ऑन स्क्रीन ऑफ स्क्रीन : कामयाबी के साथ अभिषेक बच्चन की कदमताल नहीं बैठ पाई है
रोहन सिप्पी की फिल्म दम मारो दम की सीमित कामयाबी ने अभिषेक बच्चन की लोकप्रियता का दम उखडने से बचा लिया। फिल्म ट्रेड में कहा जा रहा था कि यदि फिल्म न चली तो अभिषेक का करियर ग्राफ गिरेगा। हर शुक्रवार को फिल्म रिलीज होने के साथ ही सितारों के लिए जरूरी होता है कि वे लगातार या थोडे-थोडे अंतराल पर अपनी सफलता से साबित करते रहें कि वे दर्शकों की पसंद पर अभी बने हुए हैं। दर्शकों की पसंद मापने का कोई अचूक पैमाना नहीं है। लेकिन माना जाता है कि जब किसी सितारे की मांग घटती है तो उसकी फिल्मों व विज्ञापनों की संख्या भी कम होने लगती है। इस लिहाज से अभिषेक अभी बाजार के पॉपुलर उत्पाद हैं। आए दिन उनके विज्ञापनों के नए संस्करण टीवी पर नजर आते हैं। पत्र-पत्रिकाओं के कवर पर उनकी तस्वीरें छपती हैं। अभी वे प्लेयर्स की शूटिंग के लिए रूस गए हैं। वहां से लौटने के बाद रोहित शेट्टी के निर्देशन में बन रही फिल्म बोल बचन शुरू होगी। इसमें उनके साथ अजय देवगन होंगे। फिर धूम-3 की अभी से चर्चा है, क्योंकि एसीपी जय दीक्षित को इस बार धूम-3 में आमिर खान को पकडना है। मुमकिन है कि अभिषेक के करियर की श्रद्धांजलि लिख रहे पत्रकारों को फिर से स्तुतिगान के लिए शब्द जुटाने पडें। फिल्म इंडस्ट्री की विडंबना है कि यहां सिर्फसफलता का ही गुणगान होता है। योग्यता व कोशिश भी सफलता के आईने में ही समझ में आती है।
कामयाबी से कदमताल
कामयाबी के साथ अभिषेक बच्चन की कदमताल बैठ नहीं पाई है। अभी तक उनकी सफलता सवालों से घिरी है। हर फिल्म की रिलीज के पहले मीडिया के एक समूह और ट्रेड पंडितों के एक हिस्से में जोरदार बहस चलती है कि इसके बाद अभिषेक बच्चन का पैकअप हो जाएगा। आखिर अमिताभ के नाम पर वे कब तक चलेंगे? वास्तव में आलोचकों का यह समूह ही उन्हें सबसे ज्यादा अमिताभ के साथ जोडकर देखता है। लिहाजा अभिषेक बच्चन का पृथक मूल्यांकन नहीं हो पाता। अपने पिता के साथ या समक्ष वे हमेशा छोटे दिखते हैं। उनके ट्विटर हैंडल का सहारा लेकर बोलें तो बच्चन पिता-पुत्र हमेशा सीनियर बच्चन और जूनियर बच्चन बने रहेंगे। इस स्थायी फर्क को अभिषेक स्वयं समझते हैं। उन्होंने एक बार कहा था, मैं स्वयं को सिर्फ अभिनेता मानूं तो मेरे लिए गौरव की बात है कि मुझे देश के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में एक अमिताभ बच्चन के साथ एक ही फ्रेम में खडे होने का मौका मिला है। मुझे लगता है कि दर्शक भी उन फ्रेमों में हमें बाप-बेटे के तौर पर नहीं देखते होंगे। हालांकि मैंने पर्दे पर भी उनके बेटों के किरदार निभाए हैं। डैड के साथ के दृश्यों में मेरी घबराहट किसी भी अन्य ऐक्टर से कम नहीं रहती।
पिता का सुरक्षा कवच
अभिषेक की सबसे बडी खुशी यही है कि वे अमिताभ के बेटे हैं, लेकिन दूसरे तरीकेसे सोचें तो यह उनके जीवन की एक ट्रेजेडी भी है। पिता के बरगदी साए से निकल पाना उनके लिए मुमकिन नहीं है। बाहरी दुनिया इस फिक्र में दुबली होती जाती है कि बेचारे अभिषेक को अपने पिता की लोकप्रियता रोज करीब से देखनी होती है। इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव उन पर पडता होगा। उनकी हीन-ग्रंथि को बढाता होगा, टीस देता होगा उन्हें, लेकिन अभिषेक से मिल चुके सभी लोग मानेंगे कि वे अपनी पिता की लोकप्रियता का सम्मान करने के साथ एक दूरी भी रखते हैं। पिता उनके लिए आतंक नहीं रहे। अमिताभ के बारे में बातें करते समय उनकी आंखें पिता की उपलब्धियों से मोहित पुत्र की तरह चमकती हैं, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि पिता की उपलब्धियां और उनसे मिली लोकप्रियता उन्हें विरासत में नहीं मिलेगी। उन्हें खुद मेहनत करनी होगी और अपना मुकाम पाना होगा।
