सेक्शुएलिटी से हमेशा पुरुषों को ही क्यों परेशानी होती है?-अनुराग कश्यप
-अजय ब्रह्मात्मज
दैट
गर्ल इन यलो बूट्स’ के समय
सब बोल रहे थे कि क्यों बना रहे हो? मत बनाओ। मुझे जितने ज्यादा लोग बनाने से मना करते हैं मुझे
उतना ही लगता है कि मुझे यह फिल्म जरूर बनानी चाहिए।
एक समय था, जब सब लोग चाहते थे कि मैं कुछ और करूं। जितने लोग चाहते थे कि मैं रास्ता बदल दूं, मैं उन लोगों को छोड़कर अलग हो गया। तभी आरती भी छूट गई। उस समय मैं दबाव में फालतू-फालतू फिल्में लिखता था, सिर्फ इसलिए कि गाड़ी की किश्त भर सकूं। मैं तो गाड़ी में घूमता नहीं हूं। लाइफ स्टाइल वही था। घर भी उतना ही बड़ा चाहिए। अगर घर छोटा होता तो दबाव कम होता। मैं जितना फालतू काम करता, जितनी घटिया फिल्म लिखता, अंदर गुस्सा उतना बढ़ जाता। मैं अंदर ही अंदर ब्लेम करने लग गया था अपने चारों तरफ लोगों को। घर पर कोई काम नहीं करता था। सब लोग बैठे रहते थे, सब इंतजार करते थे कि मेरी फिल्म कब शुरू होगी। कोई काम नहीं करता था। ‘सरकार’ हुई तो उसमें के के निकल गया। मैं तो सब की जिम्मेदारी लेकर चल रहा था। अंदर वो गुस्सा आ जाता है फिर। सब लोगों का अपना-अपना वजूद बन गया तो वही होता है। के के के पास पैसे तो मेरे पास क्यों नहीं? मैंने कहा, यार मैं तो इतने साल लेकर घूमा। नारियल पानी का बोझ मैं अपने कंधे पर लेकर घूमा। फिर धीरे-धीरे मैंने वे सब चीजें उठा कर फेंक दीं जो पीठ पर लेकर घूमता था।
हर फिल्म के साथ जो ग्रुप बना है, उससे मैं हर बार निकल गया। बाद में सब का कंसर्न एक जैसा हो जाता है। सब इस बात के लिए लडऩे लगते हैं कि हमारा पैसा कोई और खा रहा है। मैं कहता हूं कि खाने दे न यार, पिक्चर बनाने को मिल रही है।
जब मैं राइटर एसोसिएशन का मेम्बर बनने जाता था तो वहां पर एक सरदार जी हुआ करते थे। वो मुझसे एक्स्ट्रा पैसा मांगते थे, ‘अच्छा बेटा, आपका ‘सत्या’ का नॉमिनेशन हमारे हाथ में है। ‘शूल’ का अगले साल आपको आठ हजार देना पड़ेगा।‘ मैं बोलता था, भाड़ में जाओ, मुझे नहीं चाहिए अवॉर्ड। उस समय सब बोलते थे कि मैं बेवकूफ हूं। और तो और, कितनी बार मुझसे मेरा क्रेडिट तक ले लिया गया, लेकिन जिन लोगों ने क्रेडिट लिया, आज वे लोग कहां हैं? मेरी तो जिंदगी की आधी चीजें इसीलिए हुई हैं कि पैसा या ऐसी बाकी चीजें मुद्दा ही नहीं बनीं। अगर मुद्दा बनतीं तो मेरी आधी फिल्में नहीं बनतीं।
मेरे साथ दूसरी समस्या थी कि मैं बहुत ही बिखरा हुआ आदमी था। शादी जब हुई तो एक ही लडक़ी थी जो पसंद भी करती थी और शादी भी करना चाहती थी। जिस लडक़ी का पहली बार हाथ पकड़ा, उसी से शादी भी की। और शादी के बाद से ही गड़बड़ चालू हो गई। आरती की तरफ से कम, मेरी तरफ से ज्यादा। मैं थोड़ा बिखरने लगा था और बहुत ज्यादा बिखरने लगा था। मैं कनफ्यूज हो गया था। ‘सत्या’ तक सब ठीक था। मेरा वो केस तब से चालू हुआ जब ‘पांच’ बनी । मेरी जो ऐंठ थी, न जाने कहां-कहां ले गई। आरती तो मेरे हिसाब से हमेशा बहुत खयाल रखने वाली थी लेकिन इमोशनल कनेक्ट एक अलग होता है। मेरा कुछ चीजों को महत्व नहीं देना भी बहुत बड़ी समस्या रहा। पता नहीं, वही छोटे शहर से आना, ब्वॉयज हॉस्टल में पढऩा, अचानक लड़कियों को देखना, ऐसा लडक़ा रहना जो अठारह-उन्नीस साल की उम्र में लडक़ी सिगरेट पीए तो कहे कि गलत बात है, हाथ पकड़े, कहे शादी कर लें, कहे नहीं करनी चाहिए। ऐसे आदमी से ऐसा आदमी बना जिसने ‘देव डी’ बनाई। मिडिल क्लास के एक छोटे शहर के आदमी ने अचानक एक ऐसी चीज को काबू किया जो खतरा भी थी और आकर्षण भी और रहस्य भी थी। आधी जिंदगी निकल गयी वो रहस्य सुलझाने में कि क्या है, आखिर है क्या ये चीज।
उसी आधी जिंदगी में 2000-2001 था, जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था और कोई मुझे समझने वाला भी नहीं मिल रहा था। फिर ये होता है न कि कहीं मैं ही तो गलत नहीं हूं। रामू से मिलने से पहले मैं कहां शराब पीता था। सिगरेट भी नहीं पीता था। एकदम क्लीन था। तब मैं दुबला-पतला सा था। वो अलग ही है जोन, बहुत मुश्किल है अब वहां जाना। इतना जरूर बोल सकता हूं कि मैं वफादार नहीं रहा था। बहुत बुरी तरह बिखरा था। इमोशन चला जाता है। इमोशनली बिखरा हुआ था। मेरा ये था कि कोई ट्रेन की घटना होती थी कि ये आदमी गया, कहीं किसी के साथ सो के आ गया। मैं कहीं चला जाता था तो चला जाता था। मैं लौटता नहीं था। फिर लौटता था तो लौट के आ जाता था। फिर कब तक ऐसे कोई डील करेगा? फिर शराब में मैं बहुत बुरी तरह जा चुका था। तब मैं कहां होता था, मुझे नहीं मालूम। यह अंदर काम को लेकर भी था और आदमी को लेकर भी। वो हर चीज को लेकर था। मैं वो समझ नहीं पा रहा था। एक ही चीज मुझे पकड़े हुए थी, वो थी मेरी बेटी आलिया। आलिया थी, इसीलिए हमलोग इतना लंबा ला सके। एक होता है पति-पत्नी का रिश्ता, वो तो आलिया के जन्म के बाद ही खत्म हो गया था। हम वहीं अलग कमरे में रहते थे। वहीं गद्दे पर सोया रहता था, वहीं दारू पीता था, वहीं बातें करता था। लेकिन उससे पहले भी शायद आरती को मैंने कभी उस तरह से प्यार नहीं किया जिस तरह से उसने मुझे किया। तकलीफ भी उसकी थी, पैशन भी उसका था, प्यार भी उसका था मेरे प्रति। मेरा सबकुछ सिनेमा ही था।
एक समय था, जब सब लोग चाहते थे कि मैं कुछ और करूं। जितने लोग चाहते थे कि मैं रास्ता बदल दूं, मैं उन लोगों को छोड़कर अलग हो गया। तभी आरती भी छूट गई। उस समय मैं दबाव में फालतू-फालतू फिल्में लिखता था, सिर्फ इसलिए कि गाड़ी की किश्त भर सकूं। मैं तो गाड़ी में घूमता नहीं हूं। लाइफ स्टाइल वही था। घर भी उतना ही बड़ा चाहिए। अगर घर छोटा होता तो दबाव कम होता। मैं जितना फालतू काम करता, जितनी घटिया फिल्म लिखता, अंदर गुस्सा उतना बढ़ जाता। मैं अंदर ही अंदर ब्लेम करने लग गया था अपने चारों तरफ लोगों को। घर पर कोई काम नहीं करता था। सब लोग बैठे रहते थे, सब इंतजार करते थे कि मेरी फिल्म कब शुरू होगी। कोई काम नहीं करता था। ‘सरकार’ हुई तो उसमें के के निकल गया। मैं तो सब की जिम्मेदारी लेकर चल रहा था। अंदर वो गुस्सा आ जाता है फिर। सब लोगों का अपना-अपना वजूद बन गया तो वही होता है। के के के पास पैसे तो मेरे पास क्यों नहीं? मैंने कहा, यार मैं तो इतने साल लेकर घूमा। नारियल पानी का बोझ मैं अपने कंधे पर लेकर घूमा। फिर धीरे-धीरे मैंने वे सब चीजें उठा कर फेंक दीं जो पीठ पर लेकर घूमता था।
