चाहता हूं दर्शक खुद को टटोलें ‘मैक्सिमम’ देखने के बाद -कबीर कौशिक
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शोरगुल और ग्लैमर में भी कबीर कौशिक ने अपना एकांत खोज लिया है। एडवल्र्ड से आए कबीर अपनी सोच-समझ से खास परिपे्रक्ष्य की फिल्में निर्देशित करते रहते हैं। किसी भी बहाव या झोंके में आए बगैर वे वर्तमान में तल्लीन और समकालीन बने रहते हैं। ‘सहर’ से उन्होंने शुरुआत की। बीच में ‘चमकू’ आई। निर्माता से हुए मतभेद के कारण उन्होंने उसे अंतिम रूप नहीं दिया था। अभी उनकी ‘मैक्सिमम’ आ रही है। यह भी एक पुलिसिया कहानी है। पृष्ठभूमि सुपरिचित और देखी-सुनी है। इस बार कबीर कौशिक ने मुंबई पुलिस को देखने-समझने के साथ रोचक तरीके से पेश किया है।
कबीर फिल्मी ताम झाम से दूर रहते हैं। उनमें एक आकर्षक अकड़ है। अगर वेबलेंग्थ न मिले तो वे जिद्दी, एकाकी और दृढ़ मान्यताओं के निर्देशक लग सकते हैं। कुछ लोग उनकी इस आदत से भी चिढ़ते हैं कि वे फिल्म निर्देशक होने के बावजूद सूट पहन कर आफिस में बैठते हैं। यह उनकी स्टायल है। उन्हें इसमें सहूलियत महसूस होती है। बहरहाल, वीरा देसाई स्थित उनके दफ्तर में ‘मैक्सिमम’ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर ढेर सारी बातें हुई पेश हैं कुछ प्रासंगिक अंश...
‘मैक्सिमम’ का एक अंतर्निहित द्वंद्व है। यह पुलिस विभाग के उन अधिकारियों की कहानी है, जिन्होंने अपराधियों की गिरफ्त में आ चुकी मुंबई को आजाद कराने में योगदान किया। 2002 से 2005 के बीच इन 6-8 अधिकारियों की जांबाज गतिविधियों ने फिर से शहर में शांति बहाल की। मुंबई का जीवन लौटा। बाद में ये ही अधिकारी उन सारे दोषों के प्रतिनिधि बन गए, जो हमारे समाज को ग्रस रहा था। व्यक्ति,समाज और सोसायटी के तौर पर हम उन दोषों से ग्रस्त थे। ‘मैक्सिमम’ का मूल आधार यही विरोधाभास है। इस विरोधाभास ने ही मुझे आकर्षित किया।
मैंने इस विषय पर गहरा शोध किया। प्राइमरी रेफरेंसेज और रिसोर्सेज से बातें की। प्रदीप शर्मा, प्रदीप सामंत, सालस्कर समेत तमाम अधिकारियों से बातें कीं। क्राइम रिपोर्टरों की मदद ली। पहले मुझे लगा था कि ‘सहर’ और ‘चमकू’ का शोध यहां के पुलिस विभाग को समझने में मदद करेगा। सच कहूं तो मुंबई पुलिस बिल्कुल अलग है। उत्तरभारतीय या दिल्ली पुलिस से बिल्कुल अलग महकमा है यहां का। यहां की आईपीएस लॉबी और इंस्पेक्टर के बीच की ठनाठनी यूपी-बिहार या दिल्ली में कहां सुनाई पड़ती है। मराठी-नॉनमराठी का भेद भी है।
हर व्यक्ति का एक राजनीतिक दृष्टिकोण रहता है। मैंने उसे भी छूने की कोशिश की है। एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ उसे पेश किया है। काफी नाप- तौल कर ‘मैक्सिमम’ लिखी है। एडवल्र्ड से आने की वजह से फिल्म की तकनीक को कहानी पर हावी नहीं होने देता हूं। तकनीक के असर में कभी नहीं बहता । मैं अपनी सोच की अभिव्यक्ति में तकनीक की मदद लेता हूं। इस फिल्म में मैंने आज के औजारों का इस्तेमाल किया है और एक लीनियर कहानी कही है। आज के दर्शकों के बीच मुझे जाना है। मैं केवल मल्टीप्लेक्स के दर्शकों तक सीमित नहीं रहना चाहता। मेरी फिल्म देखने सिंगल स्क्रीन के भी दर्शक आएं। मैंने सारे लटके-झटके डाले हैं। मेरी हमेशा कोशिश रही है कि फिल्म देखने के बाद दर्शक खुद को टटोलें।