डिफेंस मेकैनिज्म
खुद को सहज-सामान्य रखने की कोशिश में वे आलसी और लापरवाह दिखते हैं। उनके मजाकिया मिजाज व खिलंदडे अंदाज का मजा लेने वाले भी पीठ पीछे उनकी आलोचना करते हैं। मुझे लगता है कि यह उनका डिफेंस मेकैनिज्म है। उन्होंने पिता के कर्मक्षेत्र को अपनाया। पहले दिन से ही पिता से उनकी तुलना लाजिमी थी। उन्होंने निजी जीवन में अपने व्यक्तित्व को आलसी व एक हद तक नॉन सीरियस रखा। यकीन करें, यदि अभिषेक ने अपनी छवि ऐसी न बनाई होती तो वे साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर के शिकार हो गए होते।
20 अप्रैल 2007 को ऐश्वर्या राय से हुई शादी के बाद उन पर दबाव और बढा। अपने आसपास हम रोज देखते हैं कि पत्नी की अधिक व्यस्तता, पहचान और कमाई से किस प्रकार भारतीय पुरुष ग्रंथियों के शिकार हो जाते हैं। शादी के चार साल बाद भी अभिषेक व ऐश्वर्या के बीच ऐसे किसी अप्रिय प्रसंग की खबर नहीं है।
प्रैंक्स्टर की छवि अभिषेक फिल्म सेट पर अपने दोस्तों के बीच प्रैंक्स्टर नाम से मशहूर हैं। अजय देवगन और सुनील शेट्टी की तरह वे भी साथी कलाकारों को फंसाने, छकाने और हास्यास्पद स्थितियों में डालने के लिए कुख्यात हैं। खेलें हम जी जान से के सेट पर दीपिका पादुकोण के साथ किया गया उनका मजाक मैंने खुद देखा है। इन पलों में उनका चेहरा भावहीन व निर्विकार होता है।
शरारतों के पीछे उनका तर्क है, ऐसी घटनाओं के बाद सेट का माहौल मैत्रीपूर्ण हो जाता है। एक-दूसरे पर भरोसा भी बढता है। अभिषेक के साथ काम कर चुकी हीरोइनें उनकी तारीफ करती हैं। प्रियंका चोपडा के अनुसार, अभिषेक प्रोटेक्टिव नेचर के अच्चछे दोस्त हैं। अगर वे सेट पर हैं तो कुछ चीजों के लिए हम निश्चिंत हो जाते हैं।
अपनों का खयाल
फिल्मी और फैमिली इवेंट पर कभी परिवार की महिला सदस्यों के साथ होने पर वे उनका अतिरिक्त खयाल रखते हैं। भीड में मां का हाथ कभी नहीं छोडते। ऐश्वर्या के साथ होने पर वे अवसरों के हिसाब से अपनी प्रासंगिकता और मौजूदगी समझते हैं। उनके स्टारडम को यथोचित स्पेस देते हैं। पब्लिक डोमेन में पिता और पत्नी के साथ संतुलन बिठाना तो कोई उनसे सीखे। परिवार के लोकप्रिय सदस्यों के प्रभामंडल से अलग वे प्रसन्नचित्त नजर आते हैं। अभिषेक के व्यवहार से यह नहीं दिखता कि सार्वजनिक जगहों पर अवांछित हैं। सामाजिक व्यवहार में वे मां-पिता और पत्नी से अलग एवं ज्यादा व्यावहारिक हैं। मीडिया, फैंस और क्राउड के साथ वे अधिक दोस्ताना व्यवहार रखते हैं। मीडिया भले ही उनकी खिल्ली उडाए, वे इसे मीडिया का धर्म समझ कर अपने भीतर रंजिश नहीं पनपने देते। विवाह, पिता की बीमारी और अन्य नाजुक अवसरों पर दुनिया ने उनकी व्यावहारिकता देखी है। मीडिया की जरूरतों और मजबूरियों को वे पिता से अधिक समझते हैं, इसलिए भरपूर सहयोग करते हैं। इस मामले में वे पिता, मां और पत्नी से भिन्न हैं। इस खासियत के कारण मीडिया में वे लोकप्रिय भी हैं। फिल्मों के हिट या फ्लॉप होने से उनकी इस लोकप्रियता में कमी नहीं आती।
