आपने अपना शैतान खुद गढ़ा है-डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
चर्चित टीवी धारावाहिक चाणक्य और फिल्म पिंजर बनाने वाले डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी का नया धारावाहिक ‘उपनिषद् गंगा’ हाल ही में दूरदर्शन पर शुरू हुआ है. फिल्म रचना और दर्शन सहित कई विषयों पर बातचीत के दौरान वे गौरव सोलंकी को बता रहे हैं कि क्यों उन्हें इतिहास इतना आकर्षित करता है.
‘चाणक्य’ और ‘पिंजर’ बनाने वाले डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का नया धारावाहिक ‘उपनिषद गंगा’ पिछले इतवार से दूरदर्शन पर शुरू हुआ है. उनकी फ़िल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ भी इसी साल रिलीज होने वाली है. डॉ. द्विवेदी से मेरी मुलाकात उनके घर में होती है, जिसमें विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध की अनेक मूर्तियां हैं और उनसे भी ज्यादा सकारात्मकता. उनके साथ समय बिताना भारत के अतीत की छांह में बैठने जैसा है, किसी और समय में पहुंचने जैसा है जिसमें आपको लगेगा कि आप किसी शांत जंगल में एक तालाब के किनारे बैठे हैं और बाहर जो शोर हो रहा है, वह किसी और समय की बात है. वे ऐसे गिने-चुने व्यक्तियों में से हैं जो अपने काम की बजाय वेदांत पर बात करते हुए ज्यादा खुश दिखते हैं. वे बताते हैं कि कैसे अपने सर्जक होने का अहंकार करने के लिए हम सब बहुत मामूली हैं, कैसे हर चीज का अतीत निश्चित है और इसलिए अतीत से बचने या उसे हिकारत से देखने की बजाय उसे समझने की कोशिश ज्यादा काम आ सकती है. यहां उसी बातचीत के कुछ अंश हैं.
आपका अधिकांश काम इतिहास पर है. इतिहास में सबसे ज़्यादा क्या लुभाता है या कहीं कोई ऐसी लालसा है कि मैं इस बहाने इतिहास में जी लूं.
हजारों साल पहले किसी ऋषि ने भी यही कहा कि हम उससे मिलने की शर्त पर ही अलग हुए हैं. अब हर कोई किसी से मिलना चाह रहा है. किसी का आनन्द स्त्री या पुरुष तक आकर ही रुक गया और कोई है जो ‘उस’से मिलने का इंतज़ार कर रहा है.
ये सच है कि मैं किसी और समय में जी लेता हूं. यह एक्वायर्ड है. लम्बे समय के अभ्यास और अनुभव के बाद ये हुआ कि मैं कहता हूं लोगों से कि मेरे लिए किसी युग में जाकर उस युग के पात्रों के साथ रहना और उन्हें देख पाना आसान है. वो हो सकता है कि मेरा अपना भ्रम भी हो. क्योंकि कल्पना और भ्रम के बीच एक झीनी सी रेखा होती है. लेकिन कल्पना के दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसका कारण है कि मैंने भारत के अतीत को लेकर जिसे डेवलपमेंट ऑफ मैटीरियल कल्चर, सभ्यता का विकास कहते हैं जिसमें स्थापत्य है, कला है, वेशभूषा है, समाज है. समाज का सामाजिक इतिहास कि वह किस तरह से विकसित हो रहा है, उसका लम्बे समय तक अध्ययन किया है.
