सत्‍यमेव जयते-3: एक दिन का तमाशा : आमिर खान

बेशकीमती हैं बच्चियां 
विवाह जीवन का बेहद महत्वपूर्ण अंग है। यह साझेदारी है। इस मौके पर आप अपना साथी चुनते हैं, संभवत: जीवन भर के लिए। ऐसा साथी जो आपकी मदद करे, आपका समर्थन करे। हम शादी को जिस नजर से देखते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। शादी को लेकर हमारा क्या नजरिया है, इस पर हमारा जीवन निर्भर करता है। आज मैं मुख्य रूप से नौजवानों का ध्यान खींचना चाहता हूं। जो शादीशुदा हैं, वे अच्छा या बुरा पहले ही अपना चुनाव कर चुके हैं। भारत में हम शादी के नाम पर कितनी भावनाएं, सोच, कितना समय और कितना धन खर्च करते हैं! विवाह के एक दिन के तमाशे पर हम न केवल अपनी जमापूंजी लुटा देते हैं, बल्कि अकसर कर्ज भी लेना पड़ जाता है, किंतु क्या हम ये सारी भावनाएं, समय, प्रयास और धन विवाह में खर्च करते हैं? मेरे ख्याल से नहीं। असल में, हम इन तमाम संसाधनों को अपने विवाह में नहीं, बल्कि अपने विवाह के दिन पर खर्च करते हैं। बड़े धूमधाम से शादी विवाह के अवसर पर अकसर यह जुमला सुनने को मिलता है। विवाह उत्सव को सफल बनाने के लिए हम तन-मन-धन से जुटे रहते हैं। मैं उस दिन कैसा लगूंगा? समाज मुझे और मेरे साथी को कितना पसंद करेगा? लोग व्यवस्था के बारे में क्या कहेंगे? निमंत्रण पत्र के बारे में क्या कहेंगे? खाने के बारे में लोग क्या कहेंगे? वे कपड़ों के बारे में क्या कहेंगे? ये लोग हमारे दोस्त, नाते-रिश्तेदार और परिजन हैं। इन सबसे हमारी करीबी है और हम इन्हें विवाह में आमंत्रित करते हैं। हमारी ऊर्जा इस खास दिन को सफल बनाने में खप जाती है। यहां तक कि हमारे जीवनसाथी की पसंद भी इस दिन को शानदार बनाने से कहीं न कहीं जुड़ी रहती है। क्या आपने ये बयान नहीं सुने, मेरी बेटी तो इंजीनियर से शादी करेगी। मेरी बेटी तो आइएएस से शादी कर रही है। मेरी बेटी एनआरआइ से शादी कर रही है। हमें लगता है कि लोग ऐसे युवाओं को पसंद करते हैं और उनकी तारीफ से हमें खुशी मिलती है। हम अपने साथी के चुनाव में भी लोगों की पसंद-नापसंद का ध्यान रखते हैं, जबकि कटु सत्य यह है कि वे लोग अपना शेष जीवन वर या वधू के साथ नहीं बिताएंगे। कभी हम खानदान के आधार पर ही चुनाव कर डालते हैं। मेरे बेटे की शादी अमुक व्यक्ति की बेटी से हो रही है। हम वर या वधू के व्यक्तित्व पर ध्यान न देकर उसके परिवार के दर्जे पर लट्टू हो जाते हैं। आइए, हम शादी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करें। समय ऐसा ही पहलू है। दूसरों की चिंता में अपना अधिकांश समय खपाने के बाद हम खाने-पहनने की व्यवस्था में डूब जाते हैं। फार्म हाउस का चुनाव, मेन्यू, मेहमानों की सूची इन सब पर विचार करने में महीनों लग जाते हैं। यह सब समय उस दिन की तैयारी में लगता है, किंतु सबसे महत्वपूर्ण फैसले- सही जीवनसाथी का चुनाव, पर हम कितना समय लगाते हैं! मैं किस लड़की के साथ शादी कर रहा हूं? वह कैसी है जिसके साथ मैं अपना पूरा जीवन गुजारने जा रहा हूं। हमारा साथी एक व्यक्ति के रूप में कैसा है? उसकी आदतें कैसी हैं और सोच क्या है? क्या हमारी सोच से उसकी सोच मिलती है? क्या वह विनोदप्रिय है? क्या वह वही व्यक्ति है जिसके साथ मैं अपना पूरा जीवन बिताना चाहता था। इस नाजुक फैसले को लेने में हम पर्याप्त समय नहीं लगाते। अकसर एक मुलाकात के बाद ही शादी तय हो जाती है। घर वाले चहक कर कहते हैं, चलो, बात पक्की हो गई, मुंह मीठा करो।भारत में अधिकांश शादियां घरवाले तय करते हैं। हम वर-वधू के परिवार, जाति, घर, शिक्षा, आय और रंग-रूप पर ध्यान देते हैं, किंतु ये तमाम पहलू सतही हैं। हम उस व्यक्ति को जानने-समझने पर इतना समय क्यों नहीं लगाते जिसके साथ शेष जीवन गुजारने जा रहे हैं! क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति के साथ अपना जीवन गुजारने के लिए तैयार हो जाएंगे कि उसके पास इंजीरियरिंग या डॉक्टरी की डिग्री है। क्या उसकी डिग्री से शादी की जा रही है? साझा रुचियां, समान सोच, स्वभाव, संवेदना, विनोदप्रियता-क्या ये सब मायने नहीं रखते? दूसरा पहलू है धन। हम शादी के दिन भारी धनराशि खर्च करते हैं। अमीरों में एकदूसरे से अधिक खर्च करने की होड़ लगी रहती है। मध्यम वर्गीय और कामकाजी वर्ग अपनी तमाम कमाई और बचत शादी में झोंक देते हैं। अगर आपके पास पैसा है तो खुशी-खुशी तय कर लेते हैं कि हमें इतना खर्च करना है। किंतु जो अमीर नहीं हैं, जिनके लिए एक-एक रुपये की कीमत है, जिनके लिए बेटी की शादी करने का मतलब है अब तक की पूरी जमा-पूंजी खर्च करना वे लोग शादी के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट तुड़वा देते हैं, जमीन-जायदाद बेच डालते हैं और इसके बाद कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। विवाहोत्सव पर सारा पैसा फूंक डालने के बजाय आप यह रकम अलग रखकर बेटी को क्यों नहीं दे देते कि पति के साथ नया जीवन शुरू करो। यह राशि उसके नवजीवन में काम आएगी। इसके लिए आपको शादी के तामझाम को तिलांजलि देकर शरबत शादी करनी होगी। शरबत शादी से मतलब है कि मेहमानों को बुलाओ, शरबत पिलाकर उनका स्वागत करो और आने के लिए उनका धन्यवाद करो। मौज-मस्ती करो, खुशी मनाओ किंतु सादगी के साथ। नौजवानों, अपने माता-पिता से कहो, हमें बड़ा फंक्शन नहीं करना। यह राशि हमारे काम आएगी। हमें इस पैसे को अपने सुखी वैवाहिक जीवन की बुनियाद बनाने के काम में लगाने दो। उस खास दिन पर पूरा ध्यान लगाने के बजाय अपने वैवाहिक जीवन के भविष्य के बारे में सोचिए। हमें एक दिन की खुशियों पर अपने शेष जीवन को कुर्बान नहीं करना है। हमारी भावनाएं केवल एक दिन के लिए निवेश न हों, बल्कि शेष जीवन भर के लिए उनका निवेश करें। एक दिन के बजाय पूरे जीवन के बारे में सोचें। अपने शेष जीवन के वित्तीय, भावनात्मक और मानसिक, तीनों पक्षों पर खूब सोच-विचार करो। शादी से जुड़ी एक बुराई है दहेज। यह प्रतिगामी होने के साथ-साथ अवैध भी है। जरा सोचिए, धन और लालच की बुनियाद पर टिके संबंधों में क्या सार्थकता और सुंदरता हो सकती है? क्या हमें अपनी बेटी के दहेज के लिए धन बचाने के लिए इसे उसकी शिक्षा में निवेश नहीं करना चाहिए था। उसे इतना काबिल और स्वतंत्र बनाइए कि वह अपना भविष्य खुद तराश सके और अपनी खुशियों को खुद हासिल कर सके। तब उसे अपने जीवन को पूरा करने के लिए लालची और नाकारा वर की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसे ऐसे व्यक्ति से शादी करने दें जो उसकी इज्जत करता हो। उसकी शादी ऐसे व्यक्ति से होनी चाहिए जिसके बारे में वह मानती है कि वह उसके काबिल है। उसी के साथ जीवन बिताकर उसे सच्ची खुशी मिलेगी।

