मणि कौल का साक्षात्कार
सौजन्य-प्रकाश के रे
श्री मणि कौल का यह साक्षात्कार यूनेस्को कूरियर के जुलाई-अगस्त 1995 के सिनेमा के सौ साल के अवसर पर विशेषांक में पृष्ठ 36 -37 पर छ्पा था.
आप सिनेमा से कैसे जुड़े और यह लगाव किस तरह आगे बढ़ा?
सिनेमा से मेरा परिचय होने में कुछ देर लगी क्योंकि बचपन में मैं ठीक से देख नहीं पाता था. तेरह साल की उम्र में डॉक्टरों को मेरी आँखों की बीमारी का ईलाज समझ में आया. वही समय था जब दुनिया को मैंने पाया- जैसे बिजली की तारें, इन्हें मैं पहली दफ़ा देख सकता था. और फिर सिनेमा. जहाँ तक मुझे याद आता है जिस फ़िल्म ने मुझे सबसे पहले प्रभावित किया वह थी अमरीकी कॉस्टयूम ड्रामा - हेलेन ऑव ट्रॉय.
शुरू में मेरी इच्छा अभिनेता बनने की थी. स्वाभविक रूप से यह मेरे पिता को पसंद न था. कुछ समय बाद मैंने एक डॉक्यूमेंट्री देखी जिससे मुझे यह ज्ञान हुआ कि फ़िल्में बिना अभिनेताओं के भी बन सकती हैं. इसने मेरी आँखें खोल दी. मुझे अब भी याद है कि वह फ़िल्म कलकत्ता शहर के बारे में थी.
सौभाग्य से मेरे एक चाचा बंबई में फ़िल्म निर्देशक हुआ करते थे जो कि काफी जाने-माने थे. उनका नाम महेश कौल था. मैं उनसे मिला और उन्होंने मेरे पिता से निवेदन किया कि वे मुझे फ़िल्मों में जाने दें. उन्होंने यह भी सलाह दी कि मुझे पुणे के फ़िल्म स्कूल में भेज दिया जाये. मैंने वहाँ (पुणे में) तीन साल बिताया और अब भी मेरे पास वहाँ की ढेर सारी यादें हैं. ख़ासकर मुझे एक विलक्षण शिक्षक की याद है- ऋत्विक घटक, जो ख़ुद भी फ़िल्म निर्देशक थे. मैंने उनके मार्गदर्शन में पढ़ाई की और मेरे ख़्याल से मैं उनका सबसे प्रिय छात्र था. लेकिन मैं उन्हें धोखा दिया. जब मैंने रॉबर्ट ब्रेसों की पिकपॉकेट देखी तो उसने मेरा नज़रिया ही बदल दिया. उसके बाद तो बस मैं ब्रेसों में ही रम गया. एक अरसे बाद मैं उनसे पेरिस में मिला. वह दिन मेरे लिये स्वर्णिम था.
उन्हीं दिनों एक भारतीय फ़िल्म ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया. वह फ़िल्म अबरार अल्वी की साहिब, बीबी और गुलाम थी जो उन्होंने गुरुदत के साथ बनायी थी. मैंने इस फ़िल्म को करीब बीस बार देखा. जयपुर मेरे दोस्त का सिनेमाघर था. इस फ़िल्म में एक ज़मींदार परिवार की बरबादी बयान की गयी है. पूरे भारत में यह फ़िल्म बड़ी हिट हुई थी. मैंने कई अमरीकी फिल्में और दिग्गज भारतीय फ़िल्मकारों की फिल्में भी देखी.
मैंने फिल्में बनाने की शुरुआत डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों से की जो कमीशन की जाती थीं. 1968 में मैंने पहली फीचर फ़िल्म का काम शुरू किया. कई महीनों की हड़ताल के कारण इसे पूरा होने में दो साल लग गए. इसके बाद भी मुझे जब भी मौका मिला मैंने डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाई. अपनी फ़िल्मों में थियेटर, संगीत और भारतीय गीतों में अपनी रूचि का पूरा इस्तेमाल किया. अपने रुझानों को किनारे किये बिना मैंने दर्शकों से सम्बन्ध बनाने का भी मैं पूरा ध्यान रखा जो हम फ़िल्मकारों के लिये अपरिहार्य है.
