छोटी फिल्मों की बड़ी कामयाबी
-अजय ब्रह्मात्मज
तीनों फिल्मों पान सिंह तोमर, कहानी और अब विक्की डोनर की कामयाबी को
ट्रेंड समझें तो कहा जा सकता है कि दर्शक नए विषयों पर बनने वाली फिल्मों
के स्वागत के लिए तैयार हैं। बड़ी फिल्मों के साथ-साथ वे छोटी फिल्मों को
भी पसंद कर रहे हैं। अगर हाउसफुल 2 और अग्निपथ हिट होती है तो दूसरी तरफ
पान सिंह तोमर, कहानी और विक्की डोनर को भी दर्शक मिल रहे हैं। इनमें से
पहली दो तो रिलीज होने के लिए अटकी पड़ी थीं। उनके निर्माताओं को अपनी ही
फिल्म पर भरोसा नहीं था। इसलिए रिलीज के समय प्रचार के लिए किए जाने वाले
आवश्यक खर्च को वे नुकसान मान रहे थे। उन्होंने मन भी बना लिया था कि
डीवीडी पर सीधे रिलीज कर देंगे।
तीनों फिल्मों में हिंदी फिल्मों का ताम-झाम नहीं है। न तो बड़े स्टार हैं
और न विदेश में इनकी शूटिंग की गई है। माना जाता है कि सारी हिंदी
फिल्मों में प्रेम कहानी जरूर होती है, मगर तीनों फिल्मों में प्रेम कहानी
पर फोकस नहीं था। विक्की डोनर में हीरो-हीरोइन का रोमांस सरल और आधुनिक
है। ना तो उनके प्यार में पड़ते ही बारिश होती है और न ही उनके पीछे नाचते
डांसर नजर आते हैं। पान सिंह तोमर में पान सिंह तोमर और उनकी पत्नी के
बीच हसीन रोमांटिक पल थे, लेकिन तिग्मांशु धूलिया उसके डिटेल में नहीं गए।
उन्हें तो फौजी धावक के बागी बनने की कहानी दिखानी थी। वे इसमें सफल रहे।
कहानी में रोमांस रेफरेंस के तौर पर आता है।
तीनों ही फिल्में सहज और सीधी हैं। उन्होंने दर्शकों के दिलों को छुआ। यदि
फिल्म अपने मंतव्य में ईमानदार हो तो उसकी ईमानदारी पर्दे पर नजर आती है।
फिल्म के किरदार दर्शकों को अपने बीच के लगते हैं। ऐसे किरदारों के सुख-दुख
और हर्ष-विषाद में दर्शक शामिल भी हो जाते हैं। मल्टीप्लेक्स के विशिष्ट
दर्शकों तक ही ये फिल्में सीमित नहीं रहीं। तीनों कहानियों की मौलिकता
अनुकरणीय है। इनके लेखकों संजय चौहान, सुजॉय घोष और जूही चतुर्वेदी के
प्रयासों को रेखांकित किया जाना चाहिए। उन्होंने हिंदी फिल्मों को नई
संवेदना दी।
तीनों ही फिल्मों में परिवेश और भाषा पर विशेष ध्यान दिया गया है। पान सिंह
तोमर में मध्यप्रदेश के बीहड़ इलाके का परिवेश और बुंदेली लहजा
प्रामाणिकता देता है तो कहानी में कोलकाता अपने देसी रंग-रूप के साथ है।
विक्की डोनर में दिल्ली की शब्दावली और लहजे का सुंदर उपयोग हुआ है। दिल्ली
के अंदर बसी दिल्ली की अलग अलग छटाएं इसमें मिलती हैं। तीनों फिल्मों के
लेखकों की कोशिश रही है कि उनके किरदारों का लहजा स्थानीय हो। इसके बावजूद
संप्रेषण में बाधा नहीं आती। दूसरे इलाकों के दर्शक भी उन्हें समझते हैं।
एक और सामान्य बात है। तीनों ही फिल्मों के प्रमुख कलाकार धाकड़ हैं। पान
सिंह तोमर में इरफान ने फिल्म के नायक के जोश, द्वंद्व और बहादुरी को अच्छी
तरह पेश किया है। फिल्मी डकैतों की तरह वह घोड़े पर नहीं चलता। वह पैदल ही
बीहड़ की चित्रणों पर सरपट दौड़ता है। कहानी में विद्या बालन ने गर्भवती
महिला के किरदार को बखूबी निभाया है। फिल्म के अंत में जब उनके गर्भवती
नहीं होने का राज खुलता है, तब और भी आश्चर्य होता है। हमें विद्या बालन की
मेहनत और प्रतिभा समझ में आती है। विक्की डोनर में डा ़ चढ्डा के रूप में
अन्नू कपूर किरदार के मिजाज और बॉडी लैंग्वेज को इतनी सरलता से पेश करते
हैं कि वे डा ़ चढ्डा ही नजर आने लगते हैं। विक्की डोनर के नायक हैं अन्नू
कपूर।
तीनों फिल्मों की सफलता वास्तव में ट्रेंड बने तो हम दर्शकों को कुछ अच्छी
नई फिल्में देखने को मिलेंगी। अभिनय के नए आयामों से हम परिचित हो पाएंगे।
Comments
अच्छे मापदंड की फ़िल्में रिलीज़ नहीं हो पातीं और कभी कभी सामान्य सी पटकथा, हीरो, हिरोइन, निर्देशक, तेल लेने चले जाते हैं .किसी उदहारण की आवश्यकता नहीं ...आप समीक्षक हैं ..खुद ही जानते है
अमिताभ बच्चन साहब को गुंगा का रोल मिला रेशमा और शेरा में याद करें फिल्म सुनीलदत्त साहब की है प्रतिभा तब थी ...शायद बस इतना ही ..कभी भाग्य और कभी उपरवाला सफल असफल बनाता है.
फिल्म की सफलता असफलता उसके बजट ,हीरो ,हिरोइन ,
लोकेसन ,निर्देशक .और अन्य चीजों पर नहीं भाग्य पर भी निर्भर करता है .समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसे मिला है .वरना सदी के महानायक को रेशमा और शेरा में गूंगे का रोल न करना पड़ता .न ही दूसरी पारी की फ़िल्में बनती .सफलता असफलता का कोई न तो फंडा होता ना ही मापदंड .सिल्क स्मिता चली नहीं उसकी कहानी चल निकली ऐसे ही कई उदहारण आप जानते हैं
तीसरी कसम .पाकीज़ा ,का हश्र या सफलता ...?
बजट नहीं समसामयिक स्थिति रही हैं एक दौर होता है ........समीक्षक आप हैं ?