जनसंघर्षों के साथ भद्दा मजाक है शांघाई-समर अनार्य

Imageशांघाई शहर नहीं एक सपने का नाम है. उस सपने का जो पूंजीवाद के नवउदारवादी संस्करण के वैश्विक नेताओं की आँखों से धीरे धीरे विकासशील देशों में मजबूत हो रहे दलाल शासक वर्गों की आँखों में उतर आया है. उस सपने का भी जिसने नंदीग्राम, नोएडा और खम्मम जैसे हजारों कस्बों के सादे से नामों को हादसों के मील पत्थर में तब्दील के लिए इन शासक वर्गों ने हरसूद जैसे तमाम जिन्दा कस्बों को जबरिया जल समाधि दे दी.

क्या है यह सपना फिर? यह सपना है हमारे खेतों, खलिहानों के सीने में ऊँची ईमारतों के नश्तर उतार उन्हें पश्चिमी दुनिया की जरूरतों को पूरा करने वाले कारखानों में तब्दील कर देना. यह सपना है हमारे किसानों को सिक्योरिटी गार्ड्स में बदल देने का. यह सपना है हमारे देशों को वैश्विक बाजारवादी व्यवस्था के जूनियर पार्टनर्स में बदल देने का.

पर फिर, दुनिया के अब तक के इतिहास में कोई सपना अकेला सपना नहीं रहा है. हर सपने के बरक्स कुछ और आँखों ने आजादी, अमन और बराबरी के सपने देखे हैं और अपनी जान पे खेल उन्हें पूरा करने के जतन भी किये हैं. वो सपने जो ग्राम्शी को याद करें तो वर्चस्ववाद (हेजेमनी) के खिलाफ खड़े हैं. वे सपने जो लड़ते रहे हैं, रणवीर सेनाओं के खिलाफ खड़े दलित बहुजन भूमिहीन किसानों के सशस्त्र प्रतिरोधों से लेकर नर्मदा बचाओं आंदोलन जैसे अहिंसक लोकतान्त्रिक आन्दोलनों तक की शक्ल में.

बाहर से देखें तो लगेगा इन सपनों और इनके लिए लड़ने वाले जियालों का कुल जमा हासिल तमाम मोर्चों पर हार है. आप नर्मदा घाटी में लड़ते रहें, बाँध ऊंचा होता जाएगा. आप नंदीग्राम में लड़ते रहें, जमीनें छीनी जाती रहेंगी. पर थोड़ा और कुरेदिये और साफ़ दिखेगा कि मोर्चों पर मिली इन्ही हारों से मुस्तकबिल की जीतों के रास्ते भी खुले हैं. उन सवालों की मार्फ़त जो इन लड़ाइयों ने खड़े किये, उस प्रतिरोध की मार्फ़त जिसने हुक्मरानों को अगली बार ऐसा कदम उठाने से पहले दस दस बार सोचने को मजबूर किया. हम भले एक नर्मदा हार आये हों, शासकों की फिर कोई और बाँध बनाने की हिम्मत न होना जीत नहीं तो और क्या है?

यही वह जगह है जहाँ दिबाकर बनर्जी की फिल्म शांघाई न केवल बुरी तरह से चूकती है बल्कि संघर्ष के सपनों के खिलाफ खड़े शांघाई के सपनों के साथ खड़ी दीखती है. इस फिल्म ने भूमि अधिग्रहण, एसईजेड्स जैसे सुलगते सवालों का सतहीकरण भर नहीं बल्कि सजग दर्शकों के साथ एक भद्दा मजाक भी किया है.

याद करें कि हिन्दुस्तान के किस शहर को शांघाई बना देने के सपनों के साथ उस शहर का गरीब तबका खड़ा है? भारतनगर की झुग्गी झोपड़ियों से निकलने वाले भग्गू जैसे लोग किस शहर में रहते हैं भला? हम तो यही जानते हैं कि रायगढ़ हो या सिंगूर इस मुल्क का कोई किसान अपने खेतों, गाँवों, कस्बों की लाश पर शांघाई बनाने के खिलाफ लड़ रहा है, उसके साथ नहीं. फिर बनर्जी साहब का भारतनगर कहाँ है भाई? और अगर कहीं है भी तो इन भग्गुओं के पास कोई वजह भी तो होगी. क्या हैं वह वजहें?