हर फिल्म के साथ जो ग्रुप बना है, उससे मैं हर बार निकल गया। बाद में सब का कंसर्न एक जैसा हो जाता है। सब इस बात के लिए लडऩे लगते हैं कि हमारा पैसा कोई और खा रहा है। मैं कहता हूं कि खाने दे न यार, पिक्चर बनाने को मिल रही है।
जब मैं राइटर एसोसिएशन का मेम्बर बनने जाता था तो वहां पर एक सरदार जी हुआ करते थे। वो मुझसे एक्स्ट्रा पैसा मांगते थे, ‘अच्छा बेटा, आपका ‘सत्या’ का नॉमिनेशन हमारे हाथ में है। ‘शूल’ का अगले साल आपको आठ हजार देना पड़ेगा।‘ मैं बोलता था, भाड़ में जाओ, मुझे नहीं चाहिए अवॉर्ड। उस समय सब बोलते थे कि मैं बेवकूफ हूं। और तो और, कितनी बार मुझसे मेरा क्रेडिट तक ले लिया गया, लेकिन जिन लोगों ने क्रेडिट लिया, आज वे लोग कहां हैं? मेरी तो जिंदगी की आधी चीजें इसीलिए हुई हैं कि पैसा या ऐसी बाकी चीजें मुद्दा ही नहीं बनीं। अगर मुद्दा बनतीं तो मेरी आधी फिल्में नहीं बनतीं।
मेरे साथ दूसरी समस्या थी कि मैं बहुत ही बिखरा हुआ आदमी था। शादी जब हुई तो एक ही लडक़ी थी जो पसंद भी करती थी और शादी भी करना चाहती थी। जिस लडक़ी का पहली बार हाथ पकड़ा, उसी से शादी भी की। और शादी के बाद से ही गड़बड़ चालू हो गई। आरती की तरफ से कम, मेरी तरफ से ज्यादा। मैं थोड़ा बिखरने लगा था और बहुत ज्यादा बिखरने लगा था। मैं कनफ्यूज हो गया था। ‘सत्या’ तक सब ठीक था। मेरा वो केस तब से चालू हुआ जब ‘पांच’ बनी । मेरी जो ऐंठ थी, न जाने कहां-कहां ले गई। आरती तो मेरे हिसाब से हमेशा बहुत खयाल रखने वाली थी लेकिन इमोशनल कनेक्ट एक अलग होता है। मेरा कुछ चीजों को महत्व नहीं देना भी बहुत बड़ी समस्या रहा। पता नहीं, वही छोटे शहर से आना, ब्वॉयज हॉस्टल में पढऩा, अचानक लड़कियों को देखना, ऐसा लडक़ा रहना जो अठारह-उन्नीस साल की उम्र में लडक़ी सिगरेट पीए तो कहे कि गलत बात है, हाथ पकड़े, कहे शादी कर लें, कहे नहीं करनी चाहिए। ऐसे आदमी से ऐसा आदमी बना जिसने ‘देव डी’ बनाई। मिडिल क्लास के एक छोटे शहर के आदमी ने अचानक एक ऐसी चीज को काबू किया जो खतरा भी थी और आकर्षण भी और रहस्य भी थी। आधी जिंदगी निकल गयी वो रहस्य सुलझाने में कि क्या है, आखिर है क्या ये चीज।
उसी आधी जिंदगी में 2000-2001 था, जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था और कोई मुझे समझने वाला भी नहीं मिल रहा था। फिर ये होता है न कि कहीं मैं ही तो गलत नहीं हूं। रामू से मिलने से पहले मैं कहां शराब पीता था। सिगरेट भी नहीं पीता था। एकदम क्लीन था। तब मैं दुबला-पतला सा था। वो अलग ही है जोन, बहुत मुश्किल है अब वहां जाना। इतना जरूर बोल सकता हूं कि मैं वफादार नहीं रहा था। बहुत बुरी तरह बिखरा था। इमोशन चला जाता है। इमोशनली बिखरा हुआ था। मेरा ये था कि कोई ट्रेन की घटना होती थी कि ये आदमी गया, कहीं किसी के साथ सो के आ गया। मैं कहीं चला जाता था तो चला जाता था। मैं लौटता नहीं था। फिर लौटता था तो लौट के आ जाता था। फिर कब तक ऐसे कोई डील करेगा? फिर शराब में मैं बहुत बुरी तरह जा चुका था। तब मैं कहां होता था, मुझे नहीं मालूम। यह अंदर काम को लेकर भी था और आदमी को लेकर भी। वो हर चीज को लेकर था। मैं वो समझ नहीं पा रहा था। एक ही चीज मुझे पकड़े हुए थी, वो थी मेरी बेटी आलिया। आलिया थी, इसीलिए हमलोग इतना लंबा ला सके। एक होता है पति-पत्नी का रिश्ता, वो तो आलिया के जन्म के बाद ही खत्म हो गया था। हम वहीं अलग कमरे में रहते थे। वहीं गद्दे पर सोया रहता था, वहीं दारू पीता था, वहीं बातें करता था। लेकिन उससे पहले भी शायद आरती को मैंने कभी उस तरह से प्यार नहीं किया जिस तरह से उसने मुझे किया। तकलीफ भी उसकी थी, पैशन भी उसका था, प्यार भी उसका था मेरे प्रति। मेरा सबकुछ सिनेमा ही था।
कल्कि का महत्व यह रहा कि उसकी जिन्दगी भी लगभग मुझ जैसी ही थी। वो भी बिखरी हुई
थी। उसके मां-बाप का तलाक हुआ था बारह साल की उम्र में। वह अपनी मां की मां बनी हुई
थी। मां को खाना खिलाना, मां को संभाल के बैठाना। कल्कि ने वो सब देखा है। कल्कि मेरी
जिन्दगी में आयी तो उसमें क्या दिख रहा है? उसमें मुझे लगता है कि उसको ऐसा कोई चाहिए था जो उसका विरोध
करे। मुझे कोई ऐसा चाहिए था जो मुझमें स्थायित्व लाए। उसने धीरे-धीरे मेरे सिस्टम से
ड्रग्स और बाकी चीजों को निकाला, संयम लाई। यह निर्भरता निकालते ही मैं आजाद हो
गया। फिर कल्कि की भी ऐंठ थी क्योंकि वो भी ऐसी चीजों से डील कर रही थी। सब उसको गोरी
की तरह देखते हैं। वो गोरी भले ही है लेकिन पली-बढ़ी तो तमिलनाडु के गांव में ही। वो
तो गोरी चमड़ी में ठेठ देहाती है। कोई तमिल बोलने वाला मिल जाए तो ऐसे घुलमिल जाती है
कि जैसे उसके गांव का हो। वो तो फिट ही नहीं होती हाई सोसायटी में। न हाई सोसायटी में फिट होती
है, न आम समाज में फिट होती है। वह इन सब चीजों से जूझ रही थी। उसकी ऐंठ को कंट्रोल
करने में मेरी ऐंठ खत्म हो गई।
मेरी फिल्मों के लिए लोग कहते हैं कि कोई समाधान तो दिखाओ। मैं कहता हूं, आप समाधान किसके लिए ढूंढ़ रहे हो? समाधान दुनिया के लिए ढूंढ़ रहे हो तो मैं दुनिया को तो संतुष्ट नहीं कर सकता। क्या मैं खुद संतुष्ट होना चाहता हूं? नहीं। तब क्यों दिखाऊं? मुझे समस्या ज्यादा दिखानी है। मैं चाहता हूं कि लोग उसके बारे में सोचें और ज्यादा बहस करें। मैं नहीं चाहता कि मैं चैप्टर को वहीं बंद कर दूं और किताब खत्म होने पर आप बोलें कि अंत में अच्छा सॉल्यूशन था। वो मुझे नहीं करना है। ‘यलो बूटस’ में हमने शूट किया था कि वो किरदार अंत में मरता है। पिक्चर एडिट हुई तो हमने निकाल दिया उसका मरना। वो भीड़ में खो जाता है। लोग बोलते हैं, यार ऐसे आदमी को, साले को मारना चाहिए। मैं कहता हूं कि ऐसे आदमी अक्सर मरते नहीं हैं। उसी मोड़ पर मैं फिल्म को खत्म करना चाहता था। अगर उस किरदार को मार दिया तो कहानी उस लडक़ी की रह गयी। जहां उस कैरेक्टर को नहीं मारा, वहां वो एक अलग लेवल पर चली गई कि ये सब की प्रॉब्लम हैं और ऐसे लोग हैं अभी भी। यह डराता है। फिर वो एक आदमी की कहानी नहीं लगती, लोग उसको भूलते नहीं। वो बहुत जरूरी है मेरे लिए कि आदमी अपने अंदर ढूंढ़े। अपने अंदर का पाप ढूंढ़े या समस्या ढूंढ़े या समाधान ढूंढ़े।
