इंडिपेंडेट सिनेमा -अनुराग कश्यप
इन दिनों इंडिपेंडेट सिनेमा की काफी बातें चल रही हैं। क्या है स्वतंत्र सिनेमा की वास्तविक स्थिति? बता रहे हैं अनुराग कश्यप..
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के व्यापक परिदृश्य पर नजर डालें तो इंडिपेंडेट फिल्ममेकिंग की स्थिति लचर ही है। फिल्म बनने में दिक्कत नहीं है। फिल्में बन रही हैं, लेकिन उनके प्रदर्शन और वितरण की बड़ी समस्या है। आप पिछले दो सालों की फिल्मों की रिलीज पर गौर करें तो पाएंगे कि जब बड़ी और कामर्शियल फिल्में नहीं होती हैं, तभी एक साथ दस इंडिपेंडेट फिल्में रिलीज हो जाती हैं। या फिर जब ऐसा माहौल हो कि बड़ी फिल्में किसी वजह से नहीं आ रही हों तो इकट्ठे सारी स्वतंत्र फिल्में आ जाती हैं। नतीजा यह होता है कि इन फिल्मों को कोई देख नहीं पाता है। दर्शक नहीं मिलते।
आप इतना मान लें कि इंडिपेंडेट फिल्ममेकिंग को मजबूत होना है तो उसे तथाकथित 'बॉलीवुड' के ढांचे से बाहर निकलना होगा। आप आइडिया के तौर पर घिसी-पिटी फिल्में बना रहे हैं तो हिंदी फिल्मों के ट्रेडिशन से कहां अलग हो पाए? सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री के पैसे नहीं लगने या स्टार के नहीं होने से फिल्म इंडिपेंडेट नहीं हो जाती। बॉलीवुड के बर्डन से भी इंडिपेंडेट होना होगा।
देश में इंडिपेंडेट फिल्में बन रही हैं। उत्साही फिल्मकार अपनी मेहनत और लगन से यह काम कर रहे हैं। उन्हें सही एवेन्यू और रेवेन्यू नहीं मिल पा रहा है। अपनी जानकारी के आधार पर बता दूं कि मोटे तौर पर हर साल डेढ़ सौ ऐसी फिल्में बनती हैं, जो रिलीज नहीं हो पाती हैं। आई एम कलाम को ही देखें। यह कब बनी थी और कब रिलीज हुई? डेढ़-दो साल तो लग ही गए। ऐसी ढेर सारी फिल्में हैं। मैं आशावान व्यक्ति हूं। नए उत्साही फिल्ममेकर अपना रास्ता खुद ही खोज रहे हैं। उन्हें माध्यम और माहौल की जानकारी है। वे मुंबई भी नहीं आते। वे पिक्चर बना रहे हैं। इंटरनेट पर अपलोड कर रहे हैं। वे जीरो लागत पर फिल्में बनाते हैं। वे मिल-जुल कर ऐसी कोशिशें कर रहे हैं। आप देखिएगा कि उनके लिए कोई प्लेटफार्म आ खड़ा होगा।
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