ऑन स्क्रीन ऑफ स्क्रीन : गढ़ते-बढ़ते अनुराग कश्यप
-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्मों से संबंधित सारे बौद्धिक और कमर्शियल इवेंट में एक युवा चेहरा इन दिनों हर जगह दिखाई देता है। मोटे फ्रेम का चश्मा, बेतरतीब बाल, हल्की-घनी दाढी, टी-शर्ट और जींस में इस युवक को हर इवेंट में अपनी ठस्स के साथ देखा जा सकता है। मैं अनुराग कश्यप की बात कर रहा हूं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इस मुखर, वाचाल, निर्भीक और साहसी लेखक-निर्देशक ने अपनी फिल्मों और गतिविधियों से साबित कर दिया है कि चमक-दमक से भरी इस दुनिया में भी धैर्य और कार्य से अपनी जगह बनाई जा सकती है। बाहर से आकर भी अपना सिक्का जमाया जा सकता है। लंबे तिरस्कार, अपमान व संघर्ष से गुजर चुके अनुराग कश्यप में एक रचनात्मक आक्रामकता है। उनका एक हाथ मुक्के की तरह गलीज फिल्म इंडस्ट्री के ध्वंस के लिए तना है तो दूसरे हाथ की कसी मुट्ठी में अनेक कहानियां व सपने फिल्म की शक्ल लेने के लिए अंकुरा रहे होते हैं। अनुराग ने युवा निर्देशकों को राह दिखाई है। मंजिल की तलाश में वाया दिल्ली बनारस से मुंबई निहत्था पहुंचा यह युवक आज पथ प्रदर्शक बन चुका है और अब वह हथियारों से लैस है।
जख्म हरे हैं अब तक
इस तैयारी में अनुराग ने मुंबई में अनेक साल बिताए। थिएटर, टीवी, विज्ञापन और फिर फिल्मों तक पहुंचने का रास्ता सुगम तो बिलकुल नहीं रहा। निराशा हमेशा साथ रही, लेकिन निराशा में छिपी आशा ने उम्मीद का दामन थामे रखा। दोस्ती, बैठकी और सोहबत के शौकीन अनुराग ने कई-कई दिनों तक खुद को कमरे में बंद रखा, लेकिन अवसाद के क्षणों में भी आत्मघाती कदम नहीं उठाए। असमंजस और दुविधा के उस दौर में करीबी दोस्तों ने भी लानत-मलामत की। निकम्मा और फेल्योर कहा, दिल व दिमाग पर गहरे जख्म दिए। उन्हें अनुराग ने बडे जतन से पाल रखा है, क्योंकि उन जख्मों की टीस ही उन्हें नई चुनौतियों से जूझने और सरवाइव करने का जज्बा देती है। अभी अनुराग से अकेले मिल पाना मुश्किल काम है, लेकिन अगर आप उनके साथ समय बिताएं तो महसूस करेंगे वह भरी सभा में निर्लिप्त हो जाते हैं। अचानक खो जाना और फिर मुस्कराते हुए अपनी मौजूदगी जाहिर करना उनकी खासियत है। वे अपनी मौजूदगी से शांत झील में फेंके गए कंकड की तरह हिलोर पैदा करते हैं। उनसे हाथ मिलाते ही साथ हो जाने का गुमान फिल्मों में आने को उत्सुक और महत्वाकांक्षी युवकों को कालांतर में भारी तकलीफ देता है, लेकिन अनुराग अपने साथियों को हाथ मिला कर ही चुनते हैं। उन्हें अपना अनुगामी नहीं, सहयात्री बनाते हैं और यकीन करें कि उनसे दो-दो हाथ भी करने को तैयार रहते हैं। वे अपने युवा मित्रों एवं प्रशंसकों को साहस और मजबूती देकर अपनी चुनौती बढाते हैं। मैंने देखा है अपने कटु आलोचकों से उनका लाड-प्यार। उन्होंने रहीम के दोहे को जीवन में उतार लिया है। निंदक नियरे राखिए का वह आस्था से पालन करते हैं।
लुगदी साहित्य से प्रेम