एक बार किसी बड़े प्रसिद्ध निर्माता ने पूछा था मुझसे कि आपको क्या लगता है कि आपको पकड़ना हो तो कितना समय लगेगा इन सब चीजों में? मैंने कहा पन्द्रह वर्ष. इसीलिए कि मैं पन्द्रह वर्ष लगातार यह पढ़ता रहा और अब जब वह पढ़ना शुरू करेगा, मैं फिर आगे और कुछ पढ़ लूंगा. (हँसते हैं) यह आत्मश्लाघा है, आत्मप्रशंसा है. इससे बचते हुए मैं यह कहूंगा कि भारत का इतिहास, यह विश्व के इतिहास के बारे में मैं नहीं कहता हूं, मुझे मोहनजोदड़ो, बुद्ध का काल, मौर्यकाल की गलियाँ, गुप्तकाल की गलियाँ, ये बुलाती हैं कि आओ यहाँ और देखो. बीच में कभी जब एक दो बार मुझे एड फ़िल्म्स बनाने को कहा गया, तब भी मैं उन एड फ़िल्म्स को लेकर किसी युग में चला गया. हालांकि मैंने बनाई नहीं. पर एक ज़बर्दस्त आकर्षण है. किसी पुरातात्विक स्मारक पर जाकर मुझे अति प्रसन्नता होती है. जैसे मैं नालन्दा गया था तो मैं अकेला था. मैं 1988 या 1989 में गया था नालन्दा. गर्मी का महीना था, चिलचिलाती धूप. उस समय न स्मारक पर कोई सुरक्षा थी. मैं अकेला व्यक्ति था और मेरे हाथ में एक कॉपी थी जिस पर मैं प्लान बना रहा था. एक स्मारक को देखकर मुझे जितना आनन्द आता है, किसी दूसरे पर्यटन स्थल को देखकर नहीं आता है. कहीं न कहीं एक आकर्षण है या कहूं कि वह मेरी चेतना का हिस्सा है. शर्ट पैंट या गाड़ियों से मुझे कोई परहेज नहीं. मैं इसी युग में पैदा हुआ हूं. परंतु बैलगाड़ी और धोती और लालटेन और दिया, यह मुझको ज़्यादा आकर्षित करता है. मैंने गाँव तब जाना बन्द कर दिया, जब गाँव में बिजली आ गई. इसलिए कि मेरे लिए गाँव और शहर का अंतर ख़त्म हो गया. दूसरा एक मेरा मानना है कि जो कुछ भी आप करते हैं, वह सब अतीत के गर्भ में जा रहा है. भूतकाल निश्चित है आपका इसलिए उससे आप बच नहीं पाएँगे. और अगर आप भूत को समझने का प्रयत्न करें तो शायद आप वर्तमान को और बेहतर तरीके से देख पाएँगे. पर हम लोग हमेशा अतीत के प्रति एक हिकारत का भाव रखते हैं. खासकर हमारे भारत में. उसके कई कारण हैं- ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक कारण हैं. परंतु शायद इतिहास लिखा ही इसलिए जाता है और लगातार पीढ़ियों को वह याद दिलाया जाता है कि इतिहास को जान लोगे तो भविष्य भी बेहतर हो सकता है.
लेकिन इतिहास को कैसे पढ़ा जाए? क्योंकि इतिहास के भी कई रूप हैं. कोई नया विद्यार्थी किन चीजों को माने, कहाँ शंका करे?
क्रॉस रेफरेंस के बिना तो संभव भी नहीं है. और हमारे यहां तो अजीब स्थिति है. क्योंकि हमारे यहां इतिहास मौखिक परंपरा में ही जीवित रहा. लिखने की हमारे यहां परम्परा ही नहीं रही है. उसका कारण भी मैं देख पा रहा हूं. जो आत्मा की अमरता का संदेश देने वाला, जो मानता है कि सत्य के अलावा सब चीजें नित्य बदलती जाएँगी, देश काल समाज परिस्थिति, जो कुछ भी आप देख रहे हैं, जो आज है, हर क्षण बदल रहा है, बुद्ध भी वही कहते हैं, वेदांत भी. आत्मा के अलावा और किसी चीज को स्थिर माना ही नहीं गया है इसलिए हमारे यहाँ इसकी बिल्कुल चिंता नहीं की गई कि इतिहास को बिल्कुल सँभालकर रखा जाए और अक्षरों में लिख दिया जाए. और यह अमिट है, यह भी प्रयत्न नहीं हुआ. इतिहास की जो हमारी चेतना है, यह भी पश्चिम की चेतना है जो शब्दों में लिखी जाती है.