पूछने को तो उन हजार संयोगों पर भी हजार सवाल पूछ सकता हूँ जो इस फिल्म में ठुंसे हुए से हैं. जैसे अहमदी की हत्या की साजिश में शालिनी (उनकी प्रेमिका) की नौकरानी के पति की केन्द्रीय भूमिका होने का संयोग. जैसे जोगी और उसके दोस्त द्वारा इत्तेफाकन अहमदी की हत्या की साजिश रिकार्ड कर लेना, बावजूद इस सच के की जब फोन टेप्स ही प्रामाणिक सबूत नहीं माने जाते तो एक मुख्यमंत्री द्वारा किये गए फोन की रिकार्डिंग इतना बड़ा सबूत कैसे बन जाते हैं.

फिर भी इतना तो पूछना बनता ही है कि कौन है वह एक्टिविस्ट जो चार्टर्ड जहाज से उतरते हैं, वह भी एक सिने तारिका के साथ? क्या इतिहास है उनका? संघर्षों के सर्टिफिकेट भले न बनते हों, संघर्षों की स्मृतियाँ लोकगाथाओं सी तो बन ही जाती हैं. और ये (किस मामले में) जेल भेज दिए गए एक जनरल की रहस्यमयी सी बेटी कौन है? उसे डिपोर्ट करने की नोटिस क्यों आती है? और अगर नोटिस आती है तो काफी ताकतवर से लगते अहमदी साहब के उस ‘हादसे’ में घायल हो जाने के बाद सरकार उसे डिपोर्ट कर क्यों नहीं देती?

और हाँ, यह भारतनगर हिन्दुस्तान के किस इलाके में पड़ता है जहाँ किसी विपक्षी राजनैतिक दल की प्रतीकात्मक उपस्थिति तक नहीं है. बेशक इस देश में कुछ इलाके ऐसे हैं जहाँ माफिया-राजनैतिक गठजोड़ के चलते प्रतिपक्ष की राजनीति मुश्किल हुई है पर बिलकुल खत्म? यह सिर्फ दिबाकर बनर्जी के भारत नगर में ही हो सकता है. और ये जोगी? वह आदमी जो दूसरी जाति के प्रेमिका के परिवार वालों के दौड़ाने पर लड़ने और भागने में से एक का चुनाव कर इस शहर में पंहुचा है दरअसल कौन है? क्या है जो उसे अंत में लड़ने की, जान पर खेल जाने की प्रेरणा देता है? शालिनी उर्फ कल्कि का यह पूछ लेना कि ‘खत्म हो गयी राजपूत मर्दानगी’?

कोई कह ही सकता है कि फ़िल्में तो बस समाज का सच ही दर्ज करती है पर फिर प्रकाश झा के साधू यादव और तबरेज आलमों की मर्दानगी भी तो याद आ सकती थी शालिनी को? यह सत्या के सत्या जैसी जातिविहीन सी मर्दानगी? फिर उसे राजपूती मर्दानगी ही क्यों याद आई? रही बात जोगी कि तो उसे तो जागना ही था. भले ही वह भाई जैसे दोस्त की मौत की वजह से हो या इस मर्दानगी की वजह से.

एक ईमानदार अफसर भी है इस फिल्म में. वह इतना ईमानदार है कि लगभग बदतमीजी कर रहे पुलिस अधिकारी को डांट भी नहीं पाता. उसे एक के बाद एक हो रही मौतों के तार जुड़ते नहीं दीखते. पर अब उस अफसर को भी क्या कोसना जब इतने बड़े, चार्टर्ड प्लेन से चलने वाले एक्टिविस्ट की ऐसी संदिग्ध अवस्था में हुई मौत की सीबीआई जांच की मांग तक मुश्किल से ही सुनने में आती है. उस देश में, जहाँ किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या की प्रतिक्रिया इतनी हल्की तो नहीं ही होती.