हम ने पूरी फिल्म का स्टोरी बोर्ड तैयार किया। फिल्म के सारे शॉट स्टोरी बोर्ड पर तैयार थे। कम से कम 800 पृष्ठों की स्टोरीबोर्डिंग हुई है। मैंने मुश्किल लोकेशन पर शूटिंग की। यह डिफिकल्ट फिल्म रही है। एक से बढक़र एक दिग्गज इसमें काम कर रहे हैं। नसीरुद्दीन शाह, विनय पाठक, मोहन आगाशे हैं। छोटे किरदार भी सशक्त हैं। मैं सोनू सूद को इसमें नहीं गिन रहा हूं। मुझे थोड़ा डर था कि सोनू अपने किरदार, शेड्स आदि को पर्दे पर ला पाएंगे या नहीं? मुझे सारे दिग्गजों को भी संभालना था। अभिनय के योद्धा किसी भी डायरेक्टर को खा सकते हैं। मुझे अपने हथियार भी पैने रखने पड़े।
कहानियां हमें खींचती हैं। हमलोग कहानी नहीं गढ़ते। ‘मैक्सिमम’ केवल पुलिस की कहानी नहीं है। इसमें कई शेड््स हैं। पोएटिक बिगनिंग और एंड है। अपने ढंग से यह हर पहलू को टटोलती है। सवाल पूछती है। 2003 में कहानी शुरू होती है। कहानी का अतंराल पांच सालों का है। कहानी एक एनकाउंटर पुलिस अधिकारी की है। उस समय के उसके साथी और सिस्टम की है। इंटरवल के पहले उसके जलवे हैं। इंटरवल के बाद उसके जलवे नहीं रहे। हर कोई उस से विमुख है। फिर वह कैसे खड़े होने की कोशिश करता है।
इस फिल्म को देखते समय जरूरी नहीं है कि आप मुंबई, मुंबई की पुलिस, पुलिस महकमा से वाकिफ हों। अगर वाकिफ हों तो अलग मजा आएगा। नहीं वाकिफ हैं तो एक भरपूर ड्रामा है। ज्यादातर दर्शकों के लिए सब कुछ नया होगा। ‘सहर’ में भी यही था। हम कहीं भी एनकाउंटर पुलिस अधिकारी को जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं करते। मैंने उन्हें ज्यों का त्यों पेश कर दिया है। सिस्टम का स्ट्रक्चर और उसमें एनकाउंटर पुलिस अधिकारी है। मेरी एक बुनियादी सोच थी। जब भी सिस्टम डगमगाता है तो कोई न कोई इंडिविजुअल सामने आता है। कश्मीर, पंजाब, असम, त्रिपुरा और मुंबई में हम देख चुके हैं। कुछ लोग तारणहार के रूप में आते हैं। 1997 से 2003 के बीच मुंबई आतंक के साए में था। तब कुछ अधिकारियों ने कहा कि पॉलिटिकल बैकअप दें तो हम सब कुछ ठीक कर देंगे। उन्होंने वही किया। वे सिस्टम को वापस ले आए। सिस्टम के सुचारू होने पर आप चाहने लगते हैं कि उन अधिकारियों की परख नार्मल सिचुएशन में हो। यह तो गलत है। एक दौर में उनकी गतिविधि के अलग कारण थे। आज की नजर से वे कारण गलत लगेंगे। दिक्कत व्यक्तियों में नहीं। सिस्टम में है। जब सब कुछ सामान्य हो जाता है तो सिस्टम के पास ऐसा तरीका होना चाहिए कि वह इन्हें सामान्य काम में लगा सके।
इस फिल्म पर काम शुरू होने के साथ हम स्पष्ट थे कि हम एनकाउंटर पुलिस अधिकारियों को ग्लोरीफाई नहीं करेंगे। उस पर मैं डटा रहा। मैंने दो-तीन लोगों की कहानी कही है। उनकी कहानी बताने लिए पर्सपेक्टिव के रूप में अंडरवल्र्ड, पॉलिटिक्स और बाकी चीजें भी आई हैं। हमारी कोशिश है कि उनका सही चेहरा दिखाया जा सके। इस फिल्म में कमर्शियल ताना-बाना भी है।
सोनू सूद प्रताप पंडित हैं। नसीरुद्दीन शाह अरुण ईनामदार हैं। विनय पाठक उत्तर भारतीय नेता हैं। अमित साद स्टार न्यूज के रिपोर्टर के रूप में हैं। फिल्म एक जर्नलिस्ट के दृष्टिकोण से कही गई है। मैं पत्रकार का बेटा हूं, इसलिए मैंने इस कहानी में 360 डिग्री से विचार किया है। इस फिल्म को सोनू सूद, विनय पाठक, नसीरुद्दीन शाह, मोहन अगाशे और अमित साद ने मूत्र्त रूप दिया। सभी ने अपनी-अपनी तरीके से मेरी स्क्रिप्ट को निखारा। अपनी अदाकारी और सोच से कुछ जोड़ा। मेरी स्क्रिप्ट को खिलने का मौका दिया। ‘मैक्सिमम’ मुंबई के पुलिस विभाग और उसके एक महत्वपूर्ण दौर को समझने की नजर देगी।
Comments
♥बहुत सुन्दर प्रस्तुति♥(¯`'•.¸*♥♥*¸.•'´¯)♥
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-=-सुप्रभात-=-
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