हद तोड़ती हिंदी फिल्में
यह स्थापित तथ्य है कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में हमेशा बाहर से आए फिल्मकारों ने ही फिल्मों के कथ्य का विस्तार किया। उन्होंने नए फॉर्म चुने, अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयोग किए, प्रचलित ढर्रे को तोड़ा और अपने समय को प्रभावित किया। आज यही सुनहरा इतिहास खुद को दोहरा रहा है। कहानी, कथ्य, शिल्प, प्रस्तुति, विषय और बिजनेस हर स्तर पर फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आए फिल्मकार निरंतर कुछ जोड़ रहे हैं। वे बालीवुड की सीमित पहचान से बाहर निकलना चाह रहे हैं। बियोंड बालीवुड है उनकी सोच और उनकी फिल्में।
इनके विपरीत अगर फिल्म इंडस्ट्री से आए फिल्मकारों पर नजर डालें तो उनमें से अधिकांश अभी रीमेक और सीक्वेल बना रहे हैं। कुछ पुराने फार्मूलों की नई पैकैजिंग और मार्केटिंग कर रहे हैं। हालांकि उनकी फिल्मों को मुनाफे का सुरक्षित समीकरण माना जाता है, लेकिन बॉक्स आफिस पर उन्हें भी चित्त होते देखा गया है।
लीक से हटकर सोच
नए दौर के निराले फिल्मकारों को समझने के लिए हाल की दो फिल्मों तिग्मांशु धूलिया की पान सिंह तोमर और सुजॉय घोष की कहानी का उदाहरण काफी है। दोनों ही फिल्में युवा फिल्मकारों की आउट ऑफ बॉक्स सोच और विश्वास की फिल्में हैं। दोनों ही हिंदी फिल्मों में चल रहे बदलाव का सफल उदाहरण हैं। ये बताती हैं कि कैसे बॉलीवुड के बाहर का सिनेमा भी स्वीकार किया जा रहा है। बॉक्स आफिस पर इनकी कामयाबी ने ट्रेड पंडितों की भविष्यवाणियों को झुठला दिया है। प्रचलित फार्मूलों के संवाहक और संरक्षक परेशान हैं कि ऐसा कैसे हो गया? इरफान खान और विद्या बालन को लीड में लेकर बनी दोनों फिल्मों के बिजनेस से कथित सुपरस्टार खिन्न हैं। वे दर्शकों की बदलती रुचि को समझने की कोशिश में हैं।
सदी के साथ बदला सिनेमा
नए फिल्मकारों की शुरुआत सदी के करवट लेने के साथ होती है। 21वीं सदी के पहले दशक के शुरुआती सालों में कुछ फिल्मकारों में सृजनात्मक छटपटाहट दिखाई दी। वे अपनी फिल्मों के निर्माण से लेकर प्रदर्शन तक के लिए जूझते दिखाई पड़े। हिंदी फिल्मों में पैरेलल सिनेमा के दौर की तरह युवा फिल्मकारों का यह दौर भी विविधतापूर्ण और यथार्थपरक है।
फर्क यही है कि पैरेलल सिनेमा में राजनीतिक गहराई और पृष्ठभूमि थी। अभी के ज्यादातर फिल्मकार अराजनीतिक हैं। वे किसी विचारधारा से प्रभावित नहीं दिखते। पिछला दशक हिंदी फिल्मों में अंदरूनी बदलाव का दौर रहा है। अब उसके परिणाम बॉक्स ऑफिस और दर्शकों के रुझान में दिख रहे हैं।
अग्रणी भूमिका में अनुराग
आज के सफल और प्रयोगशील फिल्मकार अनुराग कश्यप की इस पहचान में अग्रणी भूमिका है। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री की संरचना की बेधड़क आलोचना की और उसमें अपने पांव टिकाने की जद्दोजहद में लगे रहे। वे मनोरंजन के अनैतिक व्यापार के छल-प्रपंच को समझते हुए चतुर बने। उन्होंने न केवल अपने लिए जगह बनाई, बल्कि अपने साथ अनेक प्रतिभाओं को भी अपना हुनर दिखाने का मौका दिया। अनुराग कश्यप स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, अगर कोई युवा फिल्मकार सोचता है कि उसे आसानी से फिल्म मिल जाएगी या वह अपनी बात सौ फीसदी कह सकेगा तो वह मुगालते में है। फिल्म इंडस्ट्री का ढांचा इतना मजबूत है कि बाहर से आप इसमें छेद भी नहीं कर सकते। जरूरत है कि आप अंदर घुसने का खुद का रास्ता खोजें।