अनुराग मुंबई आने के बाद सभी की तरह थोडा भटके और अटके। फिर उनकी मुलाकात राघवन बंधु (श्रीराम-श्रीधर), शिवम नायर और शिव सुब्रमण्यम से हुई। इनकी संगत और बातचीत में सिनेमा का ज्ञान बढा। लेखन का कौशल था, उसे और धार मिल गई। दरअसल फिल्मों में आने की प्रेरणा उन्हें फिल्म फेस्टिवल में देखी रिअलिस्टिक फिल्मों से मिली। उससे पहले की देखी हिंदी फिल्में भी अछी लगती थीं, उनसे रिश्ता भी महसूस होता था, लेकिन फिल्म बनाने का एहसास फेस्टिवल में देखी गई फिल्मों से ही जागा। लगा कि यह तो वह भी कर सकते हैं।
बहरहाल, मुंबई में पृथ्वी थिएटर और रंगमंच में थोडी सक्रियता बढी। तब इरादा ऐक्टिंग में भी किस्मत आजमाने का था। छोटे-मोटे काम भी किए। दो-चार संवाद बोले, मगर ऐक्टिंग का संघर्ष फालतू व लंबा लगने से लेखन की तरफ रुझान हो गया। उनके भाई-बहन बताते हैं कि कहानी सुनाना उन्हें बचपन से आता है। ड्रामा गढने में बचपन व किशोरावस्था में पढे लुगदी साहित्य से मदद मिली। अनुराग ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वे सत्य कथा और मनोहर कहानियां बडे शौक से पढा करते थे।
पहली फिल्म डिब्बे में बंद आरंभिक दिनों में ही ऑटोशंकर के ऊपर एक स्क्रिप्ट लिखी। मजेदार वाकया है कि शूटिंग आरंभ होने वाली थी, मगर स्क्रिप्ट फाइनल नहीं थी। अनुराग ने जब जाना कि स्क्रिप्ट वर्क नहीं कर रही है तो राघवन बंधु से अनुमति लेकर लिखने की हिम्मत जुटाई। जोश और ऊर्जा की कमी थी नहीं। रातों-रात स्क्रिप्ट लिखी। उसी स्क्रिप्ट पर ऑटोशंकर की शूटिंग हुई। इससे प्रोत्साहित होकर अनुराग ने अपनी फिल्म लिखनी शुरू कर दी। फिल्म का नाम मिराज रखा था। बाद में वही स्क्रिप्ट पांच के नाम से बनी। हालांकि अनुराग की पहली सोची, लिखी और निर्देशित पांच अभी तक रिलीज नहीं हो सकी है। कैसी विडंबना है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस युवा निर्देशक की पहली फिल्म पांच अभी तक डब्बे में बंद है!
मेनस्ट्रीम से दूरी
इसी बीच दिल्ली के मित्र मनोज बाजपेयी को महेश भट्ट की कुछ फिल्मों के बाद राम गोपाल वर्मा की दौड मिली। कहते हैं कि राम गोपाल वर्मा ने पहली मुलाकात में ही मनोज को भांपने के बाद भीखू म्हात्रे के बारे में सोच लिया था। उन्होंने मनोज को एक बार मना भी किया, तुम इतना छोटा काम मत करो, क्योंकि अगली बार मैं तुम्हें केंद्रीय भूमिका में लेकर फिल्म बनाऊंगा। एक स्ट्रगलर के लिए भविष्य से बेहतर विकल्प वर्तमान होता है। मनोज ने दौड में मामूली रोल किया। धुन के पक्के राम गोपाल वर्मा ने उन्हें सत्या का आइडिया सुनाया और कहा कि किसी नए लेखक को ले आओ। मनोज ने राम गोपाल वर्मा से अनुराग कश्यप की मुलाकात करवा दी। अनुराग ने बताया था, कुछ ही दिन पहले श्रीराम राघवन और दोस्तों के साथ मैंने रंगीला देखी थी। वह फिल्म मुझे इंटरेस्टिंग लगी थी। जब मनोज ने बताया कि राम गोपाल वर्मा मुझसे मिलना चाहते हैं तो मैं चौंका। मेरे मुंह से निकला- हां..और मुंह खुला रह गया। मुलाकात हुई। सत्या का लेखन आरंभ हुआ तो अनुराग की सारी योजनाएं धरी रह गई। अनुराग स्वीकार करते हैं, राम गोपाल वर्मा के साथ काम करने और सत्या, कौन और शूल फिल्म लिखने से मेरा आत्मविश्वास बढा। सत्या हिट होते ही सक्रियता और मांग बढ गई, लेकिन इंडस्ट्री की मुख्यधारा के निर्माता-निर्देशक अनुराग को लेकर आशंकित ही रहे। उन्हें यह ढीठ युवक नहीं सुहाता था।
