फिल्म समीक्षा : गांधी टू हिटलर
हारे हिटलर, जीते गांधी
-अजय ब्रह्मात्मजअलग किस्म और विधा की फिल्म है गांधी टू हिटलर। ऐसी फिल्में हिंदी में तो नहीं बनी हैं। दो विचारों और व्यक्तित्वों की समानांतर कहानी गांधी टू हिटलर लेखक-निर्देशक की नई कोशिश है। वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने हिटलर और गांधी के विचारों को आमने-सामने रखकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दिखाने और बताने की कोशिश है कि गांधी श्रेष्ठ हैं। उनका विचार ही विजयी हुआ है।
अपने अतिम दिनों में हिटलर निहायत अकेले हो गए थे। उनके साथी एक-एक कर उन्हें छोड़ रहे थे और द्वितीय विश्व युद्ध में हर मोर्चे पर जर्मनी की पराजय हो रही थी। इसके बावजूद अपनी जिद्द में एकाकी हो रहे हिटलर ने नाजी विचारों नहीं छोड़ा। इस दौर में गांधी ने उन्हें दो पत्र लिखे। इन पत्रों में उन्होंने हिटलर के विचारों की समीक्षा के साथ यह सुझाव भी दिया कि वे युद्ध और हिंसा का मार्ग छोड़ें। इस फिल्म में गांधी के सिर्फ रेफरेंस आते हैं, जबकि हिटलर के जीवन को विस्तार से चित्रित किया गया है।
लेखक-निर्देशक ने उपलब्ध फुटेज और तथ्यों का फिल्म में सुंदर उपयोग किया है। इस फिल्म की खासियत हिटलर की भूमिका में रघुवीर यादव का होना है। रघुवीर यादव ने हिटलर की चारीत्रिक विशेषताओं को पकड़ा है और बहुत उम्दा तरीके से उसके किरदार को जीवंत किया है। हमें हिंदी बोलते हिटलर से कोई परेशानी नहीं होती। रघुवीर यादव हर लिहाज से प्रभावित करते हैं। इवा ब्राउन की संक्षिप्त भूमिका में नेहा धूपिया भी अच्छी लगी हैं।
लेखक-निर्देशक ने अपनी सोच को प्रभावशाली तरीके से पेश करने के लिए कुछ काल्पनिक चरित्रों का भी इस्तेमाल किया है। फिल्म में गीत-संगीत की अधिक संभावना नहीं थी, इसलिए गीतों का समावेश अनावश्यक लगता है। उनके फिल्मांकन में निर्देशक ने अधिक रुचि भी नहीं ली है। गांधी टू हिटलर अनूठा प्रयास है। फिल्म केकमजोर पक्ष भी हैं, गांधी से संबंधित दृश्यों के फिल्मांकन में सावधानी नहीं बरती गई है। चलते-फिरते तरीके से काम चला लिया गया है।
रेटिंग- *** तीन स्टार
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