यह न समझें कि मैंने इस फिल्म को प्रशंसात्मक नजरिये से देखने की कोशिश नहीं की. काफी कोशिश की झोल के अंदर भरी जरा जरा सी कहानी को लिटरेरी डिवाइस, ट्रोप्स, या ऐसे कुछ अन्य सिने सिद्धांतों से भी देखने की कोशिश की, कि कहीं से तारीफ़ के कुछ नुक्ते समझ आयें. आखिर तमाम फिल्म समीक्षक यूं ही तो इस फिल्म को चार, साढ़े चार और पांच स्टार तो नहीं दे रहे होंगे. पर एक तो ऐसा कुछ समझ आया नहीं, और फिर न्याय का रास्ता एक प्रतिद्वंदी कारपोरेट टायकून से निकलता दिखा तो बची खुची हिम्मत भी टूट गयी. लगा कि काश किसी मेधा पाटकर को भी एक अदद जग्गू, एक अदद कृष्णन और एक अदद बड़ा उद्योगपति मिल जाता, फिर तो बस न्याय ही न्याय होता.

तमाम किरदारों के अभिनय के लिए बेशक इस फिल्म की तारीफ़ की जानी चाहिए पर फिर फ़िल्में, वह भी सरोकारी दिखने का प्रयास करने वाली फिल्मों के लिए अभिनय ही तो सब कुछ नहीं होता. खास तौर पर तब जब यह एक व्यावसायिक फिल्म हो और फिर भी इसमें नॅशनल फिल्म डेवेलपमेंट कार्पोरेशन के रास्ते भारतीय करदाताओं का पैसा भी लगा हो.

Comments

JAYESH DAVE said…
यह एक PAID रिवियु है.... भद्दा मज़ाक.
Anonymous said…
Dislike ..... i liked the movie....aisa lag raha hai aap zabardasti kar rahe hain !!
Anonymous said…
bakwas review !!
miHir said…
यह लम्बा कमेंट कल समर की यह पोस्ट उनके ब्लॉग पर पढ़ने के बाद वहीं किया था। वहीं से कॉपी पेस्ट है...

पैरा छ: - आपने वजह मांगी है ’भग्गुओं’ के ऐसा करने की? फ़िल्म दोबारा देखिए। पहले ही दृश्य में टैम्पो के लोन पर होने और न चुकाए जाने पर बैंक द्वारा जप्ती का संदर्भ है। यहीं टैम्पो जग्गू की रोज़ी-रोटी है। आपके-मेरे लिए शायद यह वजह न हो, जग्गू के लिए पूरी वजह हो सकती है। और अगर आपको फिर भी वजह नहीं दिखती तो आप वहीं खड़े होकर देख रहे हैं जहाँ शालिनी खड़ी है।

पैरा सात - टेप्स बड़े सबूत मान लिए गए यह आपने कैसे मान लिया। फ़िल्म सिर्फ़ यह दर्ज करती है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने उनका उपयोग कर विपक्षी पार्टी की स्टेट चीफ़ मिनिस्टर को हटवाया और जाँच आयोग की जाँच जारी है। और अपने देश में ’जाँच आयोग’ की जाँच बैठना क्या सबसे बड़ा व्यंग्य नहीं?

पैरा आठ - क्या आपने अरुंधति के पहनावे, स्टाइल, रहन--सहन पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ नहीं सुनी? क्या वे हवाई जहाज़ से नहीं चलतीं? उनकी किताबों की रॉयल्टी, उनके जीवन-स्तर को रैफ़र कर उनके लिखे को हवाई बताते आलेख खुद वाम खेमे की तरफ़ से लिखे गए हैं। अगर आपके सवाल यही हैं डॉ अहमदी के किरदार को लेकर तो वह मुझे वाम के उसी खेमे की तरफ़ से आते लग रहे हैं।

