केरल के ममूटी
तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके और बाबा साहेब अंबेडकर की भूमिका निभा चुके ममूटी की तस्वीर दिखाकर भी उनका नाम पूछा जाए, तो उत्तर भारत में बहुत कम फिल्मप्रेमी उन्हें पहचान पाएंगे। हिंदी सिनेमा के दर्शक अपने स्टारों की दुनिया से बाहर नहीं निकल पाते। पत्र-पत्रिकाओं में भी दक्षिण भारत के कन्नड़, तमिल, मलयाली या तेलुगू स्टारों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम हॉलीवुड की फिल्मों और स्टारों से खुश होते हैं। यह विडंबना है। ममूटी ने दक्षिण के दूसरे पॉपुलर स्टारों की तरह हिंदी में ज्यादा फिल्में नहीं की हैं। हिंदी फिल्मों के निर्देशक उनके लिए भूमिकाएं नहीं चुन पाते। मैंने तो यह भी सुना है कि हिंदी के कुछ पॉपुलर स्टार दक्षिण के प्रतिभाशाली स्टारों के साथ काम करने से घबराते हैं। उन्हें डर रहता है कि उनकी पोल प˜ी खुल जाएगी। उल्लेखनीय है कि दक्षिण के स्टारों के पास अपनी भाषा में ही इतना काम रहता है कि वे हिंदी की तरफ देखते भी नहीं। प्रतिष्ठा, फिल्में और पैसे हर लिहाज से वे संपन्न हैं तो भला क्यों मुंबई आकर प्रतियोगिता में खड़े हों?
बहरहाल, पिछले 7 सितंबर को ममूटी का जन्मदिन था। अब वे साठ के हो गए हैं। इस उम्र में भी उनकी मांग और फिल्म सक्रियता कम नहीं हुई है। पिछले दिनों आई उनकी फिल्म बंबई मार्च 12 ने सभी को चौंका दिया था। तीन राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ उन्होंने केरल सरकार के सात पुरस्कार और फिल्मफेयर के 11 पुरस्कार हासिल किए हैं। इस प्रतिष्ठा के बावजूद उनकी विनम्रता प्रभावित करती है। मुझे उनसे हिंदी फिल्म शफक की शूटिंग के दौरान मिलने का मौका मिला। अफसोस है कि रवीना टंडन के साथ बन रही उनकी यह फिल्म अधूरी रह गई। उन्होंने हिंदी फिल्मों में धरतीपुत्र में काम किया था। उनकी एक-दो और हिंदी फिल्मों का जिक्र होता है, लेकिन वे नामालूम सी हैं।
केरल के वायकोम इलाके में चेंपू गांव में किसान परिवार में पैदा हुए ममूटी की आरंभिक शिक्षा कोच्चि और एर्नाकुलम में हुई। एर्नाकुलम से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दो साल इस पेशे में दिल लगाया, लेकिन वे जम नहीं पाए। दरअसल, कॉलेज के दिनों में ही उन्हें फिल्मों का शौक हो गया था। इस शौक के तहत वे फिल्मों में काम भी करने लगे थे। 1971 में बनी फिल्म अनभावंगल पालिचकल और 1973 में बनी फिल्म कालचक्रम में वे ऐसी ही भूमिकाओं में नजर आए। उन्होंने अपना नाम भी बदला, लेकिन 1979 में बनी फिल्म देवलोक में वे फिर से अपने सही नाम के साथ आए। इस फिल्म का निर्देशन एमटी वासुदेवन नायर ने किया था। लेकिन ममूटी की यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई थी। उनकी पहली फिल्म के जी जार्ज निर्देशित मेला मानी जा सकती है। इसके पहले की सारी फिल्मों में वे अपनी प्रतिभा के बावजूद पहचान में नहीं आ सके थे। फिर बीच का एक ऐसा दौर आया जब उन्होंने चंद सालों में ही 150 फिल्मों में काम किया। इनमें से 1986 में ही उनकी 35 फिल्में आई थीं। हिंदी फिल्मों के स्टार एक साल में इतनी फिल्मों की कल्पना ही नहीं कर सकते। ममूटी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबसूरती है कि मलयाली के सुपरस्टार होने के बावजूद उन्होंने वहां की कला सिनेमा को भी प्रश्रय दिया। अडूर गोपालकृष्णन समेत सभी संवेदनशील डायरेक्टरों के साथ काम किया। हिंदी फिल्म प्रेमियों ने शायद मणिरत्नम की दलपति और राजीव मेनन की कोदुकोंदेन कोदूकोंदेन का नाम सुना होगा। ममूटी का महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान बाबा साहेब अंबेडकर है। 1999 में आई इस फिल्म में उन्होंने अंबेडकर की शीर्षक भूमिका निभाई। प्रोस्थेटिक मेकअप से उन्होंने अंबेडकर का रूप ग्रहण किया था। फिल्म में वे अपनी मुद्राओं और भंगिमाओं से जाहिर करते हैं कि वे अंबेडकर ही हैं। चूंकि हम अंबेडकर की चलती-फिरती और स्थिर छवियों से बखूबी परिचित हैं, इसलिए यह साम्यता चकित करती है। काश! हिंदी का कोई फिल्मकार मलयाली के इस प्रतिभाशाली अभिनेता के साथ हिंदी में कोई फिल्म बनाता।
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