अब वो डायलॉग कहाँ?

-सौम्‍या अपराजिता और रघुवेन्‍द्र सिंह

संवाद अदायगी का अनूठा अंदाज और उसका व्यापक प्रभाव हिंदी फिल्मों की विशेषता रही है, लेकिन वक्त के साथ इस खासियत पर जमने लगी हैं धूल की परतें

मेरे पास मां है.. लगभग एक वर्ष पूर्व ऑस्कर अवॉर्ड के मंच पर हिंदी फिल्मों का यह लोकप्रिय संवाद अपने पारंपरिक अंदाज में गूंजा था। सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार ग्रहण करने के बाद ए.आर. रहमान ने कहा, ''भारत में एक लोकप्रिय संवाद है- 'मेरे पास मां है।' हिंदी फिल्मों के इस संवाद के साथ मैं अपनी मां को यह अवॉर्ड समर्पित करता हूं।'' जी हाँ, विश्व सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित मंच पर पुरस्कार ग्रहण करने के बाद अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ए.आर. रहमान को अपने असंख्य गीतों की कोई पंक्ति नहीं, बल्कि दीवार फिल्म का लोकप्रिय संवाद ही सूझा।

गुम हो रहे हैं संवाद

इसके उलट विडंबना यह है कि अब कम शब्दों में प्रभावी ढंग से लिखे जाने वाले संवादों और उनकी अदायगी की विशिष्ट शैली को अस्वाभाविक माना जाने लगा है। नए रंग-ढंग के सिनेमा के पैरोकारों ने अपनी फिल्मों को स्वाभाविकता और वास्तविकता के रंग में घोलने के लिए प्रभावशाली संवाद के प्रयोग की परंपरा से किनारा करना शुरू कर दिया है।

वह सुनहरा दौर

हिंदी सिनेमा के शैशव काल से संवादों की महत्ता रही है। चरित्र और दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए प्रभावशाली संवादों का प्रयोग किया जाता रहा है। शोले की सफलता में उसके रोचक और प्रभावशाली संवादों की बड़ी भूमिका रही है। तेरा क्या होगा कालिया..कितने आदमी थे..सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा..जैसे संवादों की लोकप्रियता आज भी बरकरार है। जावेद अख्तर बताते हैं, ''लोग मेरे पास आते थे और कहते थे कि आपने कितने अच्छे डायलॉग लिखे हैं, कितने आदमी थे? तेरा क्या होगा कालिया? मैं मन ही मन सोचता कि इसमें क्या बड़ी बात है। ये तो कितनी सरल पंक्तियां हैं। दरअसल, शोले देखने के बाद लोगों पर इन सरल पंक्तियों का भी बेहद गहरा प्रभाव पड़ा था। संवाद लेखक के तौर पर उस दौर में हमारी जिम्मेदारी अपने संवादों के जरिए लोगों के दिलों को जीतने और उन्हें प्रभावित करने की होती थी।'' गौर करें तो हिंदी सिनेमा का संवाद कोष आज भी चार दशक पूर्व प्रदर्शित हुई फिल्मों के लोकप्रिय संवादों से ही पटा पड़ा है। कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, हम जहां खड़े होते हैं लाइन वहीं से शुरू होती है, अगर मां का दूध पीया है तो सामने आ, भाव और शिल्प से भरपूर इन अनूठे संवादों का जादू आज भी बरकरार है।

कल्पनाशीलता पर पहरा

संवाद लेखन के दौरान सहज और सरल भाषा के प्रयोग के दबाव के कारण मौजूदा दौर के लेखकों की कल्पनाशीलता पर पहरा लग गया है। प्रतिष्ठित संवाद लेखक दिलीप शुक्ला कहते हैं, ''आज की फिल्में पहले की फिल्मों की तुलना में अलग हैं। उनके विषय अलग हैं। मैंने दामिनी फिल्म के संवाद लिखे थे। वह दौर अलग था। दर्शकों को संवादों में पैनापन पसंद आता था, पर आज दर्शकों की पसंद बदल गयी है। लेखकों के साथ विडंबना है कि हमें बदलते वक्त और बदलती पसंद के अनुसार अपनी लेखनी को चलाना पड़ता है।'' दूसरी तरफ लेखकों के पक्ष का खंडन करते हुए और नयी पीढ़ी के निर्देशकों का पक्ष रखते हुए इम्तियाज अली कहते हैं, ''मौजूदा दौर में अच्छे संवाद लेखकों का अभाव है। यही वजह है कि मुझे अपनी फिल्मों के लिए संवाद लिखने पड़े। चूंकि, मैं आम बोलचाल की भाषा जानता हूं, इसलिए मैंने अपनी फिल्मों के लिए ऐसे संवाद लिखे जो रोजमर्रा के जीवन में बोले जाते हैं।''

संवादहीनता का खामियाजा

लेखकों और निर्देशकों के बीच की संवादहीनता का खामियाजा हिंदी फिल्मों में प्रभावशाली संवाद की परंपरा को भुगतना पड़ रहा है। लेखकों को लगता है कि नए दौर के सिनेमा ने उनकी कल्पनाशीलता को सीमित कर दिया है, वहीं नयी पीढ़ी के निर्देशकों को लगता है कि अच्छे संवाद लेखकों के अभाव के कारण हिंदी फिल्मों में बोलचाल की भाषा प्रयोग करने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ रहा है। मौजूदा दौर के दिग्गज पटकथा और संवाद लेखक कमलेश पांडे कहते हैं, ''कहीं-न-कहीं लेखकों की भी गलती है। हमारे पास प्रोफेशनल संवाद लेखकों की संख्या बेहद कम है। कई लेखक बड़े निर्देशकों या अभिनेताओं के उपग्रह की तरह हैं, जो अपने मास्टर को खुश रखने के लिए नियमित नौकरी करते हैं। उनमें कल्पनाशीलता का अभाव होता है।''