पैरा नौ - मुझे नहीं लगता यह इतनी बारीक बात थी कि समझ न आए। यहाँ विपक्ष वह है जो केन्द्र में सत्तारूढ़ दल है। जिसका आदमी अस्पताल में आकर अरुणा अहमदी को समझा रहा है कि ’इस स्टेट में आपको जस्टिस मिल ही नहीं सकता’। राज्य में जिनका गठबंधन है उनमें देशनायक जी का मोर्चा छोटा/उग्र/स्थानीय घटक है और मुख्यमंत्री का दल बड़ा घटक। कुछ-कुछ भाजपा-शिवसेना गठबंधन सा मान सकते हैं समझने के लिए। बाद में एक क्षण जब सीएम की बिठाई जांच में देशनायक को समन की मिलने की बात आती है तो आप देसनायक की सभा में सीएम के पोस्टर को कालिख पोते जाते और उन्हें समन का पर्चा फ़ाड़ते और गठबंधन तोड़ने जैसा कुछ ऐलान करते भी देखते हैं। बेशक फ़िल्म में आपका ऊपर चाहा गया राजनैतिक विपक्ष है। दिक्कत बस यही है कि इन राजनैतिक पक्ष-विपक्ष में सत्ता की लड़ाई भले हो, नीतियों को लेकर कोई भेद नहीं है। अन्त में राजनैतिक सत्ता बदलती है, लेकिन उसका अर्थ आईबीपी के पोस्टर में सिर्फ़ चेहरा बदलना भर है।

पैरा नौ और दस - शालिनी का पूछना उनकी पिछली मुलाकात के संदर्भ में है जहाँ जोगी ने अपनी पहचान उसे ’आई एम ऑलसो फ़्रॉम आउटसाइड, राजपूत. सी फ़ेयर स्किन" कहकर दी थी। शालिनी उसे उकसाना चाहती है और जितना उसे जोगी का किरदार पिछली मुलाकात में समझ आया है, वह अपनी ’चालाकी’ का उपयोग करती है। उसी संवाद में वह ’तुम्हारे भाई जैसे को मार दिया’ भी बोलती है उसे भावनात्मक रूप से उकसाने के लिए। गौर कीजिए, यह भी जोगी ने उसे जो पिछली मुलाकात में बोला था उसका ही उपयोग है। लेकिन अगर आप जोगी के लड़ने की वजह इस संवाद को ही मान बैठे हैं, तो यह उतनी ही भोली और सीमित समझदारी है जितनी उस दृश्य में शालिनी के किरदार की जोगी के किरदार के प्रति थी।

पैरा ग्यारह - ’ईमानदार अफ़सर’ को एक के बाद एक हो रही मौतों के तार जुड़ते नहीं दीखते तो यह उस किरदार की सीमित दृष्टि है (एक तरह से उसपर कमेंट भी है), फ़िल्म की सीमित दृष्टि नहीं। क्या यह भी समझाने की बात है?

पैरा बारह की अंतिम लाइनों से ऐसा लग रहा है कि इस फ़िल्म में जो हुआ वह ’न्याय’ था ऐसा आप समझ रहे हैं। कि यही लोग फ़िल्म के अन्त में एक संवाद था कृष्णन का, जो वो कौल के "यही है तुम्हारा जस्टिस" के जवाब में बोलता है और जिसपर फ़िल्म ख़त्म होती है, "जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है सर"। प्रोमो में आता था। फ़िल्म में नहीं है। दिबाकर का कहना था कि यह इतना साफ़ है कि हमारे किरदार को कहकर बताने की ज़रूरत नहीं। उन्हें अपने दर्शकों पर भरोसा था। मुझे भी है।
Anonymous said…
bilkul sahmat hun !! itni ghatiya movie zindagi me kabhi nahi dekhi !! dibakar banarjee pagal ho gye hain tabhi love sex dhokha ke bad usse v buri film shanghai banai
Samar said…
मिहिर-- इतने लंबे जवाब का बहुत शुक्रिया. अब चूंकि आपने सवाल दर सवाल जवाब दिए हैं सो मैं भी जवाब दर जवाब देता हूँ.