किसी एक घटना को लेकर अलग-अलग व्यक्तियों का अलग दृष्टिकोण होगा लेकिन आप उन सबको देखेंगे तो कोई ऐसा सूत्र मिल जाएगा. कोई एक धागा मिल जाएगा जो सभी को जोड़ रहा होगा. तो सच्चाई पर पहुँचना बहुत कठिन काम नहीं है. एक और बात, इतिहास का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी व्यक्ति के जन्म और मृत्यु की तारीखें और उसके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग. इतिहास तो है ही इंटरप्रेटेशन. कि ऐसा क्यों हुआ, या ऐसा नहीं होता तो क्या होता. यानी प्लासी की लड़ाई की हार के कारण. सत्य सिर्फ़ इतना है कि हार गए. कौन जीता, कौन हारा, आपने देख लिया लेकिन बाद में मीमांसा होती है. और यही इतिहास को रोचक बनाता है कि ऐसा क्यों हुआ.
क्या आप मिथकों को भी इतिहास का हिस्सा मानते हैं?
मिथक भी इतिहास का हिस्सा है. इसलिए कि मिथक में भी सत्य आपको मिल जाएगा. सत्य कहीं न कहीं अपना लंगर डाले रहता है. और उसके आसपास कहानियों का आवरण आ चुका होता है. परत दर परत आवरण उतारते जाएँगे तो सच मिल जाएगा. हम दूर क्यों जाएँ. मैं तुमसे जो कह रहा हूं, तुम जब किसी और से कहोगे तो उसमें कुछ शब्द बढ़ और घट जाएँगे. यह मेरे लिए तो नित्य का अनुभव है. मैं हर दिन अपने आपको समझाता हूं कि मैंने उसी बात पर थोड़ा और मुलम्मा क्यों लगा दिया? शायद हमारे भीतर का जो रचनाकार है, वह रोज़मर्रा की बातों के साथ भी रचना करना चाहता है.
यह दिलचस्पी शुरू कब हुई? बहुत बचपन में या पढ़ाई के दौरान?
इतिहास पढ़कर मैंने यही जाना कि मेरे होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़तामेरे एक शिक्षक थे देवनाथ सिंह जो इतिहास पढ़ाते थे लेकिन मुझे लगता है कि वे एक नाटककार थे. क्योंकि जब वे कहते थे कि युद्ध हुआ तो वे युद्ध पर नहीं ठहरते थे. तलवारें टकराईं, खनखनाहट हुई, हाथी चीखे चिंघाड़े, यह सब बताते थे. शायद अपने विद्यार्थियों को इंगेज करने का उनका यह तरीका था. लेकिन उससे मुझे समझ में आया कि इतिहास विजुअली बहुत दिलचस्प हो सकता है. मुझे याद हैं पान खाते हुए देवनाथ सिंह जो इतिहास पंक्तियों तक ही सीमित नहीं रखते थे, उनके बिम्ब बनाते थे. मेरे मन में वही बिम्ब ठहर गए, इसलिए मैं इतिहास को हमेशा चित्रों में देखता हूं. और इसलिए जब मैं लिखता हूं तो मैंने इतिहास को हमेशा अपना विषय चुना, इसलिए कि आपके पास एक पुख़्ता ज़मीन है, एक पुख़्ता कहानी है और इतिहास के जो हम पात्र लेते हैं, ये वो पात्र हैं जिन्होंने युग रचा है. वे असामान्य पात्र हैं. असामान्य व्यक्ति और असामान्य परिस्थितियां ही इतिहास बनाते हैं. जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त असामान्य व्यक्ति हैं. देश खंड खंड में बंटा हुआ है, एक यूनानी आक्रांता देश पर आक्रमण करने जा रहा है. यह अभूतपूर्व परिस्थिति है और अभूतपूर्व चरित्र हैं. इसीलिए युग बदलता है. तो मुझे लगता है कि किसी भी कहानी के लिए इससे ज़्यादा मसालेदार चीज नहीं हो सकती.
