शांघाई पर सोनाली सिंह की टिप्पणी
शांघाई देखने के बाद सोनाली सिंह आग्रह करने पर यह टिप्पणी भेजी है। चवन्नी के पाठक इसे संवेदनशील रचनाकार की अपने समय की महत्वपूर्ण फिल्म पर की गई सामन्य प्रतिक्रिया के रूप में पढ़ें या विशेष टिप्पणी के रूप में....मर्जी आप की।
"हर आदमी के अन्दर होते है दस- बीस आदमी,
जिसको भी देखना कई बार देखना ..."
फिल्म
कितनी सफल है या सार्थक है , दो अलग- अलग चीजें होती है I जरुरी नहीं कि
जो सफल हो सार्थक भी हो और न ही सार्थकता सफलता की कुंजी होती है I सफल
फिल्मो की तरह यहाँ एक हलवाई की बेटी किसी business tycoon से शादी
करने का ख्वाब नहीं देख सकती I फिल्म के किरदार में हम और आप है जहाँ
विजातीय संबंधों को लेकर बवाल कटता है और लड़के को जान बचाने के लिए शहर
छोड़कर भागना पड़ता है I
फिल्म की कहानी हमारे नाकारापन और दोगलेपन को घेरती कहानी है I सुबह रास्ते में हुए एक्सीडेंट को अनदेखा कर हम ऑफिस
भागते है जैसे जिंदगी की ट्रेन छूटी जा रही हो पर शाम को तयशुदा वक़्त एक
नोबल cause के लिए इंडिया गेट पर मोमबत्ती लेकर पहुच जाते है I कहानी है उन
बिल्डर्स की ,जो गरीबो से जबरन जमीन हडपते है I उन पर बहुमंजली इमारतें
खड़ी करवाते है फिर मंदिरों में जाकर लाखों का भंडारा करते है I हमें
बदबू मारता हुआ सच नहीं बल्कि महकता हुआ झूठ चाहिए I
फिल्म
को देखते हुए आपको शालिनी और प्रोफ़ेसर अहमदी के बीच का रिश्ता अनैतिक नहीं
लगेगा I उसे आप गुरु शिष्य परम्परा पर कलंक लगाने वाला नहीं मानेगे I वह
तो बस हो जाता है I mutual understanding में सब कुछ आता है I हमारी
आत्मा कमज़ोर हो चुकी है I हमारी
नैतिकता मर चुकी है I हम अपनी terms and condititions के साथ जीते है I
सफ़ेद अभी भी सफ़ेद और काला काला होता है पर हम अपनी सहूलियत के लिए ग्रे की
सरहद में ही रहना -जीना - मरना पसंद करते है I
एक
आवारा सा लगने वाला फोटोग्राफर जिसके आगे के दांत तम्बाकू खाते हुए सड़
चुके है जो अपनी अतिरिक्त जीविका के लिए अश्लील फिल्मे बनाता है ,दूसरी
तरफ अपने जान पर खेलकर शालिनी का साथ देता है I भ्रमित मत होइएगा यह
सब उसने किसी नेक भावना के तहत नहीं वरन अपने गिल्ट से उबरने के लिए किया
I जब उसकी दूसरी जाती के प्रेमिका के घरवाले उसे मारने आ रहे थे , उसके
पिता ने दरवाजा खोलकर पूछा था कि लड़ना है या भागना है तब वह अपने घर से
भाग आया था I इमरान हाशमी की बॉडी language काबिलेतारीफ है I
कुक्कू ........दादी की कराहे सुनाई देती है पर ना दादी दिखाई नहीं देती नाही कुक्कू की कोई तस्वीर I सिर्फ कराहें है, जेल में बंद निरपराध लोगों की और उनके गम में बिलखते परिवारज़नों की I
प्रोफ़ेसर
अहमदी उत्तर प्रदेश इलेक्शन में राहुल गाँधी की तरह भडकाऊ बयाँ देते नज़र
आते है शाइनिंग इंडिया के सपने दिखाते है पर अखिलेश की तरह जमीनी सच्चाई से
रूबरू नहीं हो पाते I
सबसे Practical है प्रोफ़ेसर अहमदी की बीबी जो अपने पति के साथ Love n Hate Relationship में है I पति को हास्पिटल में देखकर सयंत तरीके से बाथरूम में जाकर रोती हैI पति की बेवफाई को याद कर उनके कातिलों से हाथ मिलाने में गुरेज़ नहीं करती I
भग्गू एक आम सड़क छाप चेहरा है जिनके लिए दंगे दीपाली की तरह उल्लासमय होते है I उसके मामा जग्गू की आँखें कही गहरे उतर जाती है और हाल से निकलने के बाद भी आप का पीछा करती रहती है I
फिल्म का नायक कृष्णन बहुत balanced character है I
वह हिंदी फिल्मों के सुपर हीरो का ढांचा तोड़ता है I वह अपने लिए
पुलिस सुरक्षा की मांग करता है और आधी रात के वक़्त दरवाज़े पर हुई दस्तक से
घबराकर दिल थाम लेता है I वह एक पक्ष का उपयोग दुसरे सत्ता पक्ष को उखाड़ने के लिए करता हैI उसे मालूम है 'व्यवस्था को बदलने के लिए व्यवस्था में होना कितना जरुरी होता है !!"
फिल्म की कास्टिंग बहुत ज़बर्ज़स्त है I किरदारों का ताना- बाना इतनी महीनता से बुना गया है कि वे फिल्म के कम और किसी उपन्यास/नाटक का किरदार ज्यादा लगते है I Videographer का चश्मे वाला कातिल दो-तीन सेकेंड की फुटेज में ही गहरा असर छोड़ जाता है I सफाई करने वाला .....जिसके साफ़ करते हुए फर्श पर पहले कल्कि फिसलती है फिर अभय देओल I पुलिस
इस्पेक्टर की आँखों का व्यंग ,जब वह अभय देओल को सुरक्षा देने में
असमर्थता जाहिर करता है क्योकि मुख्यमंत्री शहर आई हुयी है I
खूबियाँ बनाम खामियां :-
- जिन भग्गू और जग्गू मामा को सच का आईना दिखाने के लिए यह फिल्म बनायीं गयी है उन तक शायद पहुचे ही ना.........
- लोग दिमाग हल्का करने के लिए फिल्म देखने जाते है और भारीपन लेकर लौटना गवारा नहीं करते I
- Self Obsessed लोगों को ,जिनके दिल में महान विमल राय बनने का सपना है पर ज़ज्बा नहीं , फिल्म पसंद नहीं आएगी I कोई भी फिल्म उनके दिमाग में चल रहे कांसेप्ट से बेहतर नहीं हो सकती I
- Young Generation को दिवाकर confused लगेंगे क्योकि सारा वक़्त तो BBM पर ही निकल जाता है अपने बारे में सोचने का वक़्त नहीं देश - जहाँ क्या बला है ?
- दिवाकर ने जानबूझकर फिल्म स्लो मोड में रखी ताकि comlicated characters के साथ audience सामंजस्य बिठा सके I हम उस दौर में जी रहे है जहाँ हमारी खूबिया ही खामियां बन जाती है I
फिल्म देखने के बाद गुस्सा आता हैI पार्किंग में खड़ी गाड़ियों का शीशा तोड़ देने का मन करता हैI मन
करता है कि गर्मी में झुलसते वृद्ध चौकीदार की जगह खुद खड़े हो जाये और
उनसे बोले ' बाबा आप घर जाओ और आराम करो ' पर हम करते कुछ नहींI सिरदर्द की गोलिया गटकते हैI बैचेनी से चाय पीते हुए बालकनी में टहलते हैI फ़ोन पर दोस्तों से फिल्म पर बहस करते हैI अगर दो- चार दिन दिमाग पर असर तारी रहा तो फिल्म की समीक्षा लिख देते है I
धन्यवाद
और बधाइयाँ दिवाकर बनर्जी को ऐसी फिल्म बनाने के लिए , जिन समस्यायों पर
सोचने के लिए हम वक़्त नहीं जाया करते I दिवाकर बनर्जी रिस्क लेते है और
देश का दर्द कहते है I निस्संदेह शांघाई हमारी राष्ट्रीय फिल्म है I
Comments
Film toh maine abhi dekhi nahi par film ki hi tarah yeh writeup bhi humein sochne par majboor kar raha hai...