सबसे पहले भग्गू के यह करने की वजह. माफी मांगते हुए भी निर्ममता से कहूँगा कि अगर आप टैम्पो के लोन से इसका रिश्ता जोड़ रहे हैं तो फिर इस फिल्म की आपकी समझ जैसी भी हो, समाज की बहुत सतही लगती है. टेम्पो के लोन चुकाने के दर्द का रिश्ता सुपारी किलर, यानी कि भाड़े के हत्यारे बन जाने से तो जुड़ता है साहब (सन्दर्भ के लिए फिल्म 'कंपनी' याद करें जिसकी शुरुआत में ही आजमगढ़ ५० किलोमीटर का मील पत्थर याद करें). इस समाज में सिर्फ जिन्दा भर रह जाने की जद्दोजहद किसी और की लाश के ऊपर से गुजर ही सकती है. पर फिर, इससे आईबीपी के समर्थन के सूत्र कहाँ उजागर होते हैं भाई? वह भी इस तरह कि भग्गू और उसकी पूरी फ़ौज दिन रात दंगे करती रहती है.
शालिनी कहाँ खड़ी है वह छोड़ दें, मैं ऐसे तमाम जनांदोलनों के साथ खड़ा रहा हूँ, खा हूँ मिहिर जी और मुझे उनमे से एक में भी एसईजेडस के लिए जनता का ऐसा समर्थन नहीं दिखा. क्या अब आपके तर्क से मान लूं कि वहाँ कोई कर्जदार नहीं है, कोई गरीब नहीं है?
२- टेप्स को बड़ा सबूत माने बिना ही ईमानदार अधिकारी ने सबकुछ दाँव पर लगा दिया? अपने वरिष्ठ को लगभग ब्लैकमेल करते हुए साथ देने पर मजबूर किया? और एक प्रतिद्वंदी बिजिनेस टाइकून से 'प्रोटेक्शन' भी मांग लिया? कमाल है. रही बात 'जांच आयोग' बैठाने को सबसे बड़ा व्यंग समझने की, तो साहब ये गैंग अन्ना जो लोकपाल लाने पर तुला हुआ है वह क्या जांच के सिवा कुछ करेगा? और शेहला मसूद से लेकर लगभग हर केस में सीबीआई जांच की मांग करने वाले एक्टिविस्ट्स, पीयूसीएल जैसे संगठन सब बेवकूफ है? या यह वह मजा लेने के लिए करते हैं? बेशक जाच आयोगों की अपनी दिक्कतें हैं पर कमसेकम इस देश में लड़ रहे लोगों ने अब तक उन्हें खारिज नहीं किया है. आप कर दें, जैसे यह फिल्म कर ही रही है.

