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Showing posts from June, 2012

जहर खाने की मजबूरी

मैं उन लोगों में शामिल नहीं हूं जो सब्जियां और खाने-पीने की दूसरी चीजें खरीदने बाजार जाते हैं। दरअसल मेरा मौजूदा पेशा मुङो इस सुविधा की इजाजत नहीं देता, लेकिन मुङो याद है कि जब मैं बच्चा था तो अपनी मम्मी और आंटी के साथ अक्सर बाजार जाता था। मुङो यह भी याद है कि तब मुङो कितनी बोरियत होती थी, क्योंकि मम्मी और आंटी को सब्जियां और फल छांटने में घंटों लगते थे। वे बड़ी रुचि के साथ सब्जियों और खाने-पीने की गुणवत्ता पर बहस करती थीं और खामियों की ओर इशारा करती थीं और सबसे बढ़िया क्वालिटी पर जोर देती थीं। वे लगातार अलग विक्रेताओं की सब्जियों और फलों की तुलना करती रहती थीं। जब यह सब होता था उस समय मेरे दोस्त क्रिकेट खेलने के लिए मेरा इंतजार कर रहे होते थे। आज जब मैं खार मार्केट के पास से गुजरता हूं तब मुङो सब्जियां, फल और खाने-पीने की चीजें खरीद रही महिलाएं ठीक वही करती नजर आती हैं जो तब मेरी मम्मी और आंटी किया करती थीं। उन्हें देखकर मैं अपने पुराने दिनों में लौट जाता हूं जब मुङो भारी-भारी बैग उठाने पड़ते थे। आखिर हमारे घर के बड़े लोगों को कितना समय खाने-पीने की ताजा सामग्री छांटने ...

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-रवीश कुमार

 (चेतावनी- स्टाररहित ये समीक्षा काफी लंबी है समय हो तभी पढ़ें, समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखने का फैसला आपका होगा ) डिस्क्लेमर लगा देने से कि फिल्म और किरदार काल्पनिक है,कोई फिल्म काल्पनिक नहीं हो जाती है। गैंग्स आफ वासेपुर एक वास्तविक फिल्म है। जावेद अख़्तरीय लेखन का ज़माना गया कि कहानी ज़हन से का़ग़ज़ पर आ गई। उस प्रक्रिया ने भी दर्शकों को यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन तारे ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया और गैंग्स आफ वासेपुर( कई नाम छूट भी सकते हैं) जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं। वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है। रामाधीर सिंह, सुल्तान, सरदार जैसे किरदारों के ज़रिये अनुराग ने वो भी दिखा दिया है जो इस...

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-गौरव सोलंकी

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गौरव सेलंकी के ब्‍नॉग रोटी कपड़ा और सिनेमा से साभार वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं  मैं नहीं जानता कि आपके लिए ‘ गैंग्स ऑफ वासेपुर ’ गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था। फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और उसके आसपास के घरों म...

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर

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पर्दे पर आया सिनेमा से वंचित समाज -अजय ब्रह्मात्‍मज इस फिल्म का केवल नाम ही अंग्रेजी में है। बाकी सब कुछ देसी है। भाषा, बोली, लहजा, कपड़े, बात-व्यवहार, गाली-ग्लौज, प्यार, रोमांस, झगड़ा, लड़ाई, पॉलिटिक्स और बदला.. बदले की ऐसी कहानी हिंदी फिल्मों में नहीं देखी गई है। जिन दर्शकों का इस देश से संबंध कट गया है। उन्हें इस फिल्म का स्वाद लेने में थोड़ी दिक्कत होगी। उन्हें गैंग्स ऑफ वासेपुर भदेस, धूसर, अश्लील, हिंसक, अनगढ़, अधूरी और अविश्वसनीय लगेगी। इसे अपलक देखना होगा। वरना कोई खास सीन, संवाद, फायरिंग आप मिस कर सकते हैं। अनुराग कश्यप ने गैंग्स ऑफ वासेपुर में सिनेमा की पारंपरिक और पश्चिमी सोच का गर्दा उड़ा दिया है। हिंदी फिल्में देखते-देखते सो चुके दर्शकों के दिमाग को गैंग्स ऑफ वासेपुर झंकृत करती है। भविष्य के हिंदी सिनेमा की एक दिशा का यह सार्थक संकेत है। देश के कोने-कोने से अपनी कहानी कहने के लिए आतुर आत्माओं को यह फिल्म रास्ता दिखाती है। इस फिल्म में अनुराग कश्यप ने सिनेमाई साहस का परिचय दिया है। उन्होंने वासेपुर के ठीक सच को उसके खुरदुरेपन के साथ अनगिनत किरदारों क...

