टीवी के लिए फिल्मों की काट-छांट
पिछले दिनों तिग्मांशु धूलिया बहुत परेशान थे। उनकी फिल्म साहब बीवी और गैंगस्टर को सेंसर बोर्ड के कुछ सदस्यों ने अटका दिया था। लोग शायद जानते हों कि फिल्म की रिलीज के बाद निर्माताओं को हर फिल्म के सैटेलाइट या टीवी प्रसारण के लिए अलग से सेंसर सर्टिफिकेट लेने पड़ते हैं। माना जाता है कि टीवी पर प्रसारित हो रही फिल्में घर के सभी सदस्य देखते हैं, इसलिए उसमें जरूरी कांट-छांट हो जानी चाहिए। यू-ए और ए सर्टिफिकेट मिलीं सभी फिल्मों को फैमिली फिल्म का दर्जा हासिल करना पड़ता है। लिहाजा जरूरी हो जाता है कि फिल्म से एडल्ट सीन, मैटेरियल और अन्य चीजें छांट दी जाएं। टीवी पर एडल्ट फिल्में प्रसारित नहीं की जा सकतीं। निर्माता टीवी प्रसारण से होने वाली आय के कारण इस काट-छांट के लिए सहज ही तैयार हो जाते हैं। कोई अतिरिक्त आय क्यों छोड़े?
इन दिनों सेंसर और टीवी प्रसारण की शर्तो और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए निर्माता-निर्देशक शूटिंग के समय ही दो तरीके से शॉट ले लेते हैं। बाद में काट-छांट कर फिल्म को बिगाड़ने से अच्छा है कि पहले ही इस तरह शूट कर लो कि फिल्म की रवानी बनी रहे। हालांकि इससे फिल्म की शूटिंग का खर्च बढ़ता है, लेकिन लेखक-निर्देशक को संतुष्टि रहती है कि उन्होंने टीवी के हिसाब से खुद ही एडिट कर दिया या नए शॉट ले लिए। देल्ही बेली समेत कुछ फिल्मों की खास शूटिंग और एडिटिंग की गई है।
दरअसल, फिल्मों के एडल्ट कंटेंट और उसके टीवी प्रसारण पर हमें नई नीति की जरूरत है। कुछ महीने पहले एक टीवी चैनल पर अचानक महेश भ˜ की अर्थ दिखी। विवाहेतर संबंध पर बनी इस संवेदनशील फिल्म के मर्म और प्रभाव को टीवी पर देखकर नहीं समझा सकता। मैंने गौर किया कि इस फिल्म के महत्वपूर्ण दृश्य टीवी प्रसारण की सीमाओं के कारण कट चुके थे। स्मिता पाटिल और शबाना आजमी की भिड़ंत के दृश्य और कुलभूषण खरबंदा और शबाना आजमी के बीच की बहस के दृश्य कट चुके थे। उन दृश्यों के बगैर अर्थ देखने का मतलब नहीं रह जाता। अर्थ की तरह सभी एडल्ट और यू-ए फिल्मों के दृश्य कट जाते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि फिल्मों को ज्यों का त्यों प्रसारित किया जा सके। फिलहाल ऐसी फिल्मों को देर रात में प्रसारित किया जा सकता है। इस तात्कालिक व्यवस्था के साथ ही सेंसर बोर्ड और अन्य संबंधित संस्थाओं को इस संदर्भ में पुनर्विचार करने की जरूरत है।
हमें नई प्रसारण नीति बनाने की जरूरत है। पिछले दस सालों में टीवी परिदृश्य बदल चुका है। दुनिया भर के चैनल भारतीय घरों में बेधड़क प्रवेश कर चुके हैं। उनके जरिए एडल्ट कंटेंट की फिल्मों और टीवी शो किसी सेंसर के बगैर घर-घर पहुंच रहे हैं। यहां तक कि भारतीय सैटेलाइट चैनलों के कंटेंट में भी गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब वर्जित विषयों पर टीवी शो और सीरियल बन रहे हैं। कॉमेडी शो में सुनाए और दिखाए जा रहे लतीफों का सार स्त्री-पुरुष संबंधों पर ही रहता है। यहां तक कि एंकरों की हंसी और प्रतिभागियों के पॉज और अंदाज लतीफों के सेक्सुअल कंटेंट को रेखांकित कर देते हैं। मनोरंजन के व्यभिचार के इस दौर में जरूरत है कि एक स्पष्ट नीति बने। यह नीति एक तरफ टीवी की फूहड़ता रोके और दूसरी तरफ एडल्ट कंटेंट की फिल्मों और टीवी शो के प्रसारण को रेगुलेट कर सके।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में नाक पर रुमाल रखने के रवैए से काम नहीं चलेगा। समाज बदल चुका है। द डर्टी पिक्चर में आइटम गर्ल सिल्क की कहानी को दर्शक स्वीकार कर रहे हैं। इस फिल्म को ही प्रसारित करना हो तो क्या काट-छांट कर देने पर फिल्म का वही प्रभाव बना रहेगा। बिल्कुल नहीं। तिग्मांशु धूलिया को कहा गया कि साहब बीवी और गैंगस्टर विवाहेतर संबंध पर बनी फिल्म है, इसलिए इसे टीवी प्रसारण का सर्टिफिकेट देने में दिक्कत हो रही है। यही सेंसर बोर्ड और इसके सदस्य किसी नामचीन फिल्मकार या स्टार की फिल्म को सर्टिफिकेट देते समय सारे नियम ढीले कर देते हैं, लेकिन नए फिल्मकार और फिल्मों के लिए वे मुसीबतें खड़ी करने से बाज नहीं आते। सेंसर बोर्ड के सदस्यों की नीति तो बदलती नहीं। बस, फिल्मों और फिल्मकारों की हैसियत के आधार पर रवैया बदला जाता है।
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