स्वाभाविक अभिनय की आड़

नयी पीढ़ी के निर्माता-निर्देशकों का यकीन सरल और सहज संवाद में है, ताकि फिल्म देखने के दौरान दर्शकों को वास्तविकता का बोध हो, दर्शकों को वह उनके बोलचाल की भाषा लगे। जहां पहले कलाकारों को शूटिंग से पूर्व अपने संवादों को कंठस्थ कर कैमरे के सामने एक विशेष शैली में बोलने का निर्देश दिया जाता था, वहीं आज कलाकारों पर ऐसा दबाव नहीं रहता। उन्हें निश्चित आरोह-अवरोह के साथ लंबे-लंबे संवाद याद नहीं करने पड़ते। उन्हें संवाद दे दिए जाते हैं और कहा जाता है कि इन्हें पढ़ लें और अपने अंदाज में कैमरे के सामने बोलें। अभिनेत्री अमृता राव बताती हैं, ''मेरी नयी फिल्म लव यू मिस्टर कलाकार के निर्देशक मनस्वी और निर्माता सूरज बड़जात्या ने मुझ पर कभी यह दबाव नहीं डाला कि संवाद जैसे लिखे हैं मैं वैसे ही कैमरे के सामने बोलूं। मैं पहले पेपर पर लिखे संवाद को पढ़ लेती थी, फिर उन्हें अपने शब्दों के साथ बोलती थी ताकि वह बोलचाल की भाषा लगे। ऐसा करने से स्वाभाविक अभिनय करने में आसानी होती है। आजकल के दर्शकों को भी तो यही पसंद है।''

अल्प है भाषा का ज्ञान

नए रंग-ढंग के सिनेमा में ढल चुके नयी पीढ़ी के कलाकार भाषा ज्ञान के अभाव में लंबे संवाद बोलने में असहज होते हैं। हिंदी की लोकप्रिय साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्म मोहल्ला अस्सी का निर्देशन कर रहे चंद्रप्रकाश द्विवेदी कहते हैं, ''आज के अभिनेताओं को संवाद याद करने और उन्हें अक्षरश: दोहराने में तकलीफ होती है।'' अभिनेता सोनू सूद भी इस बात से सहमत हैं कि मौजूदा दौर का अल्प भाषा ज्ञान बेहतरीन संवाद अदायगी के आड़े आता है। वह कहते हैं, ''नयी जेनरेशन हिंदी की जगह हिंग्लिश को ज्यादा महत्व देती है। नयी जेनरेशन के अधिकतर एक्टर की हिंदी पर पकड़ नहीं है। यही वजह है कि वे हिंदी में लिखे लंबे संवाद नहीं याद कर पाते।''

कलाकारों की उदासीनता

ऐसा नहीं है कि दर्शक हिंदी फिल्मों के पारंपरिक संवाद और उसके प्रभाव को भूल गए हैं या नए दौर की फिल्मों में उन्हें स्वीकारना नहीं चाहते। हाल में रिलीज हुई वांटेड, राजनीति और दबंग में एक बार फिर दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए रोचक संवादों का प्रयोग किया गया जिसे दर्शकों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी, पर उन संवादों का असर अल्प समय के लिए रहा। दरअसल, संवाद अदायगी के प्रति मौजूदा दौर के कलाकारों की लापरवाही को दर्शक पचा नहीं पाते। यही वजह है कि नए दौर की कई फिल्मों में अच्छे संवाद होने के बाद भी वे दर्शकों पर गहरा प्रभाव नहीं डाल पाते। सलमान खान जैसे अभिनेता संवाद अदायगी को बेहद हल्के अंदाज में लेते हैं। उनकी संवाद अदायगी पर बॉडी लैंग्वेज हावी रहती है, जिस कारण गंभीर संवाद भी प्रभावहीन लगते हैं!

Comments

न अच्छे लेखकों की कमी है..न अच्छे निर्देशकों की.. बस कमी है तो उनके बीच की समझ में.... अमृता राव को जिस बात की छूट दी गयी.. शुक्र है वह छूट कैटरीना कैफ को नहीं डी गयी ..वरना उनका स्वाभाविक अभिनय न जाने क्या करता... गलती हम दर्शकों की भी है..ज़रा ज़रा टच मी टच मी टच मी पे कोई नाच दिया और हमने उसे सर पे बिठा लिया... हिंदी इस तरह बोली जाती है....जैसे तबले से बाँसुरी की आवाज़ निकालने की कोशिश हो रही हो... एक फिल्म आई थी... वंस अपान ए टाइम इन मुंबई...इस फिल्म को दर्शकों नें उसके संवादों के बल पर ही पसंद किया... अरसे बाद डायलोगबाज़ी देखने को मिली थी..
स्वप्निल कुमार जी से सहमत.....
अच्छे लेखकों की कमी नहीं है लेकिन भेड़ चाल की वजह से नए लोगों को मौक़ा नहीं दिया जाता है
sonal said…
mujhe aakhiri baar "Makbool" ke samvaadon ne prabhavit kiyaa tha
मां...। कालिया...। कितने आदमी थे...। आक् थू...। उफ़...अब वो मज़ा कहां!
हमेशा से ही बदलाव की प्रक्रिया चलती ही आ रही है, यह भी एक दौर है.

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