Comments

पैसे पर वैवाहिक जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती है, यह खुला तथ्य है...
शानदार प्रस्‍तुती यहा भी पधारे yunik27.blogspot.com
Anonymous said…
Sir pl write in small praragraphs. If you seen BBC, CNN, Guardian or Time, they all follow the rule of a para not more than three or four sentences. That's Internet writing style becaue research suggests, such a large chunk of text is not readable on compter monitor.
Pallavi saxena said…
बात मे दम तो है विचारणीय आलेख....
sanjeev5 said…
दहेज और उससे जुड़ी बातें गलत हैं. हर कहानी जो दहेज से जुड़ी है केवल एक ही पक्ष को दिखाती है, ये कोई नहीं कहता की वर पक्ष को क्या सब्ज़ बाग दिखाए गये थे. लड़की और उसके घर वाले क्या करते हैं ये भी जग ज़ाहिर होना चाहिये. जो मुद्दे आमिर खान ने उठाये हैं वो अच्छे हैं और शायद अक्षरक्ष सत्य भी लेकिन कहीं दूसरे पक्ष को भी अपनी बात कहने का मौका देना चाहिये. क्या आज की पढ़ी लड़कियां इस हद तक बात को जाने दे सकती हैं की अमरीका से अपने पिता को बुलाना पढ़े...ये कुछ अजीब नहीं लगता?...या ये आमिर का शो है तो हम सब बस मान लें की इस सबके सत्यापन की आवश्यकता नहीं है? ऐसा ही लगता है की पुलिस कुछ नहीं करना चाहती है. आमिर का कार्यक्रम अपनी साँसे गिन रहा है. भारत के लोग इतनी आसानी से ये बातें सास बहु सीरियल में तो मान सकते हैं लेकिन सत्य घटनाओं पर आधारित कार्यक्रम में नहीं....

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को