बाहर के दर्शकों की मेरे काम के प्रति जो प्रतिक्रिया रही है, वो हिंदुस्तान से ज्यादा अच्छी रही है। मेरी ‘देव डी’ सबसे ज्यादा सफल रही है लेकिन वो बाहर उस तरह नहीं सराही गई जिस तरह ‘ब्लैक फ्रायडे’ या ‘नो स्मोकिंग’ सराही गई थीं या ‘गुलाल’ भी।
पश्चिम में चीजों को देखने का तरीका अलग है। उनकी काम करने की पूरी संस्कृति भी हमसे अलग है। वहां पर निर्देशक अपना मॉनीटर खुद लेकर चलता है। उसके पास पांच स्पॉट ब्वॉय नहीं होते जो उसका सामान उठाएं और चाय पिलाएं। चाय भी लेनी होती है तो खुद जाकर लेता है। कैमरामैन अपना कैमरा खुद लेकर चलता है। चार अटैंडेंट नहीं चलते, फोकस कूलर नहीं चलता। साउंड वाला अपना साउंड का सामान खुद साथ लेकर चलता है। बारह लोगों की टीम होती है। जब मैं इंग्लैंड गया था और डैनी बॉएल को फोन किया तो वह बोला, यार कल घर की टंकी ठीक करूंगा, इसलिए कल नहीं मिल पाऊंगा। मैंने पूछा, आप ठीक करोगे? बोला, हां कौन ठीक करेगा? उसका ‘कौन करेगा’ इतना स्वाभाविक था कि मेरा घर है तो मैं ही ठीक करूंगा न? हमारे यहां ऐसा नहीं होता। मैं मुरारी को फोन करूंगा कि एक प्लम्बर ढूंढ़ कर लाओ और टंकी ठीक करवा दो। ठीक करवाते समय भी मुरारी खड़ा रहेगा और मेरा सर्वेंट खड़ा रहेगा। वहां पर आदमी खाना खुद बनाता है, घर खुद साफ करता है। और जो घर साफ करते हैं या ड्रायविंग करते हैं, लोगों के काम करते हैं, वो हर घंटे 20 पाउंड मतलब 1400 रुपए एक घंटे के लेते हैं। यहां जितने भी बड़े लोग हैं, उनके घर में बाई आती है कपड़े धोने के लिए। अगर वो इतना ही आसान काम है तो खुद धो लें। वे पाले ही इसी तरह गए हैं। हमारे देश की समस्या यह है। यहां कोई भी कोई बात खड़े होकर समझना नहीं चाहेगा, चाहे उसे कैसे भी समझाया जाए। हर आदमी लाट साहब है। वो होटल में आकर चुटकी बजा कर वेटर को बुलाने वाला। वहां पर जाकर देखिए कि कोई भी वेटर को चुटकी बजा कर नहीं बुलाएगा। वहां वेटर का अपना व्यक्तित्व होता है। वो आपके ऊपर कमेंट भी करेगा, आपके जोक पर हंस भी देगा और आपके ऊपर जोक भी कर देगा।
यहां पर तो वेटर मतलब ऐसे ही मक्खी है, उसे फाड़ देते हैं हम लोग। यहां पर रिक्शा अगर ब्लॉक कर दे तो लड़ जाते हैं कि रिक्शा आ गया मेरी गाड़ी के सामने। वहां पर जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट की गाड़ी होती है उसके लिए अलग लेन होती है। वे कहीं से भी यू टर्न ले सकते हैं। आम आदमी नहीं ले सकता। यह सब बहुत अंतर है हमारी संस्कृति में, सोच में और इसीलिए दर्शकों और समाज में भी।