अंदर घुसें और अपनी जगह पर खड़े होने के बाद भी ईमानदार बने रहें। दिक्कत यह है कि सफल होने के साथ ही भ्रष्ट होने की राह खुल जाती है। देव डी की सफलता के बाद मैंने दैट गर्ल इन येलो बूट्स शुरू की तो सभी ने लानत भेजी। उन्हें दुख था कि मैं बड़ी फिल्म बनाने के बजाए छोटे बजट की गोरिल्ला फिल्म बना रहा हूं। अनुराग कश्यप ने अभी दो खंडों में गैंगस्टर ऑफ वासेपुर की शूटिंग पूरी कर ली है। उनकी इस फिल्म का पहला खंड संभवत: जून में रिलीज होगा। यह झारखंड इलाके के बाशिंदों की पीढि़यों की दुश्मनी पर बनी रियलिस्टिक फिल्म है। अपने समाज की धूसर सच्चाई को लेकर आ रही यह फिल्म हिंदी फिल्मों में कुछ नया जोड़ेगी।
कामयाबी की कहानी
अनुराग कश्यप अकेले नहीं हैं। उनके साथ अनेक फिल्मकार हैं, जो कमोबेश सालों के स्ट्रगल के बाद अपनी पहचान बनाने और कुछ अलग कहने में सफल हुए हैं। कहानी की ताजा सफलता से सुजॉय घोष का आत्मविश्वास बढ़ गया है। वे अपनी पीढ़ी के फिल्मकारों के संदर्भ में कहते हैं, अपनी पहचान के साथ सफल होने वाले सभी फिल्मकारों को आरंभ से निराशा और असफलता मिलती है। जरूरी है कि हम अपने पैशन और ध्येय को न खत्म होने दें। कहानी का ही उदाहरण दूं तो मैंने इस फिल्म के लिए विद्या बालन का पीछा किया। फिल्म बन जाने के बाद भी उसके प्रदर्शन के लिए मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ी। फिर भी अपनी फिल्म में मेरा विश्वास बना रहा।
सब्र टूटने की हद तक संघर्ष
युवा फिल्मकारों की फेहरिस्त में केवल राजकुमार हिरानी ही पहली फिल्म में अपार सफलता हासिल कर सके। अभी तक उनकी तीनों फिल्में सफल रही। युवा फिल्मकारों में अनुराग बसु, इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज और तिग्मांशु धूलिया आदि का संघर्ष लंबा रहा। सब्र टूटने की हद तक उन्हें इंतजार करना पड़ा। तिग्मांशु धूलिया ने पहली फिल्म हासिल में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के बैकड्राप में स्टूडेंट पॉलिटिक्स का सजीव चित्रण किया था। इस फिल्म की रिलीज में अनेक दिक्कतें आई थीं। उसके बाद की अपनी फिल्मों में तिग्मांशु धूलिया बाजार के दबाव में वही नहीं कह पा रहे थे, जो कहना चाहते थे।
एक इंतजार और कई फिल्मों की असफलता के बाद उन्हें पान सिंह तोमर और साहब बीवी और गैंगस्टर में अपेक्षित पहचान और सफलता मिली। कम लोगों को मालूम होगा कि पान सिंह तोमर वास्तव में साहब बीवी और गैंगस्टर से पहले बन चुकी थी। इस फिल्म का निर्माता यूटीवी है। उसे पान सिंह तोमर पर विश्वास नहीं था।
वहां के अधिकारी लगातार उसकी रिलीज टाल रहे थे और एक वक्त ऐसा भी आया था कि डीवीडी रिलीज कर पान सिंह तोमर से हाथ झाड़ने की बात आ गई थी। इस फिल्म में तिग्मांशु धूलिया और इरफान खान का विश्वास बना रहा। आज इस फिल्म के परिणाम से सभी वाकिफ हैं। पांच हफ्तों के बाद भी यह फिल्म सिनेमाघरों में टिकी हुई है। उसकेएक हफ्ते बाद रिलीज हुई कहानी की सफलता की कहानी भी मिलती-जुलती है।
