शहर-शहर डोलते स्टार
पिछले सप्ताह शाहरुख खान पटना नहीं जा सके। उनके न जा पाने की सही वजह के संबंध में कंफ्यूजन है। शाहरुख ने ट्विट किया था कि जिला अधिकारियों ने सुरक्षा कारणों से उन्हें आने से रोका, लेकिन पटना प्रशासन कह रहा है कि हम तो सुरक्षा में चाक-चौबंद थे। अगर हम अमिताभ बच्चन को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं तो शाहरुख को भी पटना से सुरक्षित भेज सकते हैं। आखिकार शाहरूख खान पटना गए।बहरहाल, शाहरुख ने उम्मीद जताई है कि वे जल्दी ही पटना जाएंगे। पटना के प्रति अचानक शाहरुख की हमदर्दी समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा।
पटना और दूसरे कथित छोटे शहर अब फिल्मों के प्रचार रोडमैप में आ गए हैं। इसकी शुरुआत बहुत पहले महेश भट्ट ने की थी। महेश भट्ट अपनी फिल्मों की टीम के साथ छोटे-छोटे शहरों में घूमते रहे हैं। उन्होंने तमन्ना की टीम के साथ पटना की यात्रा की थी। उसके बाद दैनिक जागरण की पहल पर मनोज बाजपेयी प्रचार के लिए अपनी फिल्म शूल लेकर कानपुर गए थे। छोटे शहरों को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जोड़ने की कल्पना और योजना में इन पंक्तियों के लेखक की भी भूमिका रही है। शुरुआती सालों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अनेक कलाकार अपनी फिल्मों के साथ लखनऊ और कानपुर जाते रहे हैं, जिनमें रितिक रोशन, अभिषेक बच्चन, विवेक ओबेराय, ऐश्वर्या राय बच्चन, माधुरी दीक्षित, अनिल कपूर, सूरज बड़जात्या, बोनी कपूर आदि नाम अभी याद आ रहे हैं। वहीं से मीडिया टाइअप और मीडिया पार्टनरशिप का कॉन्सेप्ट भी उभरा। यह कॉन्सेप्ट अब मीडिया की बड़ी प्रापर्टी बन चुका है।
दरअसल.. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हमेशा से समीप दृष्टि की शिकार रही है। पहले फिल्मों की रिलीज के समय निर्माताओं की कोशिश रहती थी कि स्टारों के घर के आसपास और जुहू बीच पर अवश्य होर्डिग लग जाए। इससे स्टार के अहं की तुष्टि होती थी। आज भी कमोबेश यही हालत है, मुंबई में लगी होर्डिग और प्रिंट प्रचार का तुरंत असर फोन के रूप में दिखता है। स्टार के परिचित चापलूसी और बाजे दफा सच्ची खुशी में स्टार को बधाई देते हैं तो रिलीज के पहले फिल्म से स्टार का मनोबल बढ़ता है। फिल्म से जुड़े तकनीशियन और बाकी कलाकार भी ऐसे प्रचार से संतुष्ट होते हैं। जाहिर सी बात है कि उनकी नजरों से दूर हो रहा प्रचार उन्हें दिखता नहीं है तो उन्हें उसके प्रभाव का एहसास भी नहीं होता। उनके लिए मुंबई में बोरीवली के आगे दुनिया खत्म हो जाती है।
इधर फिल्मों के कंटेंट के साथ बिजनेस में भी उत्तर भारत का दबदबा बढ़ा है। पिछले कुछ सालों में 100 करोड़ के क्लब में पहुंची फिल्मों के कारोबार के आंकड़े उठाकर देखें तो पता चलेगा कि उन सभी फिल्मों का पचास-साठ प्रतिशत बिजनेस कथित छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटरों से आया है। फिल्मों के बिजनेस में इन शहरों के दर्शकों की भूमिका बढ़ती जा रही है। यकीन करें यदि उत्तर भारत से बिजनेस का यही प्रवाह बना रहा तो हिंदी फिल्मों के विषय, स्टार और अन्य सौंदर्यानुभूतियों के लिए उत्तर भारत के दर्शकों की रुचि का खयाल बढ़ जाएगा। यह होना ही है। इसकी शुरुआत हो चुकी है। उत्तर भारत के इसी बढ़ते असर को देखते हुए सलमान खान कानपुर, अमिताभ बच्चन पटना और शाहरुख खान नागपुर जा रहे हैं। उन्हें इन इलाकों में बाजार दिख रहा है। इन इलाकों के दर्शकों को चाहिए कि वे अपनी जेबों में मुज्ञि्यां भींच लें और सोच-समझकर ही फिल्मों पर पैसे खर्च करें। जिन फिल्मों में उनकी इच्छाएं पूरी हों, उन फिल्मों की सफलता से यह ट्रेंड बढ़ेगा।
बाजार की इसी खोज का एक पहलू टॉम क्रूज का भारत आना है। क्यों अचानक भारत के प्रति उनका प्रेम उमड़ आया? दरअसल, हॉलीवुड की फिल्मों के बिजनेस के फैलाव के लिए भारत और चीन बड़े बाजार के रूप में उभरे हैं। चीन ने अपने देश में हर साल केवल 20 विदेशी फिल्मों के आयात की अनुमति दे रखी है। भारत में अभी ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। पिछले एक दशक से हॉलीवुड की फिल्में भारतीय बाजार पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं। ये फिल्में हिंदी के साथ-साथ तमिल, तेलुगू, बांग्ला और भोजपुरी तक में डब हो रही हैं। कोशिश है कि हर भाषा के दर्शक को उसकी भाषा में मनोरंजन मिले ताकि वह मुज्ञ्ी खोल कर पैसे खर्च करें।
अब यह दर्शकों को फैसला करना है कि वे प्रचार के बहकावे में आकर अपने पैसे की फिजूलखर्ची करते हैं या स्टार, निर्माता-निर्देशकों को अपनी संवेदना और आकंक्षा की फिल्में बनाने के लिए मजबूर करते हैं। दर्शकों के स्वीकार और बहिष्कार से यह समझ में आएगा। आखिरकार दर्शक ही मनोरंजन के साम्राज्य के राजा हैं।
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