मेरी फिल्मों के लिए लोग कहते हैं कि कोई समाधान तो दिखाओ। मैं कहता हूं, आप समाधान किसके लिए ढूंढ़ रहे हो? समाधान दुनिया के लिए ढूंढ़ रहे हो तो मैं दुनिया को तो संतुष्ट नहीं कर सकता। क्या मैं खुद संतुष्ट होना चाहता हूं? नहीं। तब क्यों दिखाऊं? मुझे समस्या ज्यादा दिखानी है। मैं चाहता हूं कि लोग उसके बारे में सोचें और ज्यादा बहस करें। मैं नहीं चाहता कि मैं चैप्टर को वहीं बंद कर दूं और किताब खत्म होने पर आप बोलें कि अंत में अच्छा सॉल्यूशन था। वो मुझे नहीं करना है। ‘यलो बूटस’ में हमने शूट किया था कि वो किरदार अंत में मरता है। पिक्चर एडिट हुई तो हमने निकाल दिया उसका मरना। वो भीड़ में खो जाता है। लोग बोलते हैं, यार ऐसे आदमी को, साले को मारना चाहिए। मैं कहता हूं कि ऐसे आदमी अक्सर मरते नहीं हैं। उसी मोड़ पर मैं फिल्म को खत्म करना चाहता था। अगर उस किरदार को मार दिया तो कहानी उस लडक़ी की रह गयी। जहां उस कैरेक्टर को नहीं मारा, वहां वो एक अलग लेवल पर चली गई कि ये सब की प्रॉब्लम हैं और ऐसे लोग हैं अभी भी। यह डराता है। फिर वो एक आदमी की कहानी नहीं लगती, लोग उसको भूलते नहीं। वो बहुत जरूरी है मेरे लिए कि आदमी अपने अंदर ढूंढ़े। अपने अंदर का पाप ढूंढ़े या समस्या ढूंढ़े या समाधान ढूंढ़े।
बाहर के दर्शकों की मेरे काम के प्रति जो प्रतिक्रिया रही है, वो हिंदुस्तान से ज्यादा अच्छी रही है। मेरी ‘देव डी’ सबसे ज्यादा सफल रही है लेकिन वो बाहर उस तरह नहीं सराही गई जिस तरह ‘ब्लैक फ्रायडे’ या ‘नो स्मोकिंग’ सराही गई थीं या ‘गुलाल’ भी।
पश्चिम में चीजों को देखने का तरीका अलग है। उनकी काम करने की पूरी संस्कृति भी हमसे अलग है। वहां पर निर्देशक अपना मॉनीटर खुद लेकर चलता है। उसके पास पांच स्पॉट ब्वॉय नहीं होते जो उसका सामान उठाएं और चाय पिलाएं। चाय भी लेनी होती है तो खुद जाकर लेता है। कैमरामैन अपना कैमरा खुद लेकर चलता है। चार अटैंडेंट नहीं चलते, फोकस कूलर नहीं चलता। साउंड वाला अपना साउंड का सामान खुद साथ लेकर चलता है। बारह लोगों की टीम होती है। जब मैं इंग्लैंड गया था और डैनी बॉएल को फोन किया तो वह बोला, यार कल घर की टंकी ठीक करूंगा, इसलिए कल नहीं मिल पाऊंगा। मैंने पूछा, आप ठीक करोगे? बोला, हां कौन ठीक करेगा? उसका ‘कौन करेगा’ इतना स्वाभाविक था कि मेरा घर है तो मैं ही ठीक करूंगा न? हमारे यहां ऐसा नहीं होता। मैं मुरारी को फोन करूंगा कि एक प्लम्बर ढूंढ़ कर लाओ और टंकी ठीक करवा दो। ठीक करवाते समय भी मुरारी खड़ा रहेगा और मेरा सर्वेंट खड़ा रहेगा। वहां पर आदमी खाना खुद बनाता है, घर खुद साफ करता है। और जो घर साफ करते हैं या ड्रायविंग करते हैं, लोगों के काम करते हैं, वो हर घंटे 20 पाउंड मतलब 1400 रुपए एक घंटे के लेते हैं। यहां जितने भी बड़े लोग हैं, उनके घर में बाई आती है कपड़े धोने के लिए। अगर वो इतना ही आसान काम है तो खुद धो लें। वे पाले ही इसी तरह गए हैं। हमारे देश की समस्या यह है। यहां कोई भी कोई बात खड़े होकर समझना नहीं चाहेगा, चाहे उसे कैसे भी समझाया जाए। हर आदमी लाट साहब है। वो होटल में आकर चुटकी बजा कर वेटर को बुलाने वाला। वहां पर जाकर देखिए कि कोई भी वेटर को चुटकी बजा कर नहीं बुलाएगा। वहां वेटर का अपना व्यक्तित्व होता है। वो आपके ऊपर कमेंट भी करेगा, आपके जोक पर हंस भी देगा और आपके ऊपर जोक भी कर देगा।
