फिल्म समीक्षा : गैंग्स ऑफ वासेपुर
पर्दे पर आया सिनेमा से वंचित समाज
-अजय ब्रह्मात्मज
इस फिल्म का केवल नाम ही अंग्रेजी में है। बाकी सब कुछ देसी है। भाषा,
बोली, लहजा, कपड़े, बात-व्यवहार, गाली-ग्लौज, प्यार, रोमांस, झगड़ा, लड़ाई,
पॉलिटिक्स और बदला.. बदले की ऐसी कहानी हिंदी फिल्मों में नहीं देखी गई
है। जिन दर्शकों का इस देश से संबंध कट गया है। उन्हें इस फिल्म का स्वाद
लेने में थोड़ी दिक्कत होगी। उन्हें गैंग्स ऑफ वासेपुर भदेस, धूसर, अश्लील,
हिंसक, अनगढ़, अधूरी और अविश्वसनीय लगेगी। इसे अपलक देखना होगा। वरना कोई
खास सीन, संवाद, फायरिंग आप मिस कर सकते हैं।
अनुराग कश्यप ने गैंग्स ऑफ वासेपुर में सिनेमा की पारंपरिक और पश्चिमी
सोच का गर्दा उड़ा दिया है। हिंदी फिल्में देखते-देखते सो चुके दर्शकों के
दिमाग को गैंग्स ऑफ वासेपुर झंकृत करती है। भविष्य के हिंदी सिनेमा की एक
दिशा का यह सार्थक संकेत है। देश के कोने-कोने से अपनी कहानी कहने के लिए
आतुर आत्माओं को यह फिल्म रास्ता दिखाती है।
इस फिल्म में अनुराग कश्यप ने सिनेमाई साहस का परिचय दिया है। उन्होंने
वासेपुर के ठीक सच को उसके खुरदुरेपन के साथ अनगिनत किरदारों के माध्यम से
उतारा है। उनकी फिल्म रामाधीर सिंह और सरदार खान की दुश्मनी के बीच ही नहीं
उलझी रहती। कहानी के महीन तार वासेपुर की गलियों से जुड़े हैं। एक पूरी
तहजीब गैंग्स ऑफ वासेपुर में साकार होती है। जीवन की धड़कन सुनें।
फिल्म के किरदारों के साथ भटकें और हिंदी सिनेमा के पर्दे से दूर किए
गए उन वंचितों से मिले जिन्हें अनुराग कश्यप और उनकी टीम ने पूरी संजीदगी
के साथ पर्दे पर उतारा है। क्राफ्ट, टेकनीक और सिनेमा के लिहाज से फिल्म
कमजोर हो सकती है, लेकिन कथ्य, कंटेंट और काले परिवेश को रचने में अद्भूत
मजबूती है। फिल्म के छोटे-बड़े सभी किरदार अपनी छवि छोड़ जाते हैं।
गैंग्स ऑफ वासेपुर की कहानी 2004 में देश के हर घर में देखे जा रहे टीवी
सीरियल सास भी कभी बहु थी से आरंभ होती है। छोटे से कमरे में सीरियल देख
रहे परिवार पर अचानक हुई गोलीबारी से आफत आती है। टीवी स्क्रीन टूटता है।
कहानी अपने परिवेश में आ जाती है और हमें वॉयसओवर से पता चलता है कि यह
वासेपुर है, जो कभी बंगाल, फिर बिहार और अब झारखंड का हिस्सा है। मैट्रो और
मल्टीप्लेक्स के कई दर्शक झारखंड से अपरिचित हो सकते हैं। देश के इसी
हिस्से में अपने पिता शाहिद खान की हत्या पर सरदार खान कसम खाता है कि अब
तो जिंदगी का एक ही मकसद है बदला। बदले की यह कहानी एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी में आती है। फिल्म के अंत में बदले के लिए तैयार हो रही तीसरी पीढ़ी
की भी झलक मिल जाती है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर का ठोस सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भ है। यह सच्ची घटनाओं पर
आधारित काल्पनिक कहानी है। कुछ किरदारों के नाम बदले गए हैं, लेकिन उन
किरदारों का चरित्र वैसे ही रखा गया है। अनुराग कश्यप बताते चलते हैं कि
समय के साथ वासेपुर के कारोबार में किस तरह के परिवर्तन होते गए। कोयले की