अगर हम अपने आसपास भी देखें तो घूम-फिरकर हमारे अतीत की कहानियां ही हमें बार बार सुनाई जाती हैं. रामायण की कहानी को जब भी कोई कथाकार सुनाता है, हर बार वर्तमान के दृष्टांत जोड़ता है, हर बार वह और रसमय बनती जाती है. वह नित्य बढ़ती जाती है. बाबा वाल्मीकि से शुरू हुई और आसाराम बापू तक बढ़ती जा रही है. आसाराम बापू यहाँ सिर्फ़ एक नाम है. आप बनारस जाएँगे तो हर गली मोहल्ले में कोई न कोई कथाकार उसमें कुछ जोड़ता मिलेगा. तो स्कूल के दिनों से इतिहास में रुचि शुरू हुई. मेरा एक अच्छा दोस्त था अब्दुल कादिर. कई बार पीछे जाकर देखता हूं कि कहानी कहना कहाँ से मैंने शुरू किया तो अब्दुल कादिर और मैं प्राइमरी में एक बेंच पर बैठते थे. और अब्दुल कादिर दारासिंह की फिल्में बहुत देखता था. और वह आकर म्यूजिक के साथ कहानियाँ सुनाता था. ढिशुम. तलवारें चलीं तो खचखच खचखच. मैं तो ऐसे परिवार से था जहाँ फ़िल्में देखना भी बहुत अच्छा नहीं माना जाता था. साल-दो साल में एकाध फ़िल्म देखी जाती थी. लेकिन अब्दुल कादिर हमेशा बताता रहता था.
पहली फ़िल्में कौनसी थीं जिन्होंने आप पर प्रभाव डाला.
स्कूल में तो हम सबके आदर्श मनोज कुमार थे. मुझे याद है कि उनकी ‘यादगार’ देखने के लिए हम टिकट के लिए लाइन में लगे थे. और मनोज कुमार की फ़िल्म देखने के लिए घर से परमिशन मिल जाती थी क्योंकि उन्होंने वह प्रतिष्ठा पा ली थी कि अच्छी फ़िल्में बनाते हैं. फ़िल्में देखने का शौक ज़रूर रहा है लेकिन जैसे जैसे सिनेमा में आता गया, मेरी देखने की रुचि घटती गई. इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि मैं जिस तरह की सेरिब्रल फ़िल्में देखना चाहता हूं, जिनमें कोई बौद्धिक विमर्श हो, सिर्फ़ चित्र न हों. चमकीले चित्र, सुन्दर चेहरे हर किसी को अच्छे लगते हैं और अधिकतर हम टीवी या सिनेमा से उसके चेहरों के माध्यम से ही जुड़ते हैं. आइडिया कभी आपको नहीं जोड़ता. मैं आइडिया से जुड़ता हूं और जब वह नहीं होता है सिनेमा में तो सब कुछ होने के बाद भी, कितना भी विस्मयकारी और अद्भुत हो, मुझे लगता है कि उसमें आत्मा नहीं है. मैं पढ़ता ज़्यादा हूं क्योंकि उसमें आप अपने बिम्ब खुद गढ़ने के लिए स्वाधीन होते हैं.
शोध किस तरह का करते हैं आप? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूं कि आपके काम में जो प्रामाणिकता देखने को मिलती है, वह बहुत कम दिखती है.
मुझे लगता है कि आपको लाइब्रेरी तक जाना पड़ेगा और घंटों रहना पड़ेगा. और यह एक दिन का काम नहीं है, वर्षों का काम है. यह निरंतर चलता है. कई चीजें मुझे चाणक्य के निर्माण के बीस साल बाद समझ आईं कि चाणक्य के युग के निर्माण में और क्या बेहतर हो सकता था. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बहुत सारे लोगों ने बहुत सालों तक कालिदास के नाटक किए हैं. ‘आषाढ़ का एक दिन’ बहुत सारे लोगों ने किया है. मैंने उनके बहुत सारे चित्र देखे. एक दिन अचानक मैंने सोचा कि हम पश्चिम की जो फ़िल्में देख रहे हैं 84 ईस्वी या समकालीन समय की और हमारी फ़िल्में देख रहे हैं तो दोनों की सभ्यता में बड़ा अन्तर है. वे लोग सिले हुए वस्त्र पहनने लगे हैं. हम लोगों में सिले हुए वस्त्रों का उल्लेख है लेकिन हम लोग पहन नहीं रहे हैं. हम उत्तरीय और अंतरीय पर अटके हैं. बस दो कपड़े और हमारा बाकी शरीर उघड़ा है. यह कहा जा सकता है कि पश्चिम ठंडा है और हम उष्ण प्रदेश हैं. लेकिन मुझे लगता है कि सर्दी में उत्तर या मध्य भारत में आप सिर्फ़ उत्तरीय के सहारे तो नहीं रह सकते. आपको ऊनी कम्बल की ज़रूरत पड़ी होगी और लगातार उसे लपेटकर रखना भी सम्भव नहीं है, और जबकि सुंई का उल्लेख है कि बौद्ध भिक्षु अपने साथ सुंई रखते थे और सीने की कला से भी हम अनभिज्ञ नहीं थे तो हमारे निरूपण में सिले हुए वस्त्र गायब क्यों हैं? फिर मैंने एक दिन एनएसडी के कुछ लोगों से पूछा कि बरसात के दिनों में या कश्मीर की ठंडक में कालिदास उत्तरीय पहनकर कैसे घूम सकता था? वे बोले कि इस पर हमने विचार ही नहीं किया था.