यहां पर तो वेटर मतलब ऐसे ही मक्खी है, उसे फाड़ देते हैं हम लोग। यहां पर रिक्शा अगर ब्लॉक कर दे तो लड़ जाते हैं कि रिक्शा आ गया मेरी गाड़ी के सामने। वहां पर जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट की गाड़ी होती है उसके लिए अलग लेन होती है। वे कहीं से भी यू टर्न ले सकते हैं। आम आदमी नहीं ले सकता। यह सब बहुत अंतर है हमारी संस्कृति में, सोच में और इसीलिए दर्शकों और समाज में भी।
प्रॉब्लम यह है कि हमारे यहां जब कोई बच्चा नहीं सीख रहा है तो उससे बच्चे को तोला
क्यों जाता है? प्रॉब्लम
मेरा वहां है। प्रॉब्लम यह है कि आप ने मापदंड तय कर लिया है और चाहते हैं कि सब उसमें
फिट हों। मुझे उसमें दिक्कत नहीं है कि बच्चा जा रहा है और जाकर सीख रहा है। वो तो
अच्छी बात है, बहुत बढिय़ा बात है। लेकिन जो बच्चा नहीं सीख रहा है, वो मेरा विषय है। जो अपनी
जिन्दगी ढर्रे पर चला रहा है, उसमें मुझे दिलचस्पी नहीं है। उसमें है, जो आदमी लीक
से हट के जा रहा है और वो कुछ भी नहीं कर रहा है जो उससे उम्मीद की जा रही है। हम क्यों
तय कर लेते हैं कि यह कुछ करेगा ही नहीं।
चीजों में परफेक्शन क्यों होना चाहिए? जैसे मेरी फिल्मों के गानों के लिए कुछ लोग बोलते हैं कि गाने एकदम सधे हुए नहीं है, और अच्छे गाए जा सकते थे। सबसे बड़ा प्रोडयूसर बोलता है, यार ये गाना वडाली ब्रदर से गवाओ तो एक अलग लेवल पर जाएगा। मैं कहता हूं कि लेवल पर नहीं ले जाना है मुझे। तानसेन थोड़े न बैठा हुआ है। तानसेन होता तो मैं गवाता किसी आज के तानसेन से। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हम लोगों ने एक हाउस वाईफ से गाना गवाया है, वहां के लोकल सिंगर से गाना गवाया है।
एक और दिक्कत है कि सब को हर बार सामाजिक क्रांति वाला कटाक्ष ही चाहिए। उन्हें कठोरता हजम नहीं होती। वो जो पहले था, वो गुस्सा था। ‘शूल’ का मनोज बाजपेयी हो या जो ‘पांच’ में था, वो गुस्सा था, जिससे युवा जुड़ते हैं। युवाओं को बार-बार वही चाहिए कि कोई उनके इतिहास पर बोले। उन्हें ‘यलो बूट्स’ की कठोरता हजम नहीं होती है क्योंकि उस में कोई सामाजिक स्टैंड लेने वाली चीज या क्रांति नहीं है। उसमें ऐसी सच्चाई है जिसे लोग स्वीकार नहीं करना चाहते। बहुत सारे दर्शकों को दिक्कत यही रही है कि आप अपनी फिल्मों में सेक्स को लेकर इतना असहज करने वाली बातें क्यों करते हैं? ऐसे लोग हमेशा पूछते हैं कि आपकी सेक्स लाइफ कैसी है? तो दमन उनके अंदर इतना भरा पड़ा हुआ है कि वे स्वीकार नहीं कर पाते। कहते हैं कि यह आपका चरित्र है। मैं कहता हूं कि हम विस्थापित हैं और हमारे विस्थापन में जिस तरह की सेक्शुएलिटी है, वही आएगी। बाहर ये चीजें इतनी नॉर्मल है कि चीजें बाहर आती नहीं है। वह मेरी फिल्मों में है क्योंकि हमारी जिन्दगी में है। आप सडक़ पर चले जाइए, आप मंदिर-मस्जिद जाएंगे, आप देखेंगे कि कोई लडक़ी वहां से निकली या कुछ हुआ तो अचानक लोगों की नजरें कैसे घूम जाती हैं। आप गुजर रहे होते हैं तो देखते हैं लडक़ी को। क्यों देखते हैं? वो क्या चीज है, जिसे आपने दबाया है लेकिन फिर भी आप आकर्षित होते हैं। कहीं न कहीं वो आपके अंदर है। मुझे लगता है कि सेक्शुअली मैं बाकी लोगों से ज्यादा भाग्यशाली हूं क्योंकि मैं इस बारे में खुल कर बात कर सकता हूं।
