बदलाव का नया एटीट्यूड है यह
यह लेख इंडिया टुडे के 'बॉलीवुड का यंगिस्तान' 19 अक्टूबर 2011 में प्रकाशित हुआ है।
-अजय ब्रह्मात्मज
दुनिया की तमाम भाषाओं की फिल्मों की तरह हिंदी सिनेमा में भी दस-बारह सालों में बदलाव की लहर चलती है। यह लहर कभी बाहरी रूप बदल देती है तो कभी उसकी हिलोड़ में सिनेमा में आंतरिक बदलाव भी आता है। पिछले एक दशक में हिंदी सिनेमा का आंतरिक और बाह्य बदलाव स्पष्ट दिखने लगा है, लेकिन हमेशा की तरह हमारे आलसी विश्लेषक इसे कोई नाम नहीं दे पाए हैं। स्वयं युवा फिल्मकार अपनी विशेषताओं और पहचान की परिभाषा नहीं गढ़ पा रहे हैं। सभी अपने ढंग से कुछ नया गढ़ रहे हैं।
राम गोपाल वर्मा की कोशिशों और फिल्मों को हम इस बदलाव का प्रस्थान मान सकते हैं। राम गोपाल वर्मा ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ढांचे,खांचे और सांचे को तोड़ा। दक्षिण से अाए इस प्रतिभाशाली निर्देशक ने हिंदी सिनेमा के लैरेटिव और स्टार स्ट्रक्चर को झकझोर दिया। उनकी फिल्मों और कोशिशों ने परवर्ती युवा फिल्मकारों को अपनी पहचान बनाने की प्रेरणा और ताकत दी। बदलाव के प्रतिनिधि बने आज के अधिकांश युवा फिल्मकार,अभिनेता और तकनीशियन किसी न किसी रूप में राम गोपाल वर्मा से जुड़े या प्रेरित रहे। यह दीगर तथ्य है कि राम गोपाल वर्मा स्वयं बदलाव के अलाव को आग बनाकर उसमें स्वाहा होने के करीब पहुंच चुके हैं। उनके अलावा चंद युवा फिल्मकारों को अपने अंदाज में महेश भट्ट का भी स्पर्श मिला है।
अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, इम्तियाज अली, श्रीराम राघवन, अनुराग बसु, विक्रमादित्य मोटवाणे, सुभाष कपूर, अभिषेक चौबे, अभिषेक शर्मा, मनीष तिवारी, निशिकांत कामत, संजय झा, प्रवेश भारद्वाज, अमोल गुप्ते, शिवम नायर, नीरज पांडे, राजकुमार गुप्ता, राज कुमार हिरानी,जयदीप साहनी,संजय चौहान आदि दर्जनों लेखकों और फिल्मकारों की लंबी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है। इन सभी फिल्मकारों में एक खास किस्म का एटीट्यूड है, जो उन्हें अपने पूर्वजों और ‘बॉलीवुड’ के कथित युवा फिल्मकारों से अलग करता है। 21वीं सदी के पहले दशक में आए ये सभी फिल्मकार देश के विभिन्न हिस्सों से अपनी कथाभूमि और सोच लेकर फिल्मों में आए हैं। उन्हें विरासत में अवसर नहीं मिले हैं। फिल्म इंडस्ट्री तक पहुंचने में सभी को अपमान, तिरस्कार और बहिष्कार के पृथक अनुभवों से गुजरना पड़ा है। ये सभी हिंदी सिनेमा की विशेषताओं को अपनाते हुए कुछ नया, अलग और समकालीन फिल्मों की कोशिश में लगे हैं।
युवा पीढ़ी के ज्यादातर फिल्मकारों की कथाभूमि वास्तविक और विश्वसनीय है। वे अपने करीब के परिचित स्थान और परिवेश को फिल्मों में ला रहे हैं। नई फिल्मों के समय, काल और स्थान को हम पहचान सकते हैं। अब पहले की तरह वायवीय या किसी समय किसी स्थान का काल्पनिक चरित्र हमारे सामने नहीं होता। इस बदलाव ने फिल्मों के ‘लार्जर दैन लाइफ’ स्वरूप को हिला दिया है।
युवा फिल्मकार अपनी फिल्मों में प्रेम और रोमांस की अपरिहार्यता से निकल चुके हैं। एक तो इन फिल्मों के प्रमुख चरित्रों पर प्रेम का दबाव नहीं है और दूसरे फिल्मों के कथानक का मुख्य स्वर रोमांस नहीं रह गया है। प्रेम और रोमांस की जकडऩ से निकलने के कारण चरित्रों के आपसी संबंधों का समीकरण बदल गया है। समकालीन फिल्मकारों में ‘आउट ऑफ बॉक्स’ थीम पर काम करने का साहस बढ़ा है।
समकालीन युवा फिल्मकारों की पहचान और उदाहरण के लिए ‘उड़ान’ काफी है। ‘उड़ान’ की निर्माण प्रक्रिया और मिली पहचान के विस्तार में जाने पर हम नई कोशिशों को अच्छी तरह समझ सकते हैं। ‘उड़ान’ निजी प्रयासों से नए विषय पर बनी एक ऐसी फिल्म थी, जिसे कारपोरेट हाउस का समर्थन मिला। ‘उड़ान’ एक ओर कान फिल्म फेस्टिवल और दूसरी ओर देश के सिनेमाघरों में आम फिल्मों की तरह रिलीज होकर दर्शकों तक भी पहुंची। ‘उड़ान’ संकेत है कि भविष्य का... बशर्ते हमारे फिल्मकार हिंदी फिल्मों के भ्रष्ट आचरण और लोभ के दुष्चक्र से बचे रह सकें। दिक्कत यह है कि सीमित पहचान मिलने के साथ ही बड़ी कामयाबी की लालसा में अधिकांश युवा फिल्मकार दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
युवा फिल्मकारों की दुविधा और चुनौतियां बढ़ी हैं। पहली फिल्म के लिए निर्माता जुआने के साथ उनका संघर्ष खत्म नहीं होता। उन्हें हर नयी फिल्म के साथ अपनी काबिलियत की परीक्षा देनी होती है। परिवर्त्तन के हिमायती फिल्मकार अड़चनों और मुश्किलों के बावजूद नवीनता के नैरंतर्य के संवाहक हैं।
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