फिल्‍म समीक्षा : तेरी मेरी कहानी

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  तीन दौर में फैली कुणाल कोहली की तेरी मेरी कहानी मुख्य रूप से आठ किरदारों की कहानी है। दो-दो प्रेम त्रिकोण और एक सामान्य प्रेम कहानी की इस फिल्म का सार और संदेश यही है कि समय चाहे जितना बदल जाए, प्यार अपने रूप-स्वरूप में एक सा ही रहता है। समय के हिसाब से हर काल में उसकी अभिव्यक्ति और लक्षणों में बदलाव आ जाता है, लेकिन प्रेमी युगलों की सोच,धड़कनें, मुश्किलें, भावनाएं, शंकाएं और उम्मीदें नहीं बदल पातीं। कुणाल कोहली ने तीनों दौर की कहानियों को पेश करने का नया शिल्प चुना है। दोराहे तक लाकर वे तीनों प्रेम कहानियों को छोड़ते हैं और फिर से कहानी को आगे बढ़ाते हुए एक राह चुनते हैं, जो प्रेमी-प्रेमिका का मिलन करवाती है। तीनों दौर में प्रेमी-प्रेमियों के बीच कोई खलनायक नहीं है। उनकी शंकाएं, उलझनें और अपेक्षाएं ही कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के विस्तार में जाने से दर्शकों की जिज्ञासा खत्म होगी। कुणाल कोहली ने तीनों दौर के प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रियंका चोपड़ा और शाहिद कपूर को चुना है। हर काल के हिसाब से उनकी भाषा, वेशभूषा और परिवेश में...

नजरअंदाज होने की आदत पड़ गई थी- विनीत सिंह

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गैंग्‍स ऑफ वासेपुर के दानिश खान उर्फ विनीत सिंह बैग में कुछ कपडे और जेहन में सपने लेकर मुंबई आ गया. न रहने का कोई खास जुगाड़ था न किसी को जानता था. शुरूआत ऐसे ही होती है. पहले सपने होते हैं जिसे हम हर रोज़ देखते है,फिर वही सपना हमसे कुछ करवाता है, इसलिए सपना देखना ज़रूरी है. लेकिन सपना देखते वक़्त हम सिर्फ वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं और जो हमें ख़ुशी देता है इसलिए सब कुछ बड़ा आसान लगता है. पर मुंबई जैसे शहर में जब  हकीकत से से दो-दो हाथ होता है तब काम आती है आपकी तयारी. क्यूंकि  यहाँ किसी डायरेक्‍टर या प्रोड्यूसर से मिलने में ही महीनो लग जाते हैं काम मिलना तो बहुत बाद की बात है.  बताने या कहने में दो-पांच साल एक वाक्य में निकल जाता है लेकिन ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता भाईi, वहां लम्हा-लम्हा करके जीना पड़ता है और मुझे बारह साल लग गए गैंग्स ऑफ़ वासेपुर  तक पहुँचते-पहुँचते. मेरी शुरुआत हुई एक टैलेंट हंट से जिसका नाम ही सुपरस्‍टार था. मै उसके फायनल राउंड का विजेता हुआ तो लगा कि गुरु काम हो गया. अब मेरी गाडी तो निकल पड़ी लेकिन बाहर ...