भारत में टेलीविज़न पर आपकी क्या राय है?
इसकी शुरुआत तो 1960 के दशक के शुरू में हो गयी थी लेकिन 1982 के एशियाई खेलों का प्रसारण बड़ी घटना थी. इंदिरा गाँधी के दौर में टेलिविज़न को शिक्षा का माध्यम समझा जाता था. सबकुछ राज्य के अधीन था. ऐसा लम्बे अरसे तक रहा. हर हफ़्ते बस एक फ़िल्म दिखाई जाती थी. बाकी कार्यक्रम ज़्यादातर कृषि और उद्योग से जुड़े होते थे (कम्युनिस्ट देशों की तरह). कुछ कार्यक्रम संगीत, योग और विज्ञान के भी होते थे. इसका सिनेमा से किसी भी तरह की कोई प्रतियोगिता नहीं थी.
1984 में यह सब बदल गया. इसका पहला कारण था पाईरेट वीडियो का आना. कॉपीराईट की व्यवस्था के अभाव ने इसे खूब बढ़ावा दिया. ख़राब स्थितियों में बनायी गयीं नक़ली कापियों को दिखाने वाले वीडियो हॉल देश भर में खुल गए.
इसी समय टेलीविज़न भी बदला. इसने धारावाहिक बनाने शुरू कर दिए और इसमें निजी पूंजी का निवेश होने लगा. पाईरेट वीडियो के बाद यह दूसरा ख़तरा था. इससे सिनेमा को भारी झटका मिला. बड़ी संख्या में फ़िल्मों को नुकसान हुआ जो कि अब तक नहीं होता था.
आज आमतौर पर पच्चीस चैनल दिखाए जा रहे हैं और यह संख्या बढ़ती जा रही है. सी एन एन और एम टीवी जैसे अमरीकी चैनलों के साथ कई विदेशी चैनल भी उपलब्ध है. इससे भारतीय लडकियां अपने पारंपरिक वेश-भूषा छोड़ जींस और अन्य पश्चिमी परिधान वहान्ने लगी हैं.
सिनेमा और टेलिविज़न दोनों का दर्शक भी बदला है. अश्लीलता और हिंसा बाकी जगहों की तरह यहाँ भी बढी है. और ये निजी चैनल सब एक जैसे ही हैं. सब कमोबेश एक जैसे कार्यक्रम ही दिखाते हैं.
क्या अब पहले से कम फिल्में बन रही हैं?
नहीं. आश्चर्य है कि फ़िल्मों की संख्या पर कोई असर नहीं पड़ा है और फ़िल्म-निर्माण का भूगोल भी नहीं बदला है. कुल पच्चीस राज्यों में से चार राज्यों में आधे से अधिक फिल्में बनती हैं. सबसे अधिक फिल्में तमिलनाडु (तमिल) और तेलुगु में बनती हैं. हिंदी फ़िल्मों का स्थान तीसरा है. आंध्रप्रदेश भी एक बड़ा निर्माता है. इन जगहों में कोई भी एक फ़िल्म बनती है तो बाकी तीन भाषाओं में इनका तुरंत अनुवाद हो जाता है.
(अनुवादक: तेलुगु आंध्रप्रदेश की भाषा है. यहाँ श्री मणि कौल का मतलब कन्नड़ से हो सकता है. कर्नाटक फिल्मोद्योग भी समृद्ध है)
मुख्य धारा में गतिहीनता के साथ भारतीय भाषाओं में डब की गयी अमरीकी फ़िल्मों की आमद से सबसे बड़ा ख़तरा है. यह हमला शुरू हो चुका है. हमें समझ में नहीं आ रहा है कि हम इनका कैसे मुक़ाबला करें. हमने अपनी दीवार को मज़बूत किला समझ लिया था. लेकिन अपनी शक्तिशाली विशिष्टता के बावजूद भारत के सामने एक बड़ा ख़तरा है- वास्तविक भारतीय छवियों, शब्दों और सिनेमा के धीरे-धीरे खोते जाने का, पहचान को खो देने का.
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