दरअसल हमने अपने शोध में शिल्पों को अपना आधार बना लिया. मन्दिरों की जो मिथुन मूर्तियां है, उनको आधार बनाया. लेकिन उसमें उल्लास उत्सव को अभिव्यक्त किया गया है, यथार्थ को नहीं. क्योंकि शिल्पकार तो शरीर का सौंदर्य दिखाता है. इसीलिए हमारे यहां आइटम गीत भी हैं. इसीलिए होता है कि नाचते हुए कभी न कभी कोई नायक शरीर के कपड़े उतार देता है या स्त्रियों को आप कम से कम कपड़ों में देखते हैं. क्योंकि शरीर का सौन्दर्य दर्शनीय है. इसलिए मन्दिरों के शिल्प में आप स्तन, नितम्ब, नाभि, कटि देख रहे हैं. उन पर आप लबादा डाल देंगे तो वह सौन्दर्य नहीं दिखेगा. वह संस्कृति का उद्देश्य है. और जब आप यथार्थ को कहना चाह रहे हैं तो आपका उद्देश्य अलग होता है. यह समझने में मुझे बीस साल लगे. अब अगर मैं मौर्यकाल करूंगा, उसमें ऋतुएं होंगी और उसमें अलग वेशभूषाएं होंगी.
नज़दीक के समय को फिर से रचने में ज़्यादा मेहनत लगती है या प्राचीन समय को?
नज़दीक के समय को. क्योंकि वह हर किसी की चेतना का हिस्सा होता है. बैलगाड़ी का स्वरूप हज़ारों साल तक नहीं बदला लेकिन कारें हर दस साल में बदल जाती हैं. मोहल्ला अस्सी में हमें 1988 से 1998 तक का समय शूट करना था और इसमें मेरी सबसे बड़ी चिंता थी कि मैं सड़कों से गाड़ियाँ कैसे हटवाऊंगा. क्योंकि उस समय में सिर्फ़ मारुति थी, इंडिका वगैरा नहीं आई थी. आखिर एक समय के बाद मैंने परेशान होकर कह दिया कि कुछ मत करो और हम घोषणा कर देंगे कि आप कहानी पर ध्यान दें, समय मेरी रुचि का विषय नहीं है. अब बनारस जैसे भीड़भाड़ वाले इलाके में आप कैसे गाड़ियों को हटाएँगे? या तो आप फिर डिजिटली हटाएँ उन्हें लेकिन फिर सवाल यह है कि इतना श्रम, इतना मेहनत क्या ज़रूरी भी है? और देखने वाले भी जानते हैं कि वे सिनेमा ही देख रहे हैं, असलियत नहीं. वरना क्या आप कभी परदे पर आग लगने पर पानी लेकर दौड़े हैं? इसीलिए मैंने अपने कला निर्देशक से कहा कि हम घोषणा कर देंगे कि हो सकता है कि आप कुछ ऐसी चीजें देख लें, जो उस समय में नहीं थी. वह गुस्से में कहने लगा कि क्यों घोषणा कर दें यार? मैंने कहा कि मेरी प्रतिष्ठा ही पीरियड को लेकर है. लोग कहेंगे कि आपको इंडिका दिखाई ही नहीं दी. वह बोला, जिसको दिखेगा, देख लेगा, घोषणा नहीं करेंगे. तो हम चिंतित थे, चाहे हमारे पास संसाधनों की कमी हो. इसीलिए जब मैं उपनिषद कर रहा था, मैंने सबसे पहले देश, काल, समाज और परिस्थिति को तिलांजलि दी. उसकी शुरुआत में ही आप देखेंगे कि हमारा उद्देश्य भौतिक संस्कृति को फिर से रचना नहीं है. हम बस विचार की बात कर रहे हैं, जो सर्वकालिक है.
