फिल्‍म समीक्षा : शैतान

शैतान: कगार की शहरी युवा जिंदगीकगार की शहरी युवा जिंदगी

-अजय ब्रह्मात्‍मज

शहरी युवकों में से कुछ हमेशा कगार की जिंदगी जीते हैं। उनकी जिंदगी रोमांचक घटनाओं से भरी होती है। वे अपने जोखिम से दूसरों को आकर्षित करते हैं। ऐसे ही युवक दुनिया को नए रूपों में संवारते हैं। सामान्य और रुटीन जिंदगी जी रहे युवकों को उनसे ईष्र्या होती है, क्योंकि वे अपने संस्कारों की वजह से किसी प्रकार का जोखिम लेने से डरते हैं। उनकी बेचैनी और उत्तेजना से ही दुनिया खूबसूरत होती है। कगार की जिंदगी में यह खतरा भी रहता है कि कभी फिसले तो पूरी तबाही ... विजय नांबियार की फिल्म शैतान ऐसे ही पांच युवकों की कहानी है। उनमें कुछ अमीर हैं तो कुछ मिडिल क्लास के हैं। सभी के जीवन में किसी न किसी किस्म की रिक्तता है, जिसे भरने के लिए वे ड्रग, दारू, सेक्स और पार्टी में लीन रहते हैं।

विजय नांबियार की शैतान और अनुराग कश्यप की पहली फिल्म पांच में हालांकि सालों का अंतर है, फिर भी कुछ समानताएं हैं। इन समानताओं ने ही दोनों को जोड़ा होगा। फिल्म बिरादरी के अस्वीकार ने दोनों को निर्माता और निर्देशक के तौर पर नजदीक किया है। अनुराग कश्यप कगार पर जी रहे लोगों की घुप्प अंधेरी दुनिया में झांकने के साथ उन्हें पेश करने का कलात्मक जोखिम उठाते रहे हैं। धीरे-धीरे उनका एक दर्शक समूह बन गया है,जो मुख्य रूप से शहरी, अराजनीतिक, अराजक, स्वतंत्र और निर्बध स्वभाव का है। यह फिल्म उन दर्शकों के लिए यह फिल्म घुट्टी की तरह असरकारी साबित होगी। विजय नांबियार अपने विषय के प्रति आश्वस्त हैं। उनका आत्मविश्वास ही फिल्म को आक्रामक और दर्शनीय बनाता है। कई जगहों पर ठहरने और ठिठकने के बावजूद फिल्म बांधे रखती है। खास कर इंटरवल के बाद कहानी के आकस्मिक मोड़ रोमांच बढ़ाते हैं। शैतान हिंदी फिल्मों की नैरेटिव परंपरा से अलग राह पकड़ती है। किसी सकारात्मक निष्कर्ष और निदान तक पहुंचने की लेखक और निर्देशक ने कोशिश नहीं की है। यह उनका ध्येय भी नहीं है। 21 वीं सदी का सिनेमा बदल रहा है, लेकिन हिंदी फिल्मों के पारंपरिक दर्शकों को शैतान पसंद नहीं आएगी। मैं केवल चवन्नी छाप या स्टाल के दर्शकों की बातें नहीं कर रहा हूं। आखिर कितने दर्शक शहरी अमीरजादों की ऐसी जिंदगी से वाकिफ हैं। उनके लिए शैतान किसी दु:स्वप्न की तरह होगी। शैतान हिंदी के नए सिनेमा की बानगी है। अनुराग और विजय ने किसी स्टार का सहारा नहीं लिया है। फिल्म का स्टार इसकी उलझी कहानी और किरदारों का निर्वाह है। फिल्म अधपकी या अनगढ़ लग सकती है, लेकिन यही इसकी खूबी है। यह कारपोरेट की देखरेख में आ रहा परफेक्ट प्रोडक्ट नहीं है। कुछ पहलू खुरदुरे और नुकीले हैं। कलाकारों ने अपने किरदारों को उनके मिजाज के अनुसार निभाया है। परफरमेंस में आई घबराहट किरदारों के नेचर से मैच करती है। ऐसी फिल्मों में अस्पष्ट संवाद अदायगी की समस्या बढ़ती जा रही है,पर बुदबुदाना और फुसफुसाना ही नया ट्रेंड है। कुछ सुनाई पड़ता है और कुछ अनसुना रह जाता है। जो अनसुना रह गया वह युवा दर्शकों तक संप्रेषित हो पाता है क्या? यह सवाल अनुराग से है और विजय से भी। शैतान की खूबी पाश्‌र्र्व में चल रहा समीचीन संगीत है। ये ध्वनियां पहले नहीं सुनाई पड़ीं, लेकिन ऐसी भाव स्थितियां भी तो पर्दे पर पहले नहीं दिखाई पड़ीं। दिग्भ्रमित और स्तंभित किरदारों के बीच का तनाव अनियंत्रित घटनाक्रमों से बढ़ता और आकस्मिक उबाल लेता है। इस फिल्म में यह साफ दिखता है कि शहरी माता-पिता अपनी संतानों के जीवन के उथल-पुथल से दूर करिअर के दांव-पेंच,रिश्तों की गुत्थियों और अनजान संबंधों को उलझे हैं। शहरी 21 वीं सदी के उपभोक्ता समाज में अलगाव की भावना से जूझ रहे हैं। यह अलगाव पूंजीवाद के विकास के साथ आए अलगाव से भिन्न और निर्मम है। सचमुच स्थिति चिंताजनक है शहरी अमीरों की।

शैतान नया अनुभव है। यह रोमांचक तरीके से शहरी जीवन की आभिजात्य विसंगतियों को पेश करता है। युवा निर्देशक इन दिनों पक्ष न रखने को अपनी खासियत मान रहे हैं,लेकिन यह एक प्रकार से उनकी सीमा और कमी ही है। फिल्म में निर्देशक का स्वर सुनाई पड़़े और एंगल दिखाई पड़े तो तृप्ति मिलती है। जिय पक्षहीन होने के बावजूद अपने सिनेमा से उम्मीद जगाते हैं। उनकी एक शैली है,जो अनुभव और कुछ फिल्मों के बाद आकार ले सकती है।

***1/2 साढ़े तीन स्‍टार

Comments

जानकारी के लिए शुक्रिया
Anonymous said…
kya SHAITAN vijay ki film hai, ya anuraag ki?

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