३- वाम के किसी खास खेमे से मुझे आता देखने की आपकी आतुरता मुझे न अजीब लगी, न अस्वाभाविक. जरा सी दिक्कत होते ही 'लोकेशानल अनालिसिस' में शरण लेने वाली हिन्दी मानसिकता में यही तो बिलकुल स्वाभाविक है. हाँ, यह और बात कि इस आतुरता में आप विमान यात्राओं और चार्टर्ड विमानों को किराए पर लेने का फर्क ही भुला बैठे हैं. अरुंधती की लोकेशन, आपकी लोकेशन, मेरी लोकेशन, सवाल लोकेशंस का नहीं है भाई, सवाल ट्रकों और तथ्यों का है.
इस मुल्क में अहमदी जैसा एक चरित्र भी दिखा दें मुझे? मेधा? अरुंधती खुद? माधुरी बेन? अरुणा? संदीप पाण्डेय? खम्मम में जान देने वाले वामपंथी साथियों का नाम भी नहीं लूँगा. हाँ अब यह भी बता दीजिए कि तमाम जगहों पर ऐसे प्रोजेक्ट्स रुकवा चुके अहमदी की तरह इनमे से किसने कौन से प्रोजेक्ट रुकवाने में सफलता पाई है अब तक? अपने लेख में लिखा है, फिर दोहरा रहा हूँ.. इस देश में मोर्चों पर हुई हारों में ही जीत छुपी है, सरकारों के उस डर की जीत जिसकी वजह से नर्मदा के बाद नर्मदा दोहराया नहीं जाता.
Samar said…
३(क)- इस तर्क की जगह आप अगर अहमदी को लिटरेरी डिवाइस कहते तो भी शायद थोड़ा समझ आता. वह डिवाइस जो अपने आपे में नहीं बल्कि 'अन्यों' के चरित्र को समझने का सूत्र देने में विस्तार पाती है. अहमदी का घायल होकर 'सीन' से बाहर हो जाना इस तर्क को थोड़ी और ताकत भी देता शायद, पर फिर 'खारिज करना' गंभीर विश्लेषणों से आसान काम होता है. खैर, जब भी आप अहमदी साहब को लिटरेरी डिवाइस की तरह देखना चाहें, जवाब दूंगा कि वह लिटरेरी डिवाइस क्यं नहीं हैं.
Samar said…
अब आयें राजनीति की उन बारीकियों पर जिन्हें आपके मुताबिक़ मैं समझ नहीं पाया हूँ. आपके मुताबिक़ दिबाकर बनर्जी का भारतनगर जिस भी राज्य में हैं वहाँ का विपक्ष केंद्र का सत्तारूढ़ दल है. अब आप इतना जानते हैं तो फिर आर्टिकल ३५६ भी जानते ही होंगे. यह आर्टिकल उन्ही सूरतों में इस्तेमाल होता है जो फिल्म के भारतनगर में बनी हुई हैं. यहाँ रोज दंगे हो रहे हैं, गरीब जनता आईबीपी के समर्थन में सड़कों पर आग लगा रही है, नेता अपनी ही पार्टी की सरकार द्वारा बिठाए गए जांच आयोग का सम्मन फाड़ के फेंक रहे हैं और केंद्र की सत्ता और राज्य का विपक्ष चुप है? कमाल है! अहमदी की हत्या का प्रयास हुआ है साहब, और बाकी मुल्क में भी कहीं कोई आवाज नहीं उठ रही. बिनायक सेन याद हैं आपको? इस फिल्म के अहमदी के कद से तुलना करें तो शायद छोटे ही साबित हों, पर फिर भी उनकी भी गिरफ्तारी पर मुल्क चुप नहीं बैठा था. फिर यहाँ? ये भारतनगर किसी और मुल्क में है शायद क्योंकि अपने मुल्क में तो मोदी के गुजरात 2002 के वक्त भी तीस्ता सीतलवाड भी सड़कों पर थीं और राजदीप सरदेसाई भी.
मतलब साफ़, कि शांघाई इस मुल्क का यथार्थ तो नहीं ही कह रही है, या फिर यह 'जादुई यथार्थवाद' मार्का कोई प्रयोग हो तो और बात. फिर तो इतनी बारीक बात का मेरी नजर से बच निकलना लाजमी बनता है.

5- हर जोगी की अपनी पहचान होती है, इस जोगी की भी है. और शालिनी का यह पूछना भी समझ आया था भाई, मगर यही पूछना! अब अपनी 'भोली' और सीमित ही सही यह कारण 'नेसेसरी' तो लगा था पर सफिसियेंट नहीं. और फिर फिल्म कहीं से इस क्रान्तिकारी बदलाव के सूत्र देती नहीं. हाँ अपनी 'भोली' समझदारी से एक बात जरूर बताऊंगा आपको कि संघर्ष इतने स्वतःस्फूर्त नहीं होते. बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं जनता अपने साथ आती है. काश ऐसी चालाकी हमारे जन नेताओं को भी आती, फिर क्या था, फिर तो सारे जोगी हमारे साथ होते और मुल्क में इन्कलाब ही हो गया होता!
६- मुझे पता नहीं कि आप अखबार पढते हैं या नहीं. मैं जरूर पढता हूँ. जैसे उत्तर प्रदेश के एनआरएचएम घोटाले में हुई एक के बाद एक मौतें. अब आपने भले ही मुझे इतनी आसानी से 'समझा' दिया कि यह 'किरदार' की सीमित दृष्टि है, पर काश कोई इतनी ही आसानी से उत्तर प्रदेश पुलिस को ही यह 'सीमित' दृष्टि दे देता. ये लोग तो खट से एक हत्या को दूसरी से जोड़ दे रहे थे. वह भी तब, जब उनके पास कृष्णन
जैसे काबिल ऑफिसर भी नहीं हैं.
पर यह सब छोडिये साहब, और यह बताइये कि यह भारतनगर है किस देश में जहाँ कामन सेन्स नाम की भी चीज नहीं है? वह कामनसेंस जो इस देश के आम से आम नागरिकों को घटनाओं के तार जोड़ने की सलाहियत दे देता है.