उपनिषद गंगा दाराशिकोह से शुरू होता है. इसकी क्या कहानी है?
उपनिषद एक विचार है. ‘उपनिषद’ का अर्थ है- आओ, मेरे पास बैठो. जब दो लोग बात करते हैं तो वह भी उपनिषद हो जाता है. उपनिषद वेदांत हैं. उन्हें कहने के लिए हम जब उस समाज के बारे में सोच रहे थे, जिसे हम दिखाएं, वह वैदिक समाज जो अपने प्रश्नों के हल ढूंढ़ रहा हो, हमने कहानी कहने के लिए वेदव्यास को भी सोचा, कृष्ण द्वैपायन को भी, लेकिन हमें लगा कि हम दाराशिकोह के साथ अन्याय करेंगे अगर उसकी कहानी देश को नहीं बताते. दाराशिकोह मुमताज महल और शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा था. बहुत बड़ा वैदिक स्कॉलर था. दाराशिकोह ने बावन उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था. वे अनुवाद किसी फ्रेंच यात्री के हाथों यूरोप पहुंचे और वहां उपनिषदों को लेकर जिज्ञासा शुरू हुई. इसलिए मेरा मानना है कि दाराशिकोह का बहुत बड़ा योगदान है, उपनिषदों को विश्व तक ले जाने में. उसी तरह, जैसे अशोक बुद्ध के विचार को दुनिया तक ले गया.
’चाणक्य’ के वक़्त से टीवी बहुत बदल गया है. वह टीआरपी का ग़ुलाम है. सास बहू और फूहड़ता को देख रहे दर्शक क्या जीवन दर्शन की बात करने वाले किसी धारावाहिक में रुचि लेंगे?
हम बिल्कुल निश्चिंत थे. हमें पता था कि हम ऐसी किसी चीज पर काम नहीं कर रहे हैं जो रातों रात लोकप्रिय हो जाए. जिस देश ने हज़ारों सालों से उपनिषदों को हाथों हाथ नहीं लिया, वह एक टीवी सीरियल से उपनिषद को क्या हाथों हाथ लेगा? कितने लोग भौतिकविद होते हैं, गुरुत्वाकर्षण कितने लोग खोजते हैं? खोज करने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं और पूरी मनुष्यता उससे लाभ पाती है. आज जहाज में उड़ने वाले आदमी को मालूम नहीं है कि एक न्यूटन या एक एडिसन या ग्राहम बैल न हुआ होता तो हमारा जीवन कैसा होता. हम नहीं जानते कि उन्होंने कैसे किया लेकिन हम उन सब चीजों का उपभोग कर रहे हैं. उसी तरह से विचार पर कुछ ही लोग काम करते हैं. बस हम चाहते थे कि वह प्रवाह बना रहे. मेरा मकसद बस यही था कि सौ करोड़ की आबादी में नई पीढ़ी के दस लोग भी इस ज्ञान को आगे ले जाने के लिए तैयार हो जाएं तो काफ़ी है. हम विचार के अलावा कुछ नहीं बेच रहे. जो प्रायोजक हैं, वे तो बहाना हैं. बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि हमने किसी चैनल के लिए प्रोग्रामिंग नहीं की. हमारी प्रोग्रामिंग भविष्य के भारत के लिए है. कोई यह न कहे कि आज़ादी के बाद के साठ सालों में किसी ने उपनिषदों को नई पीढ़ी तक उनके माध्यम में पहुँचाने की कोशिश नहीं की. हो सकता है कि इसे पूरी तरह नकार दिया जाए, बकवास कह दिया जाए, ऐसा कहा जाए कि ये अतीतजीवी, मूर्ख, पुरातनपंथी लोग अभी यक इसमें जीवित हैं. लेकिन तब आपकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाएगी कि सही चित्र क्या है, वह आप आगे ले जाएं.
