फिल्म समीक्षा : जो डूबा सो पार
किशु का अवयस्क प्रेम वास्तव में एक आकर्षण है। वह सपना का सामीप्य चाहता है। इसके लिए वह पिता की डांट और सपना के चाचा के गुंडों के हाथों पिटाई खाता है। स्मार्ट किशु फिर भी हिम्मत नहीं हारता। वह अपने वाकचातुर्य से सपना के करीब आता है। अपने प्रेम का इजहार करने के दिन ही उसे पता चलता है कि सपना का एक अमेरिकी ब्वॉय फ्रेंड है। कहानी टर्न लेती है। सपना का अपहरण हो जाता है। किशु अपने दोस्तों के साथ जान पर खेल कर सपना की खोज करता है। इस प्रक्रिया में पुलिस और किडनैपर के रिश्ते बेनकाब होते हैं।
प्रवीण कुमार ने परिवेश अलग चुना है। वे जिसे बिहार बताते हैं, वह हरगिज बिहार नहीं लगता। मधुबनी पेंटिंग्स पर रिसर्च कर रही सपना जिस गांव में पहुंचती है, वह मिथिला का गांव नहीं है। और फिर मिथिला के मधुबनी पेंटिंग्स के इलाकों को खतरनाक बताने की पुलिस अधिकारी की उक्ति अनुचित है। वास्तविकता का आभास देती इस फिल्म में ऐसी लापरवाहियां खटकती हैं। निस्संदेह प्रवीण कुमार हिंदी फिल्मों के दर्शकों को एक नए परिवेश में ले जाते हैं, लेकिन वह अलग होने के बावजूद सही तरीके से स्थापित और परिभाषित नहीं हो पाता। प्रवीण कुमार ने चरित्र गढ़े हैं, लेकिन उन्हें समुचित लोकेशन में नहीं रख पाए हैं। फिल्म इसी घालमेल में कमजोर पड़ जाती है।
आनंद तिवारी का अभिनय, संवादों में देसी लक्षणा-व्यंजना का पुट और सहयोगी चरित्रों में विनय पाठक और पितोबास उल्लेखनीय हैं। जो डूबा सो पार की सीमाएं बजट, प्रोडक्शन और अन्य क्षेत्रों में नजर आती हैं।
** दो स्टार
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