लौटा हूं यमुना नगर फिल्‍म फेस्टिवल से

-अजय ब्रह्मात्‍मज

यमुनानगर में डीएवी ग‌र्ल्स कॉलेज है। इस कॉलेज में यमुनानगर के अलावा आसपास के शहरों और दूर-दराज के प्रांतों से लड़कियां पढ़ने आती हैं। करीब चार हजार से अधिक छात्राओं का यह कॉलेज पढ़ाई-लिखाई की आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। इस ग‌र्ल्स कॉलेज की एक और विशेषता है। यहां पिछले चार सालों से इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हो रहा है। कॉलेज की प्रिंसिपल सुषमा आर्या ने छात्र-छात्रओं में सिने संस्कार डालने का सुंदर प्रयास किया है। उनके इस महत्वाकांक्षी योजना में अजीत राय का सहयोग हासिल है।

सीमित संसाधनों और संपर्को से अजीत राय अपने प्रिय मित्रों और चंद फिल्मकारों की मदद से इसे इंटरनेशनल रंग देने की कोशिश में लगे हैं। डीवीडी के माध्यम से देश-विदेश की फिल्में दिखाई जाती हैं। संबंधित फिल्मकारों से सवाल-जवाब किए जाते हैं। फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही फिल्म एप्रीसिएशन का भी एक कोर्स होता है। निश्चित ही इन सभी गतिविधियों से फेस्टिवल और फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स में शामिल छात्र-छात्राओं को फायदा होता है। उन्हें बेहतरीन फिल्में देखने को मौका मिलता है। साथ ही उत्कृष्ट सिनेमा की उनकी समझ बढ़ती है।

पिछले हफ्ते मैं यमुनानगर में था। पांच सौ छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए मैं उनकी आंखों और चेहरों की चमक देख रहा था। अपने संबोधन के बाद मैंने उनसे पूछा कि क्या उनमें से कोई फिल्मकार भी बनना चाहता है? तकरीबन 25-30 छात्रों ने हाथ उठाया। औपचारिक संबोधन के बाद करीब दर्जन भर छात्रों ने मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में काम मिलने की संभावनाओं के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। देश के हर कोने से उभर रहे युवा फिल्मकारों के मन में मुंबई आने और यहां नाम कमाने की आकांक्षा है। मैं इस आकांक्षा के पक्ष में नहीं हूं। मुझे लगता है कि अपने इलाके में रहते हुए भी सीमित संसाधनों के साथ फिल्में बनाई जा सकती हैं। हमें वितरण की नई प्रणाली विकसित करनी होगी। नए वितरक तैयार करने होंगे और अपने-अपने इलाकों के प्रदर्शकों को तैयार करना होगा। स्थानीय टैलेंट का स्थानीय उपयोग हो।

बहरहाल, यमुनानगर जैसे शहरों में आयोजित फिल्म फेस्टिवल अपने उद्देश्य और ध्येय में स्पष्ट नहीं हैं। फेस्टिवल के आयोजकों को अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी। अगर नेटवर्क तैयार करना और निजी लाभ के लिए फेस्टिवल का इस्तेमाल करना है तो सारा प्रयास निरर्थक साबित होगा। फेस्टिवल का उद्देश्य और ध्येय तय होगा तो यह संपर्को और मित्रों की चौहद्दी में निकलेगा। इसमें अन्य फिल्मकारों और सिनेप्रेमियों का जुड़ाव होगा। यह अभियान आंदोलन बनेगा और धीरे-धीरे उस बंजर जमीन से नए फिल्मकार आते दिखाई पड़ेंगे। किसी भी फेस्टिवल के लिए चार साल के आयोजन कम नहीं होते। इस बार मोहल्ला लाइव के सहयोग से मनोज बाजपेयी के साथ की गई लंबी बातचीत पे्ररक और अनुकरणीय रही। मोहल्ला लाइव के सहयोग से ऐसे और भी आयोजन हों।

देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और अन्य संस्थाओं के सहयोग से छोटे-छोटे फेस्टिवल आयोजित होने चाहिए। उन्हें सरकारी समर्थन न मिले तो भी स्थानीय सहयोग से इसे संभव किया जा सकता है। शैक्षणिक उद्देश्य से आयोजित ऐसे फेस्टिवल में फिल्मों के डीवीडी प्रदर्शन में कानूनी अड़चनें भी नहीं आतीं। बेहतर होगा कि ऐसे फिल्म फेस्टिवल के नाम से इंटरनेशनल शब्द हटा दिए जाएं। सिर्फ विदेशी फिल्में दिखाने या एक-दो फिल्मकारों को बुलाने से कोई फेस्टिवल इंटरनेशनल नहीं हो जाता। इसे हरियाणा फिल्म फेस्टिवल भी कहें तो उद्देश्य और प्रभाव कम नहीं होगा। सबसे जरूरी यह समझना है कि फेस्टिवल क्या हासिल करना चाहता है और क्या वह इसके काबिल है?

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को