सही निर्माता की तलाश
गौर करें तो सभी युवा निर्देशकों के पास अपनी कहानियां हैं। अपने परिवेश और अनुभव से सींचकर उन्होंने उन्हें स्क्रिप्ट का रूप दिया है। इन निर्देशकों को फिल्म इंडस्ट्री में सही निर्माता की तलाश रहती है, जो उनके सपनों और सोच में निवेश कर सके। राजकुमार हिरानी की सफलता से विस्मित हो रहे लोगों को मालूम होना चाहिए कि उन्हें फिल्म बनाने का मौका ही एफटीआईआई से निकलने के 13 वर्षो के बाद मिला था। उनके समकालीनों की स्थिति उनसे भी बदतर रही।
टीवी से फिल्मों में आए अनुराग बसु पर महेश भट्ट ने आरंभिक विश्वास किया, लेकिन उन्हें अपने सांचे में रखा। यही कारण है कि शुरू में उन्होंने भट्ट कैंप के फ्रेमवर्क और आउटलुक की फिल्में बनाई। जब थोड़ी छूट मिली तो हमने उनकी प्रतिभा को गैंगस्टर और लाइफ.. इन अ मैट्रो में देखा। उनकी अगली फिल्म पश्चिम बंगाल के राजनीतिक संदर्भो से युक्त एक मासूम प्रेमकहानी है। उन्होंने बर्फी में प्रेमकहानी को नया आयाम दिया है। रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा ने उनकी भिन्न सोच को अभिनय के रंगों से संजोया है।
खुरदुरे यथार्थ की खरी प्रस्तुति
इस क्षेत्र में विशाल भारद्वाज के उल्लेखनीय योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने बाल फिल्म मकड़ी से साधारण शुरुआत की। मकबूल में उनके निर्देशन ने सभी को चौंकाया। शेक्सपीयर के नाटकों को दोहराते हुए उन्होंने अगली फिल्म ओंकारा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कथाभूमि दी और किरदारों को देसी टच दिया। वहां के खुरदुरे यथार्थ को स्थानीय लहजे में पेश किया।
मुंबई के बैकड्रॉप पर बनी उनकी कमीने भी आम बॉलीवुड फिल्म नहीं है। वे मुंबई के चित्रण के बॉलीवुडीय फ्रेम को तोड़ते हैं। विशाल भारद्वाज की अगली फिल्म मटरू की बिजली का मन डोला हरियाणा के पृष्ठभूमि में रिश्तों की परतों को उजागर करती फिल्म है। नीरज पांडे ने ए वेडनेसडे में चंद किरदारों को लेकर एक प्रभावशाली फिल्म बनायी। आतंकवाद पर बनी उस फिल्म को वे नए परिप्रेक्ष्य में लेकर आए। नीरज पांडे स्पेशल छब्बीस में एक नई रोमांचक कहानी लेकर आ रहे हैं।
जिंदगी के असली रंग
इन सभी से अलग दिबाकर बैनर्जी महानगरीय परिवेश के विरोधाभासों पर फिल्में बनाते हैं। मिडिल क्लास जिंदगी से निकली उनकी फिल्मों का रियल टच दिल को छूता है। वे देखे हुए शहरों की तंग कॉलोनियों और गलियों में घुसकर कहानियां ले आते हैं। उनकी अगली फिल्म शांघाई एक पॉलिटिकल थ्रिलर है। थोड़े चर्चित और मशहूर इन नामों के साथ युवा फिल्मकारों की लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है, जो अपनी जिद के तहत बॉलीवुड की सीमाओं से परे जा रहे हैं। उनकी कहानियों में नया परिप्रेक्ष्य और परिवेश होता है। उनके किरदार घिसे-पिटे नहीं होते और उन्हें मशहूर कलाकारों से अधिक सरोकार नहीं रहता। उनके लिए स्टार भी एक कलाकार होता है!
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आपको धन्यवाद कि फिल्म जैसे विषय पर सार्थक लेखन कर रहे हैं। मैंने पहली बार आपके चवन्नी चैप के एक लेख का साररूप हिंदुस्तान समाचार पत्र में पढ़ा था। फिर नेट पर इस ब्लाग को खोजा और पढ़ा करता हूँ।