फिल्म समीक्षा : आई एम कलाम
मां जानती है कि उसका बेटा छोटू तेज और चालाक है। कुछ भी देख-पढ़ कर सीख जाता है, लेकिन दो पैसे कमाने की मजबूरी में वह उसे भाटी के ढाबे पर छोड़ जाती है। छोटू तेज होने केसाथ ही बचपन की निर्भीकता का भी धनी है। उसकी एक ही इच्छा है कि किसी दिन वह भी यूनिफार्म पहनकर अपनी उम्र के बच्चों की तरह स्कूल जाए। उसकी इस इच्छा को राष्ट्रपति अबदुल कलाम आजाद के एक भाषण से बल मिलता है। राष्ट्रपति कलाम अपने जीवन के उदाहरण से बताते हैं कि लक्ष्य, शिक्षा, मेहनत और धैर्य से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। कर्म ही सब कुछ है। उस दिन से छोटू खुद को कलाम कहने लगता है। उसकी दोस्ती रजवाड़े केबालक रणविजय सिंह से होती है। दोनों एक-दूसरे से सीखते हैं और खुश रहते हैं। ढाबे में ही काम कर रहे लपटन को छोटू पसंद नहीं है। एक दिन छोटू पर चोरी का इल्जाम लगता है। मासूम छोटू की ईमानदारी पर कोई विश्वास नहीं करता। कहानी नाटकीय और एक अंश में फिल्मी मोड़ लेती है। अंत में हम उसे रणविजय सिंह के साथ स्कूल बस में देखते हैं।
थोड़ी देर के लिए यह दूर की कौड़ी लग सकती है कि होटल बने पैलेस में चाय और खाना पास के ढाबे से आता है। फिल्म में इसकी वजह बतायी गयी है। इस एक भेद को मान लें तो किरदारों की विश्वसनीयता फिल्म से जोड़ती है। भाटी, लपटन, लूसी, छोटू और राजा का परिवार ़ ़ ़ सभी एक-दूसरे से गुंथ जाते हैं। छोटू की जिद्द हमें अपने साथ कर लेती है और हम चाहने लगते हैं कि उसे भी पढ़ने का मौका मिलना चाहिए।
छोटू के रूप में हर्ष मयूर ने स्वाभाविक अभिनय किया है। हर्ष को इस साल ही सर्वोत्तम बाल कलाकार का नेशनल पुरस्कार मिल चुका है। दूसरे बालक के रूप में हसन साद का योगदान बराबरी का है। भाटी के रूप में गुलशन ग्रोवर अपनी अनियमित भूमिका में अच्छे लगते हैं। इसी प्रकार लूसी की भूमिका में फ्रांसीसी अभिनेत्री बिट्रिस ओड्रिक्स का चुनाव सही है। यह फिल्म अपने कथ्य और उद्देश्य में महत्वपूर्ण होने के साथ ही रोचक और सरस है। फिल्म की संवेदना हमें आह्लादित करती है।
रेटिंग- **** चार स्टार
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