चीजों में परफेक्शन क्यों होना चाहिए? जैसे मेरी फिल्मों के गानों के लिए कुछ लोग बोलते हैं कि गाने एकदम सधे हुए नहीं है, और अच्छे गाए जा सकते थे। सबसे बड़ा प्रोडयूसर बोलता है, यार ये गाना वडाली ब्रदर से गवाओ तो एक अलग लेवल पर जाएगा। मैं कहता हूं कि लेवल पर नहीं ले जाना है मुझे। तानसेन थोड़े न बैठा हुआ है। तानसेन होता तो मैं गवाता किसी आज के तानसेन से। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हम लोगों ने एक हाउस वाईफ से गाना गवाया है, वहां के लोकल सिंगर से गाना गवाया है।
एक और दिक्कत है कि सब को हर बार सामाजिक क्रांति वाला कटाक्ष ही चाहिए। उन्हें कठोरता हजम नहीं होती। वो जो पहले था, वो गुस्सा था। ‘शूल’ का मनोज बाजपेयी हो या जो ‘पांच’ में था, वो गुस्सा था, जिससे युवा जुड़ते हैं। युवाओं को बार-बार वही चाहिए कि कोई उनके इतिहास पर बोले। उन्हें ‘यलो बूट्स’ की कठोरता हजम नहीं होती है क्योंकि उस में कोई सामाजिक स्टैंड लेने वाली चीज या क्रांति नहीं है। उसमें ऐसी सच्चाई है जिसे लोग स्वीकार नहीं करना चाहते। बहुत सारे दर्शकों को दिक्कत यही रही है कि आप अपनी फिल्मों में सेक्स को लेकर इतना असहज करने वाली बातें क्यों करते हैं? ऐसे लोग हमेशा पूछते हैं कि आपकी सेक्स लाइफ कैसी है? तो दमन उनके अंदर इतना भरा पड़ा हुआ है कि वे स्वीकार नहीं कर पाते। कहते हैं कि यह आपका चरित्र है। मैं कहता हूं कि हम विस्थापित हैं और हमारे विस्थापन में जिस तरह की सेक्शुएलिटी है, वही आएगी। बाहर ये चीजें इतनी नॉर्मल है कि चीजें बाहर आती नहीं है। वह मेरी फिल्मों में है क्योंकि हमारी जिन्दगी में है। आप सडक़ पर चले जाइए, आप मंदिर-मस्जिद जाएंगे, आप देखेंगे कि कोई लडक़ी वहां से निकली या कुछ हुआ तो अचानक लोगों की नजरें कैसे घूम जाती हैं। आप गुजर रहे होते हैं तो देखते हैं लडक़ी को। क्यों देखते हैं? वो क्या चीज है, जिसे आपने दबाया है लेकिन फिर भी आप आकर्षित होते हैं। कहीं न कहीं वो आपके अंदर है। मुझे लगता है कि सेक्शुअली मैं बाकी लोगों से ज्यादा भाग्यशाली हूं क्योंकि मैं इस बारे में खुल कर बात कर सकता हूं।
जब आप चीजों को ऐसे देखते हैं कि यह गंदा है तो प्रॉब्लम हमेशा रहेगी। लेकिन एक बात देखिए, सेक्शुएलिटी के बारे में हमेशा आदमी को क्यों परेशानी होती है? औरतों ने कभी सवाल नहीं किया। ‘देव डी’ या ‘गुलाल’ देखने के बाद मुझे औरतों ने कहीं पर आकर पकड़ कर यह नहीं बोला कि ये क्या दिखाया तुमने और क्यों दिखाया? हमेशा आदमियों ने बोला है। यह एक तरह का तालिबान है।
(जल्दी ही पूरी बातचीत पढ़ सकते हैं अगर आप चाहें। जी हां,मुझे बताएं कि आप इंटेरेस्टेड हैं। )
Comments
Kala me rehkar kala kee naye khoj.
- आनंद