फिल्म समीक्षा : शांघाई
जघन्य राजनीति का खुलासा
-अजय ब्रह्मात्मज
शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय
और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना
वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और
राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में
दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट
फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट,
रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता
से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं।
शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है।
सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक
लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस
घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है।
दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस
के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांतरण किया है। इस उपन्यास
पर जी नाम से एक फिल्म 1969 में बन चुकी है। सची घटना पर आधारित इस उपन्यास
को दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने भारतीय रंग और चरित्र दिए हैं। मूल
कहानी और फिल्म से शांघाई में कई अपरिहार्य समानताएं मिलेंगी, लेकिन सोच और
संवेदना में यह पूरी तरह से भारतीय फिल्म है। दिबाकर बनर्जी ने उर्मी
जुवेकर के साथ तीक्ष्ण कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए सभी चरित्रों को
भारत नगर में स्थापित किया है।
भारत नगर कस्बे से इंडिया बिजनेश पार्क में तब्दील हो रहा है। शांधाई बन
रहा है। प्रदेश की मुख्यमंत्री से लेकर स्थानीय सहयोगी राजनीतिक पार्टी तक
का ध्यान इस कस्बे की प्रगति पर टिका है। सभी तरक्की चाहते हैं और जय
प्रगति के अभिवादन के साथ बातचीत करते हैं। निर्माण, विकास, प्रगति की ऐसी
अवधारणा के विरोधी हैं डॉ ़ अहमदी। डॉ ़ अहमदी ने किस की प्रगति? किसका
देश? नामक पुस्तक भी लिखी है। विदेश में अध्ययन-अध्यापन कर देश लौटे डॉ ़
अहमदी का एक ही लक्ष्य है कि विनाशकारी प्रगति को रोका जाए। वे स्वार्थी और
सामाजिक लाभ से प्रेरित राजनीतिक चालों को बेनकाब करते रहते हैं। उन्होंने
ऐसी कुछ योजनाओं पर जागृति फैला कर रोक लगवा दी है। अब वे भारत नगर आए
हैं।
भारत नगर में डॉ ़ अहमदी के आने की खबर से शालिनी सहाय चिंतित हैं।
शालिनी सहाय को भनक मिली है कि डॉ ़ अहमदी को इस बार जाने नहीं दिया जाएगा।
उनकी हत्या हो जाएगी। परफेक्ट साजिश के तहत एक सड़क दुर्घटना में डॉ ़
अहमदी की मौत हो भी जाती है। उनकी विधवा इस दुर्घटना को हत्या मानती हैं और
नेशनल टीवी पर इस हत्या की जांच की मांग करती है। मुख्यमंत्री के आदेश से
जांच आरंभ होती है। इस जांच कमेटी के प्रमुख मुख्यमंत्री के प्रिय अधिकार
टी ए कृष्णन हैं। ईमानदार जांच में जब कृष्णनन सच के करीब होते हैं तो
उन्हें सलाह दी जाती है कि वे इस जांच को क्रिमिनल इंक्वारी कमेटी को सौंप
दें। वे मान भी जाते हैं। उन्हें मुख्यमंत्री ने स्टाकहोम भेजने का प्रलोभन
दे रखा है। बहरहाल, ऐन वक्त पर कृष्णनन को एक सुराग मिलता है। कृष्णन के
व्यक्तित्व के सही धातु की जानकारी अब मिलती है। वह रफा-दफा हो रहे मामले
को पलट देता है। साजिशों के तार मिलते और जुड़ते हैं और उनके पीछे के हाथ
दिखते हैं तो पूरी राजनीति नंगी होकर खड़ी हो जाती है।
दिबाकर बनर्जी ने किसकी प्रगति? किसका देश के सवाल और उसकी पीछे की
राजनीति को बगैर किसी लाग लपेट के उद्घाटित कर दिया है। सत्ता का समीकरण
चौंकता है। अपनी कहानी के लिए दिबाकर बनर्जी ने उपयुक्त किरदार चुने हैं।
मूल उपन्यास के चरित्रों के अलावा कुछ नए चरित्र जोड़े हैं। उन्होंने अपना
ध्यान नहीं भटकने दिया है। फिल्म विषय के आसपास ही घूमती है। आयटम सौंग और
डॉ ़ अहमदी की हत्या के इंटरकट राजनीति की जघन्यता जाहिर करते हैं।
शांघाई में इमरान हाशमी ने अपनी छवि से अलग जाकर कस्बाई वीडियोग्राफर की
भूमिका को जीवंत कर दिया है। उन्होंने निर्देशक की सोच को बखूबी पर्दे पर
उतारा है। शुरू में रोचक और हास्यास्पद लग रहा चरित्र क्लाइमेक्स में
प्रमुख और महत्वपूर्ण चरित्र बन जाता है। इमरान हाशमी ने इस ट्रांजिशन में
झटका नहीं लगने दिया है। टी ए कृष्णन जैसे रूखे, ईमानदार और सीधे अधिकारी
की भूमिका में अभय देओल जंचते हैं। उनका किरदार एकआयामी लगता है, लेकिन
चरित्र की दृढ़ता और ईमानदारी के लिए वह जरूरी था। अभय देओल पूरी फिल्म में
चरित्र को जीते रहे हैं। कल्कि कोइचलिन दुखी और खिन्न लड़की की भूमिका में
हैं। उन्हें टाइपकास्ट होने से बचना चाहिए।
खैर, इस फिल्म में उन्हें अधिक संवाद और दृश्य नहीं मिले हैं। भेद खुलने
के दृश्य में उनकी प्रतिक्रिया प्रभावित करती है। भग्गू के किरदार में
पित्ताबोस ने उन्मुक्त अभिनय किया है। फारुख शेख और प्रोसनेजीत अनुभवी
अभिनेता हैं। वे भाव और संवाद की अभिव्यक्ति में सहज और स्वाभाविक हैं।
इस फिल्म का पाश्र्र्व संगीत उल्लेखनीय है। दृश्यों की नाटकीयता बढ़ाने
में माइकल मैकार्थी़ के पाश्र्र्व संगीत का विशेष योगदान है। इन दिनों
थ्रिलर फिल्मों में पाश्र्र्व संगीत के नाम पर शोर बढ़ गया है। शांघाई के
छायांकन में दृश्यों के अनुरूप की गई लाइटिंग से भाव उभरे हैं। विभिन्न
चरित्रों को उनके स्वभाव के अनुसार लिबास और लुक दिया गया है। इसके लिए
मनोषी नाथ और रुशी श्मा बधाई के पात्र हैं। शांघाई में विशाल-शेखर का संगीत
सामान्य है। भारत माता की जय गीत ही याद रह पाता है।
**** 1/2 साढ़े चार स्टार
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