साहब बीबी और गुलाम

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- अजय ब्रह्मात्मज     फिल्मों की स्क्रिप्ट का पुस्तकाकार प्रकाशन हो रहा है। सभी का दावा रहता है कि ओरिजनल स्क्रिप्ट के आधार पर पुस्तक तैयार की गई है। हाल ही में  दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी की देखरेख में ‘साहब बीबी और गुलाम’ की स्क्रिप्ट प्रकाशित हुई है। उन्हें ओरिजनल स्क्रिप्ट गुरुदत्त के बेटे अरुण दत्त से मिली है। दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी ने चलन के मुताबिक फिल्म के हिंदी संवादों के अंग्रेजी अनुवाद के साथ उसे रोमन हिंदी में भी पेश किया है। संवादों के अंग्रेजी अनुवाद या रोमन लिपि में लिखे जाने से स्पष्ट है कि इस पुस्तक का भी मकसद उन चंद अंग्रेजीदां लोगों के बीच पहुंचना है, जिनकी हिंदी सिनेमा में रुचि बढ़ी हैं। उनकी इस रुचि को ध्यान में रखकर विनोद चोपड़ा फिल्म्स ने ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ और ‘3 इडियट’ के बाद गुरुदत्त की तीन फिल्मों ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ और ‘चौदहवीं का चांद’ के स्क्रिप्ट के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है। पिछले दिनों विधु विनोद चोपड़ा ने बताया था कि वे कुछ दूसरी फिल्मों की स्क्रिप्ट भी प्रकाशित करना चाहते हैं।     दिनेश...

शांघाई’ के सर्वहारा-मिहिर पंड्या

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'शांघाई' पर लिखा मिहिर पंड्या का यह लेख उनके  ब्‍लॉग आवारा हूं से चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पेश किया जा रहा है।  हम जेएनयू में हैं। छात्रों का हुजूम टेफ़्लास के बाहर कुछ कुर्सियाँ डाले दिबाकर के आने की इन्तज़ार में है। प्रकाश मुख्य आयोजक की भूमिका में शिलादित्य के साथ मिलकर आखिरी बार सब व्यवस्था चाक-चौबंद करते हैं। दिबाकर आने को ही हैं। इस बीच फ़िल्म की पीआर टीम से जुड़ी महिला चाहती हैं कि स्पीकर पर बज रहे फ़िल्म के गाने की आवाज़ थोड़ी बढ़ा दी जाए। लेकिन अब विश्वविद्यालय के अपने कायदे हैं और प्रकाश उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं। वे महिला चाहती हैं कि दिबाकर और टीम जब आएं ठीक उस वक़्त अगर “भारत माता की जय” बज रहा हो और वो भी बुलन्द आवाज में तो कितना अच्छा हो। मैं यह बात हेमंत को बताता हूँ तो वह कहता है कि समझो, वे पीआर से हैं, यही उनका ’वन पॉइंट एजेंडा’ है। हेमन्त, जिनकी ’शटलकॉक बॉयज़’ प्रदर्शन के इन्तज़ार में है, जेएनयू के लिए नए हैं। मैं हेमन्त को कहता हूँ कि ये सामने जो तुम सैंकड़ों की भीड़ देख रहे हो ना, ये भी भीड़ भर नहीं। यहाँ भी हर आदमी अपने में अलग ...

शांघाई, जबरदस्त पॉलिटिकल थ्रिलर-सौरभ द्विवेदी

हमेशा शिकायत रहती थी कि एक देश भारत, और उसका सिनेमा खासतौर पर बॉलीवुड ऐसा क्यों है। ये देश है, जो आकंठ राजनीति में डूबा है। सुबह उठकर बेटी के कंघी करने से लेकर, रात में लड़के के मच्छर मारने की टिकिया जलाने तक, यहां राजनीति तारी है। मगर ये उतनी ही अदृश्य है, जितनी हवा। बहुत जतन करें तो एक सफेद कमीज पहन लें और पूरे दिन शहर में घूम लें। शाम तक जितनी कालिख चढ़े, उसे समेट फेफड़ों पर मल लें। फिर भी सांस जारी रहेगी और राजनीति लीलने को। ये ताकत मिलती है आदमी को सिनेमा से। ये एक झटके में उसे चाल से स्विट्जरलैंड के उन फोटोशॉप से रंगे हुए से लगते हरे मैदानों में ले जाती है। हीरो भागता हुआ हीरोइन के पास आता है, मगर धड़कनें उसकी नहीं हीरोइन की बेताब हो उठती-बैठती दिखती हैं कैमरे को। ये सिनेमा, जो बुराई दिखाता है, कभी हीरोइन के पिता के रूप में, कभी किसी नेता या गुंडे के रूप में और ज्यादातर बार उसे मारकर हमें भी घुटन से फारिग कर देता है। मगर कमाल की बात है न कि आकंठ राजनीति में डूबे इस देश में सिनेमा राजनैतिक नहीं हो सकता। और होता भी है, मसलन प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में, तो ये चालू...

