देव आनंद :मौत ने तोड़ दी एक हरी टहनी
किताबों,पत्रिकाओं,फिल्मों और विचारों से भरे दफ्तर के कमरे में बिना नागा हर दिन देव आनंद आते थे। अपना फोन खुद उठाना और खास अंदाज में हलो के साथ स्वागत करना ़ ़ ़मूड न हो तो कह देते थे देव साहब अभी नहीं हैं। बाद में फोन कर लें। अगर आप उनकी आवाज पहचानते हों तो उनके इस इंकार से नाराज नहीं हो सकते थे,क्योंकि वे जब बातें करते थे तो बेहिचक लंबी बातें करते थे।
पिछले कुछ सालों से उन्होंने मिलना-जुलना कम कर दिया था। अपनी फिल्मों की रिलीज के समय वे सभी को बुलाते थे। पत्रकारों को वे नाम से याद रखते थे और उनके संबोधन में एक आत्मीयता रहती थी। बातचीत के दरम्यान वे कई दफा हथेली थाम लेते थे। उनकी पतली जीर्ण होती उंगलियों और नर्म हथेली में गर्मजोशी रहती थी। वे अपनी सक्रियता और संलग्नता की ऊर्जा से प्रभावित करते थे। इस उम्र में भी उनमें एक जादुई सम्मोहन था।
देव आनंद ने अपने बड़े भाई चेतन आनंद से प्रेरित होकर फिल्मों में कदम रखा। आरंभ में उनका संपर्क इप्टा के सक्रिय रंगकर्मियों से रहा। नवकेतन की पहली ही फिल्म अफसर की असफलता से उन्हें हिंदी फिल्मों में मनोरंजन की महत्ता को समझ लिया। बाद में बाजी की सफलता ने उनके विश्वास को पक्का कर दिया। उन्होंने नवकेतन के बैनर तले मनोरंजक फिल्मों का निर्माण किया। अपने समकालीन राज कपूर और दिलीप कुमार से अलग उन्होंने शहरी युवक की ज्यादा भूमिकाएं निभाई। ऐसा शहरी युवक जो समाज के स्याह हाशिए पर रहता है और अपने सरवाइवल के लिए गैरकानूनी काम करने से भी नहीं हिचकता।
आज के स्याह और ग्रे चरित्रों से भिन्न देव आनंद की फिल्मों के नायकों का एक सामाजिक आधार और लॉजिक रहता था। पहनावे,बोलचाल और अंदाज में उन्हें आजादी के बाद शहरों में तेजी से सपनों के साथ बड़े हो रहे युवकों के प्रतिनिधि के तौर पर देखा जा सकता है। उनकी लोकप्रियता का अनुमान आज के पाठक और दर्शकनहीं लगा सकते। वैसी लोकप्रियता के पासंग में केवल राजेश खन्ना और रितिक रोशन पहुंच पाए। श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर में देव आनंद के व्यक्तित्व का ऐसा जादू था कि उनके बाहर निकलने और काले कपड़े पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में किसी जमाने में पॉपुलर रह रात कपूर,दिलीप कुमार और देव आनंद की त्रयी में सबसे लंबी और सक्रिय पारी देव आनंद की ही रही। बतौर एक्टर उन्होंने 114 फिल्मों में काम किया। उन्होंने 31 फिल्मों का निर्माण् किया और 19 फिल्मों के स्वयं निर्देशक रहे। उन्होंने अनेक प्रतिभाओं को पहला मौका दिया और फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाने के अवसर दिए। कभी किसी से बदले में न कुछ मांगा और न लिया। आखिरी दिनों में मशहूर हस्तियां उनकी फिल्मों का हिस्सा बनने से किनारा करने गी थीं तो उनकी मायूसी झलक जाती थी,लेकिन उन्होंने कभी किसी की शिकायत नहीं की और न ही अपनी अपेक्षाओं को जाहिर होने दिया। सुरैया से शादी न कर पाने की कसक ताजिंदगी रही। उन्होंने अभिनेत्रियों से अपने प्रेम और भाव को नहीं छिपाया। अपनी आत्मकथा में जीवन के सभी प्रसंगों को उन्होंने विस्तार से लिखा।
