जाना प्रोडक्शन डिजाइनर समीर चंदा का
हिंदी सिनेमा में पर्दे के पीछे सक्रिय व्यक्तियों में हम डायरेक्टर के अलावा म्यूजिक डायरेक्टर, गीतकार और कहानीकारों को जानते हैं। पिछले कुछ समय से ऐक्शन का जोर बढ़ा है, तो ऐक्शन डायरेक्टर के भी नाम आने लगे हैं। अफसोस की बात यह है कि आर्ट डायरेक्टर या प्रोडक्शन डिजाइनर की हम चर्चा कभी नहीं करते। उनके योगदान को रेखांकित ही नहीं किया जाता। फिल्म समीक्षाओं में भी उनके नामों का उल्लेख नहीं होता। सच्चाई यह है कि इन दिनों फिल्मों की लुक और फील तय करने में प्रोडक्शन डिजाइनर की बड़ी भूमिका होती है। वे फिल्म निर्माण का अहम हिस्सा होते हैं।
दो हफ्ते पहले सक्रिय प्रोडक्शन डिजाइनर समीर चंदा का देहांत हो गया। वे अभी केवल 54 साल के थे। निर्माता-निर्देशकों के प्रिय समीर को कभी किसी ने ऊंची आवाज में बोलते नहीं सुना। आप कैसी भी जिम्मेदारी सौंपें और कितना भी कम समय दें, समीर दा के पास हमेशा कोई न कोई समाधान रहता था। उनसे काम कराने वाले निर्देशक बताते हैं कि वे कम से कम पैसों में उपयोगी सेट तैयार करते थे। उनके सेट की यह विशेषता होती थी कि वे ओरिजिनल जैसी ही लगती थी। उनके देहांत के बाद मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल ने बताया कि समीर की फिल्मों का पुरस्कारों के लिए नामांकन तक नहीं हो पाता था। सभी को यही लगता रहा कि मेरी फिल्में वेलकम टू सज्जनपुर और वेलडन अब्बा की शूटिंग किसी गांव में हुई है। यहां तक कि फिल्म बोस में अफगानिस्तान और जर्मनी के दृश्य भी लोगों को वास्तविक लगे। समीर चंदा ने कभी पुरस्कारों के लिए लॉबिंग नहीं की। चंदा अपना काम ईमानदारी से करते रहे और अपने समूह के लोगों की तारीफ से ही खुश होते रहे।
कोलकाता से नितीश राय के साथ मुंबई पहुंचे समीर चंदा ने आरंभ में श्याम बेनेगल के धारावाहिक भारत एक खोज में काम किया। इस महान धारावाहिक के निर्माण के समय नितीश राय के दो सहयोगी थे समीर चंदा और नितिन देसाई। नितिन देसाई ने चाणक्य धारावाहिक से स्वतंत्र कार्य करना आरंभ किया। समीर चंदा ने कॉमर्शियल और आर्ट सिनेमा में भेद नहीं किया। वे दोनों तरह की फिल्मों में पूरे मनोयोग से काम करते रहे। उन्होंने सुभाष घई और श्याम बेनेगल दोनों की फिल्में कीं। उनके निर्देशकों की फेहरिस्त लंबी है। इसी प्रकार उनकी फिल्मों की सूची भी काफी लंबी है। ताज्जुब होता है कि वे कैसे अकेले इतना काम कर पाते थे। वे हमेशा मुस्कराते रहते थे। नए लोगों को काम देने और उनसे काम लेने में वे कतई नहीं हिचकते थे। उनके एक फोटोग्राफर मित्र रवि शेखर बताते हैं कि उनके पास कोई चित्रकार काम की तलाश में आता था, तो वे उसे सीधे समीर चंदा के पास भेज देते थे। समीर उनसे पूछते भी नहीं थे कि क्या किसी को भेजा था? वे उस चित्रकार की योग्यता और जरूरत के मुताबिक कुछ काम दे देते थे।
अभी हाल ही में शिरीष कुंदर की फिल्म जोकर की घटना है। इस फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइनर पहले कोई और थे। शूटिंग आरंभ होने के दस दिनों पहले वे अचानक गायब हो गए। शिरीष ने हताश होकर समीर चंदा को फोन किया। वे आए। उन्होंने परिस्थिति और जरूरत पर गौर किया। अपने स्वतंत्र हो चुके सहयोगियों को बुलाया और दस दिनों के अंदर पंजाब में शिरीष के लिए जोकर का सेट तैयार कर दिया। उनके इस मददगार स्वभाव की सभी कद्र करते थे। आज उनकी अनुपस्थिति उनके मित्र और निर्देशक महसूस कर रहे हैं। कई प्रोजेक्ट उनकी मौत से ठिठक गए हैं। समीर कहते थे कि भारतीय फिल्मों में आर्ट डायरेक्टर को बढ़ई से ज्यादा नहीं समझा जाता, इसलिए उन्होंने श्याम बेनेगल की सलाह पर खुद को प्रोडक्शन डिजाइनर कहना शुरू किया था। उनके मुताबिक प्रोडक्शन डिजाइनर क्रिएटिव आर्टिस्ट होता है, जो कहानी के मर्म को समझकर उसके परिवेश की दृश्यात्मक संरचना तैयार करता है। समीर की यह खूबी थी कि वे हर फिल्म की स्क्रिप्ट का ढंग से अध्ययन करते थे। उनकी राय में वास्तविकता को ढंग से समझने के बाद ही कोई वास्तविक सेट तैयार कर सकता है। वे हमेशा कहते थे कि एक अच्छा प्रोडक्शन डिजाइनर किसी भी स्थान को कहीं भी क्रिएट कर सकता है। बंगाल में न्यूयार्क बनाया जा सकता है वो राजस्थान में बर्फीली पहाडि़यां खड़ी की जा सकती हैं। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर एक नोदीर गल्पो का निर्देशन किया। यह बंगाली फिल्म अभी तक रिलीज नहीं हो पाई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके मित्र और सहयोगी इस फिल्म को दर्शकों तक ले जाने की व्यवस्था करेंगे।
Comments