अराजकता भी-एकाग्रता भी
अनुराग में लडने का दम है। अपने जीवन में अनुराग जितने भी अराजक व लापरवाह हों, काम को लेकर वह अनुशासित और एकाग्र रहते हैं। मैंने देखा है कि फिल्म की शूटिंग हो या राइटिंग, एक बार लीन हो जाने के बाद वे किसी और चीज पर ध्यान नहीं देते। पिछले 15-16 सालों में अनुराग ने यह विश्वास हासिल कर लिया है कि आप उन्हें जिम्मेदारी सौंप कर निश्िचत हो सकते हैं। यही कारण है कि अभी उन्हें निर्माता के तौर पर शामिल कर अनेक प्रोडक्शन कंपनियां चालू हो गई हैं। कॉरपोरेट हाउस हों या स्वतंत्र निर्माता, सभी को ब्रैंड अनुराग में भरोसा है। वे उनके नाम पर आज निवेश के लिए तैयार हैं। बडी से बडी फिल्म के लिए उत्सुक निर्देशकों-निर्माताओं के लिए उनका यह व्यवहार अनुकरणीय हो सकता है। देव डी की कामयाबी के बाद वह चाहते तो बडे स्टार्स को लेकर बडे बजट की महंगी फिल्म प्लान कर सकते थे। उनके समर्थन में कई निर्माता तैयार थे, लेकिन अनुराग ने दैट गर्ल इन येलो बूट्स जैसी छोटे बजट की फिल्म बनाई। इस फिल्म में कल्कि कोइचलिन मुख्य भूमिका में थीं। फिल्म के लिए बजट जुटा पाना मुश्किल था। लेकिन अनुराग ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने फिल्म पूरी की और एक साल के बाद उसे रिलीज किया। इसे कुछ लोग एक कलाकार की सनक के रूप में देख सकते हैं, लेकिन प्रलोभन से खुद को बचा लेने पर आर्टिस्ट भ्रष्ट होने से बचा रह जाता है। अनुराग के समकालीन दूसरे निर्देशकों में आ रहे भटकाव और पतन पर गौर करें तो इसे आसानी से समझा जा सकता है।
शादी ने दिया ठहराव
पति-पत्नी और प्रेमियों के बीच के संबंध को उनके अलावा कोई नहीं जान सकता। अनुराग पहली पत्नी आरती बजाज से कानूनी रूप से अलग हो चुके हैं। उन्होंने कल्कि कोइचलिन से शादी कर ली है। उनके नजदीकी बताते हैं कि इससे उनके जीवन और काम में व्यवस्था देखने को मिली है। उल्लेखनीय है कि अलगाव और झगडे के दिनों में कभी अनुराग ने आरती के लिए अपशब्द का इस्तेमाल नहीं किया और न शिकायत की। एकांतिक बातचीत में आत्मालोचना के स्वर में कहा, शायद मैं ही गलत था, निर्वाह नहीं कर सका। लेकिन आरती से उनके प्रोफेशनल संबंध बने रहे। इज्जत कायम रही। आरती ने उनकी फिल्में एडिट कीं। वे अपनी इकलौती बेटी के लिए पूरा समय निकालते हैं। उसके मन का काम करते हैं। उनके नए फ्लैट में बेटी का कमरा हमेशा सजा-धजा रहता है। पिछले दिनों वे अपने बेटी के साथ यूरोप की यात्रा पर गए थे। वे इसे अपने जीवन की यादगार यात्रा मानते हैं। उसके बाद कल्कि के साथ की गई दक्षिण अमेरिकी देशों की यात्रा ने उन्हें जिंदगी जीने व समझने का नया सलीका दिया है। मुझे साफ दिखता है कि शादी के बाद अनुराग की ग्रंथियां कम हुई हैं।
