुहावरा गढ़ते हैं वह। अभय
ने कंपनी के पुलिस कमिश्नर बन मोहनलाल की याद दिला दी। इस तुलना से बड़ी
शाबासी और क्या हो सकती है उनके लिए। सुप्रिया पाठक हों या फारुख शेख, सबके
सब अपने किरदार की सिम्तें, चेहरे और डायलॉग से खोलते नजर आते हैं। इससे
फिल्म को काली सीली गहराई मिलती है, जिसके बिना इसकी अनुगूंज कुछ कम हो
जाती। कल्कि एक बार फिर खुद को दोहराती और इसलिए औसत लगी हैं। पित्तोबाश के
बिना ये पैरा अधूरा होगा। भागू का रोल शोर इन द सिटी की तर्ज पर ही गढ़ा
गया था, फिर भी इसमें ताजगी थी।
- फिल्म की कहानी 1969 में आई फ्रेंच फिल्म जी से प्रेरित है। ये फ्रेंच
फिल्म कितनी उम्दा और असरकारी थी इसका अंदाजा इससे लगाएं कि इसे उस साल
बेस्ट फॉरेन फिल्म और बेस्ट पिक्चर, दोनों कैटिगरी में नॉमिनेशन मिले थे।
बहरहाल, फिल्म सिर्फ प्रेरित है और भारत के समाज और राजनीति की महीन बातें
और उनको ठिकाना देता सांचा इसमें बेतरह और बेहतरीन ढंग से आया है। डायलॉग
ड्रैमेटिक नहीं हैं और सीन के साथ चलते हैं।
- कैमरा एक बार फिर आवारा, बदसलूक और इसीलिए लुभाता हुआ है। फर्ज कीजिए कुछ
सीन। डॉ. अहमदी अस्पताल में हैं। उनकी बीवी आती है, वॉल ग्लास से भीतर
देखती है और उसे ग्लास पर उसे अपने पति के साथ उसके एक्सिडेंट के वक्त रही
औरत का अक्स नजर आता है। या फिर एक लाश किन हालात में सड़क किनारे निपट
अकेली खून बहाती है, इसे दिखाने के लिए बरबादियों को घूमते हुए समेटता
कैमरा, जो कुछ पल एक बदहवास कॉन्स्टेबल पर ठिठकता है और फिर उस नाली को
कोने में जगह देता है, जहां एक भारतीय का कुछ खून बहकर जम गया है।
- फिल्म का म्यूजिक औसत है। अगर अनुराग की भाषा में कहें, तो दोयम दर्जे का
है। भारत माता की जय के कितने भी आख्यान गढ़े जाएं, ये एक लोकप्रिय
तुकबंदी भर है, दुर्दैव के दृश्य भुनाने की भौंड़ी कोशिश करती। इसमें देश
मेरा रंगरेज रे बाबू जैसी गहराई नहीं। इंपोर्टेड कमरिया भी किसी टेरिटरी के
डिस्ट्रीब्यूटर के दबाव में ठूंसा गाना लगता है। विशाल शेखर भूल गए कि इस
फिल्म के तेवर कैसे हैं। दिबाकर को स्नेहा या उसी के रेंज की किसी ऑरिजिनल
कंपोजर के पास लौटना होगा।
क्या है कहानी
किसी राज्य की सत्तारूढ पार्टी भारत नगर नाम के स्लम को हटाकर वहां आईटी
पार्क बनाना चाहती है। वहां प्रसिद्ध समाज सेवक डॉ. अहमदी पहुंचते हैं
गरीबों को समझाने कि विकास के नाम पर उनसे धोखा किया जा रहा है। सत्ता पक्ष
को ये रास नहीं आता और अहमदी को जान से मारने की कोशिश होती है। राजनीति
शुरू होती है, जिसके घेरे में आते हैं करप्शन के नाम पर जेल में फंसे जनरल
सहाय की बेटी शालिनी, चीप फोटोग्राफर जग्गू और इस मामले की जांच करते
आईआईटी पासआउट आईएएस ऑफीसर कृष्णन। कौन आएगा लपेटे में और क्या होगा आखिर
में, इसके लिए आप फिल्म देखें और दुआ दें कि ठीक किया नहीं बताया कि आखिर
में क्या है।
साढ़े तीन स्टार
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