चोरी, रेत का धंधा और लोहा-लक्कड़ की चोरी पृष्ठभूमि में चलती और दिखती
रहती है। बदले की इस कहानी में केवल खून-खराबा ही नहीं है। मानव स्वभाव के
मुताबिक प्रेम-रोमांस, हवस, दंगा-फंसाद की भी गुंजाइश बनी रहती है।
पार्टी-पॉलिटिक्स पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, लेकिन नौकरशाही और
पॉलिटिक्स का फिल्म छूती है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर में अनुराग कश्यप ने देश के एक हिस्से का स्लाइस
निकालकर पर्दे पर परोस दिया है। इस स्लाइस में उस समाज के सतह के ऊपर-नीचे
के सभी नमूने आ गए हैं। सब कुछ आम भारतीय समाज की तरह ऊपर से ठंडा,ठहरा,
धीमा और शिथिल है,लेकिन थोड़ा खुरचें तो खलबली महसूस होती है। 1941 से 1985
तक पहुंची इस कहानी में देश के उस हिस्से को बखूबी देखा जा सकता है।
सरदार खान की भूमिका में मनोज बाजपेयी ने अभिनय की लंबी लकीर खींच दी है।
उनकी परतदार प्रतिभा का अनुराग कश्यप ने प्रभावपूर्ण उपयोग किया है। सरदार
खान में कोई भी गुण नहीं है, फिर भी वह रोचक, आत्मीय, करीबी और आसपास का
लगता है। क्रूरता से लेकर रोमांस तक के दृश्यों में मनोज बाजपेयी की सहजता
मुग्ध करती है। अपनी बीवी नगमा और दूसरी बीवी दुर्गा से सरदार के संबंधों
के चित्रण में मनोज बाजपेयी एक साथ हंसाते और हर्षाते हैं। रिचा चड्ढा ने
नगमा के किरदार को बहुत अच्छी तरह से निभाया है। वह इस फिल्म की खोज हैं।
रीमा सेन को हम मसाला फिल्मों में देखते रहे हैं। यहां उनकी प्रतिभा का
इस्तेमाल हुआ है। हुमा कुरेशी फिल्म के अंत में आती हैं। उनकी मौजूदगी
आकर्षक है। हुमा कुरेशी और नबाजुद्दीन सिद्दिकी के बीच का कस्बाई रोमांस
कोमल और ताजा है।
फैजल के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दिकी का प्रस्फुटन हुआ है। उनके
बड़े भाई दानिश की भूमिका में आए विनीत सिंह ने संयमित अभिनय से चौंकाया
है। वे प्रभावित करते हैं। साफ पता चलता है कि फिल्म के दूसरे भाग में
दानिश और फैजल कमाल करेंगे। जयदीप अहलावत, जमील अहमद, पियूष मिश्रा, पंकज
त्रिपाठी समेत सभी कलाकारों ने इस फिल्म को प्रभावशाली बनाया है। रामाधीर
सिंह की भूमिका में में तिग्मांशु धूलिया चौंकाते हैं। उन्होंने किरदार के
स्वभाव को समझा है और बगैर नाटकीय हुए उसे जी लिया है।
फिल्म का गीत-संगीत और पाश्र्र्व संगीत विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वरूण
ग्रोवर और पियूष मिश्रा के गीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द और भाव हैं और
स्नेहा ने उन्हें स्थानीय ध्वनियों से फिल्मों में अच्छी तरह पिरो दिया है।
जीवी प्रकाश का पाश्र्र्व संगीत फिल्म की कथा को अर्थ और संदर्भ देता है।
जीशान कादरी, सचिन और अनुराग कश्यप 44 साल की कहानी को ढाई घंटे में
समेटने में सफल रहे हैं। कहीं-कहीं कहानी धीमी और ढीली जरूर पड़ती है,
लेकिन संपूर्णता में कोई कमी नहीं रहती। अनुराग कश्यप की संलिप्तता कुछ
दृश्यों को लगी करती और दोहराती है। थिएटर में जाकर गैंग्स ऑफ वासेपुर
देखना एक अनुभव है।
**** चार स्टार
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