समकालीनों की तारीफ
पिछले दिनों इम्तियाज अली की फिल्म रॉकस्टार रिलीज हुई तो अनुराग ने दावा किया कि आलोचक अगर इसी फिल्म को दोबारा देखें तो उनकी राय बदल जाएगी। यही हुआ भी। उन्होंने असंतुष्ट और मुखर आलोचकों के बीच इम्तियाज अली को बिठाया। रात के एक से साढे तीन बजे तक मुंबई के सिनेमैक्स थिएटर की सीढियों पर चले उस प्रश्नोत्तर प्रसंग में शामिल मित्रों में से कोई भी ता-जिंदगी नहीं भूल पाएगा। अनुराग ने ऐसा क्यों किया? कायदे से देखें तो इम्तियाज और अनुराग की शैली की भिन्नता स्पष्ट है, लेकिन सोचा न था के समय से वे इम्तियाज के समर्थन में खडे दिखाई देते हैं। इम्तियाज का ऐसा ही समर्थन अनुराग को भी हासिल है। फर्क यही है कि इम्तियाज छाती ठोक कर समर्थन नहीं करते, जबकि अनुराग कश्यप बेशर्मी की हद तक समर्थन पर उतर आते हैं। अपने समकालीनों से परस्पर सम्मान और समर्थन का ऐसा व्यवहार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नहीं दिखता।
नए लोगों को दिया मौका
हाल ही में मध्य प्रदेश के एक शहर से आए युवा महत्वाकांक्षी निर्देशक से मुलाकात हुई। वह अपनी स्क्रिप्ट के साथ फिल्म बनाने की इछा लिए घूम रहा है। मैंने पूछा कि कहां रहते हो? जीवन कैसे चलता है? उसने तपाक से बताया, अनुराग सर ने ऑफिस में रहने की अनुमति दे दी है। कुछ दिन-महीने वहां रह लूंगा। मेरे जैसे कई स्वप्नजीवी वहां हैं। पता चला कि अनुराग थोडी नाराजगी और झडप के साथ सभी को अपने ऑफिस में रहने, टिकने और खुद को संभालने का मौका देते हैं। वे प्रतिभाशाली लडकों को कभी निराश नहीं करते। मौके देते और दिलवाते हैं, लेकिन उनका नारा है बी द चेंज (स्वयं परिवर्तन बनो)। उनकी यही सलाह है कि जो करना चाहते हो, खुद करो। किसी के सहारे या भरोसे मत रहो। हालांकि उनके इस तर्क से कई पुराने व अभिन्न मित्र नाराज भी हुए, क्योंकि अनुराग ने पुराने परिचितों-मित्रों के बजाय नए लोगों को फिल्में बनाने के मौके दिए।
हिंदी साहित्य से लगाव
अनुराग की खासियत है कि वे एक साथ विदेशों में पैदा हो रही नई प्रवृत्तियों और देश में आकार ले रहे नए विचारों से वाकिफ हैं। अधिकतर लेखक और निर्देशक कामयाब होने के साथ देखना, पढना और मिलना छोड देते हैं, लेकिन मैंने देखा है कि अनुराग बहुत पढते हैं। हिंदी साहित्य से लेकर विश्व सिनेमा तक से परिचित हैं। कारण पूछने पर वे हंसते हुए कहते हैं, वाकिफ नहीं रहूंगा तो दो साल बाद आप ही गाली देने लगोगे और मुझसे बातें करना बंद कर दोगे। अनुराग की ताजा कामयाबी है कि जिस यशराज कैंप से कभी उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया था, अब उसी में अनुराग ने अपने मित्रों के साथ नई प्रोडक्शन कंपनी फैंटम की लॉन्चिंग की है। फिल्म इंडस्ट्री में कदम रख रहे सहमे-घबराए युवकों के लिए अनुराग सफल प्रेरणा हैं।
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