अंत में सिर्फ यह.. कि कृष्णन ने जस्टिस का सपना छोड़ दिया है, शांघाई ने भी. पर इस मुल्क ने अब तक जस्टिस का सपना छोड़ा नहीं है भाई. नियामगिरी, नोएडा, खम्मम, कोडैकनाल, रायगद, पोस्को, सुंदरबन, मुल्क लड़ रहा है.
तो फिर यह बता दें कि दिबाकर (और आपको भी) दर्शको पर भरोसा किस बात का है? कि वह भी जस्टिस का सपना छोड़ दें? आपकी समझदारी के मुताबिक़ तो काम यही बनता है भाई, आखिर आपके मुताबिक़ सत्ता और विपक्ष में सिर्फ 'फॉर्म' का फर्क है, नीतियों का नहीं. फिर इस एकरसता में भी नरेगा जैसी, सूचना के अधिकार जैसी चीजें कैसे हो जाती हैं यह समझने की कोशिश भी तो कभी की ही होगी आपने?
नीतियां सिर्फ बंद कमरों में नहीं बनतीं मिहिर, ब्यावर जैसे ऊंघते कस्बों की कचहरियों में भी नीतियों की प्रस्तावानाएँ लिखी जाती हैं.
पर इसका क्या करें कि एक समूची युवा पीढ़ी पढ़ने, लड़ने, जीने और समझने के पहले ही सबको सबकुछ समझा देने के ज्ञान और आत्मविश्वास दोनों से लैस है. ज्ञान न हुआ वह कट्टा हुआ जो ९० के दशक के आखिर में इलाहाबाद के हर तीसरे पुरुष छात्र की जेब में खुंसा मिलता था.
Samar said…
३(क)- इस तर्क की जगह आप अगर अहमदी को लिटरेरी डिवाइस कहते तो भी शायद थोड़ा समझ आता. वह डिवाइस जो अपने आपे में नहीं बल्कि 'अन्यों' के चरित्र को समझने का सूत्र देने में विस्तार पाती है. अहमदी का घायल होकर 'सीन' से बाहर हो जाना इस तर्क को थोड़ी और ताकत भी देता शायद, पर फिर 'खारिज करना' गंभीर विश्लेषणों से आसान काम होता है. खैर, जब भी आप अहमदी साहब को लिटरेरी डिवाइस की तरह देखना चाहें, जवाब दूंगा कि वह लिटरेरी डिवाइस क्यं नहीं हैं.

अब आयें राजनीति की उन बारीकियों पर जिन्हें आपके मुताबिक़ मैं समझ नहीं पाया हूँ. आपके मुताबिक़ दिबाकर बनर्जी का भारतनगर जिस भी राज्य में हैं वहाँ का विपक्ष केंद्र का सत्तारूढ़ दल है. अब आप इतना जानते हैं तो फिर आर्टिकल ३५६ भी जानते ही होंगे. यह आर्टिकल उन्ही सूरतों में इस्तेमाल होता है जो फिल्म के भारतनगर में बनी हुई हैं. यहाँ रोज दंगे हो रहे हैं, गरीब जनता आईबीपी के समर्थन में सड़कों पर आग लगा रही है, नेता अपनी ही पार्टी की सरकार द्वारा बिठाए गए जांच आयोग का सम्मन फाड़ के फेंक रहे हैं और केंद्र की सत्ता और राज्य का विपक्ष चुप है? कमाल है! अहमदी की हत्या का प्रयास हुआ है साहब, और बाकी मुल्क में भी कहीं कोई आवाज नहीं उठ रही. बिनायक सेन याद हैं आपको? इस फिल्म के अहमदी के कद से तुलना करें तो शायद छोटे ही साबित हों, पर फिर भी उनकी भी गिरफ्तारी पर मुल्क चुप नहीं बैठा था. फिर यहाँ? ये भारतनगर किसी और मुल्क में है शायद क्योंकि अपने मुल्क में तो मोदी के गुजरात 2002 के वक्त भी तीस्ता सीतलवाड भी सड़कों पर थीं और राजदीप सरदेसाई भी.
मतलब साफ़, कि शांघाई इस मुल्क का यथार्थ तो नहीं ही कह रही है, या फिर यह 'जादुई यथार्थवाद' मार्का कोई प्रयोग हो तो और बात. फिर तो इतनी बारीक बात का मेरी नजर से बच निकलना लाजमी बनता है.