ग्लैमर की इस दुनिया में रहने के बावजूद उनका जीवन एकाकी था। कहना मुश्किल है कि उन्होंन साथ छोड़ा या उनक ा हमसफर रहे लोगों ने खुद राह बदल ली,लेकिन सच है कि वे अकेले हो गए थे। वे कहते थे,मैं एकान्त में रहना चाहता हूं। मैं काम करते रहना चाहता हूं।फालतू बातों के लिए वक्त नहीं है मेरे पास। मैं इसे ठीक से नहीं बता सकता। यही मरा स्वभाव है। शायद इसी कारण मैं देव आनंद हूं। फिल्में उनके साथ रहीं और वे फिल्मों में डूबे रहे। अंतिम फिल्म चार्ज शीट की रिलीज के समय उन्होंने कहा था कि मैं चुप नहीं बैठूंगा। मैं एक म्यूजिकल फिल्म बनाना चाहता हूं। साथ ही हरे कृष्णा हरे राम को आज के युवकों के लिए नए रूप में पेश करना चाहता हूं। रोहन सिप्पी की फिल्म दम मरो दम में अपनी फिल्म के गाने के इस्तेमाल से वे दुखी हुए थे। उनका मानना था कि पुरानी फिल्मों और गानों के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।
ऐसा लग रहा है कि सदाबहार पेड़ की हरी टहनी किसी ने अचानक तोड़ दी है। इस टहनी के सारे पत्ते हरे हैं और फूल खिले हैं। 88 की उम्र में भी कुछ नया करने के लिए बेताब देव आनंद का दिल हमेशा जवान और हरा रहा। देव आनंद ने अपने ऊपर उम्र की थकान और बीमारी को कभी हावी नहीं होने दिया। उनकी किसी लंबी या गंभीर बीमारी की कभी कोई खबर नहीं आई। पिछली रात नींद में ही उन्होंने हमें अलविदा कह दिया।
उनकी इेमज और बेफिक्र व्यक्तित्व के संबंध में एक पुराने इंटरव्यू के प्रासंगिक अंश ़ ़ ़
-आपका अलहदा बेफिक्र व्यक्तित्व कैसे बना?
यह मैंने सोचा नहंी था। फिल्मों और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं से हमारा व्यक्तित्व बनता है। जिद्दी,बाजी और टैक्सी ड्रायवर से शहरी और बेफ्रिक इमेज बनी। दर्शकों को इा रूप में मैं अच्छा लगा तो मैंने और मेरे निर्देशकों ने उसी इमेज के अलग-अलग शेड्स फिल्मों में रखे। मेरी खास इमेज विकसित हुई।
जिद्दी से आपको सफलता और इमेज दोनों मिली। आ ने शहरी और थोड़े निगेटिव किरदार निभाए। आश्चर्य है कि तब भी लोगों ने आपको पसंद किया?
सही बात है कि जिद्दी से सफलता और पहचान दोनेां मिली। बांबे टाकीज की वह फिल्म थी। अशोक कुमार ने वह फिल्म दी थी। जिद्छी के बाद आई बाजी में मेरे लिए रोल लिखा गया। बलराज याहनी ने बाजी लिखी थी। बाजी से मिली इमेज ही आगे बढ़ती गई।टैक्सी ड्रायवर,काला पानी,काला बाजार में भी निगेटिव किरदार थे। जाल में भी गुरूदत्त ने निगेटिव किरदार दिया। आप देखें की गाइड का किरदार भी निगेटिव है। उस समय दूसरे की बीवी के साथ रहना साहसी विषय था।
आप के चरित्र समाज के अंधेरे इलाके से आते थे,लेकिन दिल से वे अच्छे होते थे। यह कोशिश होती थी कि फिल्म के अंत में उनका दिल बदल जाए।
लोग उन चरित्रों से खुद को जोंड़ कर देखते थे। मुझे लगता है कि मैं शहर के स्माट्र और चालाक युवक का प्रतिनिधित्व कर रहा था,जो अपने सरवाइवल के लिए छोटे-मोटे गैरकानूनी काम भी कर लेता है। इसके बावजूद वह दिल का अच्छा और नेक है। यह फिल्म की स्क्रिप्ट पर निर्भर करता था कि उसे कैसे और क्या रूप देना है। यह कहना गलत होगा कि हमें दर्शकों की रुचि मालूम थी। दर्शकों की रुचि मालूम हो तो सारे लोग हिट ही बना दें। हम लोग तो आजमाते रहते थे। कोशिश यह रहती थी कि वे किरदार दर्शकों को अपने करीब के लगें।
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