जनसंघर्षों के साथ भद्दा मजाक है शांघाई-समर अनार्य

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शांघाई शहर नहीं एक सपने का नाम है. उस सपने का जो पूंजीवाद के नवउदारवादी संस्करण के वैश्विक नेताओं की आँखों से धीरे धीरे विकासशील देशों में मजबूत हो रहे दलाल शासक वर्गों की आँखों में उतर आया है. उस सपने का भी जिसने नंदीग्राम, नोएडा और खम्मम जैसे हजारों कस्बों के सादे से नामों को हादसों के मील पत्थर में तब्दील के लिए इन शासक वर्गों ने हरसूद जैसे तमाम जिन्दा कस्बों को जबरिया जल समाधि दे दी. क्या है यह सपना फिर? यह सपना है हमारे खेतों, खलिहानों के सीने में ऊँची ईमारतों के नश्तर उतार उन्हें पश्चिमी दुनिया की जरूरतों को पूरा करने वाले कारखानों में तब्दील कर देना. यह सपना है हमारे किसानों को सिक्योरिटी गार्ड्स में बदल देने का. यह सपना है हमारे देशों को वैश्विक बाजारवादी व्यवस्था के जूनियर पार्टनर्स में बदल देने का. पर फिर, दुनिया के अब तक के इतिहास में कोई सपना अकेला सपना नहीं रहा है. हर सपने के बरक्स कुछ और आँखों ने आजादी, अमन और बराबरी के सपने देखे हैं और अपनी जान पे खेल उन्हें पूरा करने के जतन भी किये हैं. वो सपने जो ग्राम्शी को याद करें तो वर्चस्ववाद (हेजेमनी) के खिला...

सत्‍यमेव जयते-7 : घरेलू हिंसा की त्रासदी-आमिर खान

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अगर हमारे समाज का कोई वर्ग दूसरे वर्ग पर हमले करने लगे तो पुलिस इसे दंगा करार देती है, रैपिड एक्शन फोर्स तलब कर ली जाती है और हिंसा के शिकार लोगों की सहायता के लिए उचित कदम उठाते हुए तुरंत सरकारी मशीनरी सक्रिय हो जाती है और जरूरतमंदों को हिंसा से बचाती है। इसके बाद सरकार शरणार्थी शिविर तैयार कर प्रभावितों को पुनस्र्थापित करती है। जब हमने घरेलू हिंसा पर शोध किया तो ठीक यही स्थिति घरों में भी देखने को मिली। हमारे समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग की पिटाई करता है, उस पर हमले करता है। ये गृहयुद्ध सरीखे हालात हैं। अंतर महज इतना है कि घरों में उत्पीड़न का शिकार होने वाली महिलाओं को बचाने के लिए रैपिड एक्शन फोर्स तैनात नहीं की जाती। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा योजना आयोग द्वारा दो अलग-अलग अध्ययनों से खुलासा होता है कि 40 फीसदी से 80 फीसदी के बीच महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं। हम इसके औसत को कुछ कम करते हुए 50 फीसदी मान सकते हैं। यह भी विशाल आंकड़ा है। यानी हर दो महिलाओं में से एक महिला की पति या बेटों द्वारा पिटाई होती है। खेद की बात है कि यह आंकड़ा पुरुषों के बारे ...

फिल्‍म समीक्षा :गैंग्‍स ऑफ वासेपुर- द हालीवुड रिपोर्टर-देबोरा यंग

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Bollywood film maker Anurag Kashyap directs this two part gangster thrill ride about vengeance, greed and deep-rooted family rivalries. An extraordinary ride through Bollywood’s spectacular, over-the-top filmmaking, Gangs of Wasseypur puts Tarantino in a corner with its cool command of cinematically-inspired and referenced violence, ironic characters and breathless pace. All of this bodes well for cross-over audiences in the West.  Split into two parts, as it will be released in India, this epic gangster story spanning 70 years of history clocks in at more than five hours of smartly shot and edited footage, making it extremely difficult to release outside cult and midnight venues. Its bow in Cannes’ Directors Fortnight met with rousing consensus, but it’s still an exotic taste at a delirious length. Tipping his hat to Scorsese, Sergio Leone and world cinema as well as paying homage to Bollywood, writer-director-producer Anurag Kashyap ( Blac...