5- हर जोगी की अपनी पहचान होती है, इस जोगी की भी है. और शालिनी का यह पूछना भी समझ आया था भाई, मगर यही पूछना! अब अपनी 'भोली' और सीमित ही सही यह कारण 'नेसेसरी' तो लगा था पर सफिसियेंट नहीं. और फिर फिल्म कहीं से इस क्रान्तिकारी बदलाव के सूत्र देती नहीं. हाँ अपनी 'भोली' समझदारी से एक बात जरूर बताऊंगा आपको कि संघर्ष इतने स्वतःस्फूर्त नहीं होते. बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं जनता अपने साथ आती है. काश ऐसी चालाकी हमारे जन नेताओं को भी आती, फिर क्या था, फिर तो सारे जोगी हमारे साथ होते और मुल्क में इन्कलाब ही हो गया होता!
६- मुझे पता नहीं कि आप अखबार पढते हैं या नहीं. मैं जरूर पढता हूँ. जैसे उत्तर प्रदेश के एनआरएचएम घोटाले में हुई एक के बाद एक मौतें. अब आपने भले ही मुझे इतनी आसानी से 'समझा' दिया कि यह 'किरदार' की सीमित दृष्टि है, पर काश कोई इतनी ही आसानी से उत्तर प्रदेश पुलिस को ही यह 'सीमित' दृष्टि दे देता. ये लोग तो खट से एक हत्या को दूसरी से जोड़ दे रहे थे. वह भी तब, जब उनके पास कृष्णन
जैसे काबिल ऑफिसर भी नहीं हैं.
पर यह सब छोडिये साहब, और यह बताइये कि यह भारतनगर है किस देश में जहाँ कामन सेन्स नाम की भी चीज नहीं है? वह कामनसेंस जो इस देश के आम से आम नागरिकों को घटनाओं के तार जोड़ने की सलाहियत दे देता है.

अंत में सिर्फ यह.. कि कृष्णन ने जस्टिस का सपना छोड़ दिया है, शांघाई ने भी. पर इस मुल्क ने अब तक जस्टिस का सपना छोड़ा नहीं है भाई. नियामगिरी, नोएडा, खम्मम, कोडैकनाल, रायगद, पोस्को, सुंदरबन, मुल्क लड़ रहा है.
तो फिर यह बता दें कि दिबाकर (और आपको भी) दर्शको पर भरोसा किस बात का है? कि वह भी जस्टिस का सपना छोड़ दें? आपकी समझदारी के मुताबिक़ तो काम यही बनता है भाई, आखिर आपके मुताबिक़ सत्ता और विपक्ष में सिर्फ 'फॉर्म' का फर्क है, नीतियों का नहीं. फिर इस एकरसता में भी नरेगा जैसी, सूचना के अधिकार जैसी चीजें कैसे हो जाती हैं यह समझने की कोशिश भी तो कभी की ही होगी आपने?
नीतियां सिर्फ बंद कमरों में नहीं बनतीं मिहिर, ब्यावर जैसे ऊंघते कस्बों की कचहरियों में भी नीतियों की प्रस्तावानाएँ लिखी जाती हैं.
पर इसका क्या करें कि एक समूची युवा पीढ़ी पढ़ने, लड़ने, जीने और समझने के पहले ही सबको सबकुछ समझा देने के ज्ञान और आत्मविश्वास दोनों से लैस है. ज्ञान न हुआ वह कट्टा हुआ जो ९० के दशक के आखिर में इलाहाबाद के हर तीसरे पुरुष छात्र की जेब में खुंसा मिलता था.

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