उपनिषदों के साथ इतना वक़्त गुज़ारते हुए आपके जीवन में क्या बदला?
केके रैना का उदाहरण देता हूं जिन्होंने इसमें काम किया है. उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि मैं कभी नहीं मानता था कि कला का कोई माध्यम व्यक्ति का जीवन बदल सकता है लेकिन उम्र के इस मोड़ पर, उपनिषद करते हुए मुझे लगा कि मैं ग़लत था. उन्होंने कहा कि मैं बहुत अशांत था, पीड़ा से भरा हुआ था और बहुत से प्रश्न थे, जिनसे मैं पूरी जिन्दगी लड़ता रहा था. अचानक उन्हें लगा कि उनके उत्तर कितने आसान थे लेकिन किसी ने उन्हें सीधे तरीके से बताए नहीं थे. मेरे साथ भी यही हुआ कि खुद से बहुत से द्वन्द्व कम हुए. ऐसा तो नहीं कहूंगा कि मैं सर्वज्ञानी हो गया हूं लेकिन जीवन आसान हुआ. एक कहानी मैंने तुलसीदास के माध्यम से कही है. तुलसीदास का चरित्र पढ़कर लिखकर यह समझ में आया कि तुम आखिर हो कौन? जिस आदमी का काम भारतीय जनमानस में चार सौ साल से है, उसी को समाज ने इतना दुतकारा तो मैं अहंकार करने वाला कौन हूं?
बहुत सारे लोग आपको इतना दक्षिणपंथी मानते हैं कि पिंजर को भी उसी चश्मे से देखते हैं, जिससे गदर को देखते हैं. आपके कैसे अनुभव रहे हैं?
हाँ, मैं जिस दिन से फ़िल्मों में आया, बिना मुझे मिले, बिना मुझे देखे लोग कहने लगे कि यह आरएसएस वाला है. यह पूर्वाग्रह है. हम बहुत चीजों का निराकरण बहुत जल्दी करना चाहते हैं, सामान्यीकरण करना चाहते हैं. पहले मैं थोड़ा दुखी भी होता था कि मुझे आरएसएस वाला क्यों कहते हैं? अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता. लगता है कि क्या आरएसएस वाले समाज का हिस्सा नहीं हैं? वह अच्छा हो या बुरा, आपके समाज का हिस्सा है. मैं आपको इसलिए आरएसएस वाला लगता हूं क्योंकि मैं भारत की बात करता हूं. लेकिन फिर तो हममें से अधिकतर लोग आरएसएस वाले हैं. मैं तुमसे तीन सवाल करूंगा तो तुम भी दो मिनट में आरएसएस वाले हो जाओगे. और मुझसे बड़े तथाकथित भाजपाई फ़िल्मों में हैं, उनके लिए मैंने कभी एक भी ऐसा शब्द नहीं देखा. कभी सुना है, शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ किसी को? क्योंकि हर किसी को ऐसा आदमी चाहिए जिसका उसे लगता है कि उसमें जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है. आप मेरा संघर्ष नहीं देखते. लोग आसानी से कहते हैं कि उसे क्या दिक्कत है यार, वो बीजेपी वालों को कहेगा, उसे पैसा मिल जाएगा. वे अनजान हैं. उस आदमी के लिए कह रहे हैं जिसे एक सीरियल से दूसरे के बीच में बीस साल लगे. वे वस्तुस्थिति नहीं देखते हैं. मैंने दोनों धारावाहिक तब बनाए, जब कांग्रेस सरकार थी. जब भाजपा की सरकार थी, देखिए कि मैं क्या कर रहा था. लोग ऐसे भ्रम इसलिए फैलाते हैं क्योंकि उनके भीतर हिंसा होती है. आपने अपना शैतान खुद गढ़ा है. मुझे उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
आप खुद को लेफ्ट, राइट या सेंटर के सांचों में से किसी में पाते हैं?
जिनकी मजबूरियां होती होंगी, वे इनमें रहते होंगे. मैं तो उस भारतीय विचार को मानने वाला हूं जिसमें मेरे सिवा कुछ है ही नहीं. आप मतभेद क्यों देखते हैं, यही विचार तो हम ले जा रहे हैं. दूसरा, तुमने पूछा न कि इतिहास का मुझे क्या फ़ायदा हुआ. यही हुआ कि मैंने जाना कि मेरे होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता. और ऐसे में जब आप मान लेते हो कि आपका विचार श्रेष्ठ है तो मुझे आप पर दया आने लगती है. समग्रता से बहुत कम लोग देख पाते हैं. कार्ल मार्क्स और बुद्ध जैसे कितने लोग हैं? बुद्ध स्वयं कहते हैं कि जब आप किसी विचार से इतने जुड़ जाते हैं कि उससे अलग कुछ सोच नहीं पाते, तब तो आपसे पराधीन व्यक्ति कोई नहीं है. मैं हमेशा कहता हूं लोगों से कि आप भी इस लेफ्ट राइट सेंटर के चक्कर से मुक्त होंगे एक दिन, बस थोड़ा ज़्यादा समय लगेगा.
आपका सारा काम साहित्य के एडेप्टेशन का ही है. क्या मौलिक कुछ करना नहीं चाहते?
मैं आसपास की कहानियां लिख सकता हूं, लेकिन लिखना नहीं चाहता. मैं कुछ बड़ा बदलने वाली कहानियां कहना चाहता हूं. एक बार मेरे एक शिक्षक ने कहा था कि तुम जिस विधा में लिखते हो, वह बहुत लम्बी है. संगीत सीखो, कविता लिखो, उससे तुम सम्पूर्ण कलाकार भी बन जाओगे. लेकिन मुझे लगा कि यह मेरे स्वभाव के विरोध में होगा.
जैसा आप कहते रहे हैं कि हम सब एक शाश्वत चेतना का हिस्सा हैं और पुरानी कहानियों को नए दृष्टांत जोड़कर दोहरा रहे हैं. ऐसे में मौलिकता क्या है?
मुझे लगता है कि बात तो सब वही कह रहे हैं. मैं गीत सुनता हूं तो हतप्रभ रह जाता हूं. ‘मैं तुमसे नहीं मिल पा रहा हूं’ के अलावा कोई और बात कहने वाला गीत है तो मुझे बता दो. और इसी को किस किस तरह से अभिव्यक्त किया जा रहा है. हजारों साल पहले किसी ऋषि ने भी यही कहा कि हम उससे मिलने की शर्त पर ही अलग हुए हैं. अब हर कोई किसी से मिलना चाह रहा है. किसी का आनन्द स्त्री या पुरुष तक आकर ही रुक गया और कोई है जो ‘उस’से मिलने का इंतज़ार कर रहा है. लेकिन हमारी पूरी रचना इस मिलन की प्यास पर ही हो रही है. हम उस एक ही कहानी की ओर बढ़ रहे हैं. मूल में वही एक प्रश्न और तनाव है, फिर चाहे आप अनुराग कश्यप की ‘गुलाल’ ले लो या कोई प्रेमकहानी.
कौनसे समकालीन फ़िल्मकारों का काम आपको पसंद है?
मैं विचार से प्रभावित होता हूं. वह विचार किसी का भी हो सकता है. ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के बाद मैंने राजकुमार हीरानी को फ़ोन किया और कहा कि तुम्हें पराजित करने के लिए पता नहीं कौनसा तीर निकालना पड़ेगा गुरू, लेकिन निकालेंगे. वह क्राफ़्ट की दृष्टि से ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ से नीचे थी लेकिन विचार की दृष्टि से सबसे ऊपर थी. ‘ओमकारा' देखने के बाद मैंने विशाल से कहा कि आपने क्राफ़्ट में पैमाना थोड़ा और ऊपर कर दिया है हमारे लिए, लेकिन लगाएंगे छलांग. ये वो चुनौतियां हैं जो अच्छी लगती हैं, उत्साह जागता है.
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