इमोशनल झटका
उनकी पहली फिल्म समझौता एक्सप्रेस हो सकती थी। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने इसकी प्लानिंग कर ली थी, लेकिन जेपी दत्ता के बडे नाम ने इस फिल्म को हमेशा के लिए यार्ड में भेज दिया। फिल्मों में उनकी शुरुआत दत्ता की फिल्म रिफ्यूजी से हुई। इस फिल्म में उन्होंने शीर्षक भूमिका निभाई थी। इसकी भव्य लॉन्चिंग याद है। अभिषेक और करीना कपूर की पहली फिल्म रिफ्यूजी बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा नहीं चली, लेकिन दोनों ही सितारा संतानों को इंडस्ट्री और दर्शकों ने स्वीकार कर लिया था। वैसे रिफ्यूजी की पहली हीरोइन बिपाशा बसु थीं। करीना ने इसे झटक लिया था। तब करिश्मा व अभिषेक का रोमैंस था। सगाई की खबरें भी आ चुकी थीं, लेकिन फिर सगाई टूटी और रिश्तों ने नई करवट ली। करियर की शुरुआत में मिले इस इमोशनल झटके को अभिषेक ने संयत भाव से लिया।
जटिल चरित्रों में सहज
अभिषेक को हमेशा उनके पिता के बरक्स आंका गया, इसलिए उनकी कोशिशें छोटी समझी गई। पहली बार मणि रत्नम की फिल्म युवा में उनका स्वतंत्र सिनेमाई व्यक्तित्व सामने आया। उन्होंने बिहारी लल्लन सिंह के किरदार को सही तरीके से निभाया। बंटी और बबली में उनकी प्रतिभा दिखी। दर्शकों ने उन्हें दस, ब्लफ मास्टर, दोस्ताना, गुरु और दम मारो दम में भी पसंद किया। सामान्य चरित्रों में वे अपना कौशल नहीं दिखा पाते। मुझे उनकी नाच व अंतर्महल खास फिल्में लगती हैं, लेकिन इन्हें पर्याप्त दर्शक नहीं मिले। आशुतोष गोवारीकर की खेलें हम जी जान से में उनके किरदार पर अधिक मेहनत नहीं की गई थी। मुमकिन है अभिषेक ने भी पर्याप्त ध्यान न दिया हो। ज्यादातर स्टारों की यही मुश्किल है कि वे फिल्मों और किरदारों को ऐतिहासिक संदर्भो में नहीं देखते। उनकी तात्कालिकता से लापरवाही पनपती है। लापरवाही परफॉर्मेस को कमजोर करती है।
भाषा व उच्चचारण दोष
अभिषेक से मेरी पहली मुलाकात शरारत के शूट पर हुई थी। वे वर्ली सीफेस पर शूटिंग कर रहे थे। उनका नया वैनिटी वैन आया था, जो काफी चर्चित था। उस इंटरव्यू में हिंदी में पूछे गए मेरे सारे सवालों के जवाब उन्होंने अंग्रेजी में दिए थे। मैंने इसकी शिकायत अमिताभ से की थी और कहा था कि हरिवंश राय बच्चन के पोते और अमिताभ के बेटे की यह सीमा अखरती है।
अमिताभ ने माना कि अभिषेक की हिंदी अच्चछी नहीं है, लेकिन वे अभ्यास कर रहे हैं। शायद अब उन्होंने हिंदी सुधारी है, इसलिए हिंदी में पूछे गए सवालों के जवाब वे हिंदी में देते हैं। फिर भी उच्चचारण दोष तो उनमें है। यदि वे हिंदी सुधार लें, पिता की संवाद अदायगी का ढंग सीख लें तो अभिनय में निखार ला सकते हैं। निश्चित ही उनका सफर कामयाबी के शीर्ष तक नहीं पहुंचा है, लेकिन पिछले दस सालों से वे टिके हैं। बच्चन का बैनर लहराते हुए पिता की आकांक्षा पूरी कर रहे हैं। बच्चन बैनर उनके हाथों में सुरक्षित लहरा रहा है। कामयाबी की हवा से उसका लहराना तेज और ऊंचा होगा।
Comments
हकीकत यही है के अभिषेक को इतने मोके मिलने बाद भी वो स्क्रीन पर बहुत थके हुए और बोर नज़र आते हैं जेसे उनसे जबरजस्ती एक्टिंग करवाई जा रही है ......
लगता है अब राजीव मसंद और नम्रता जोशी के अलावा किसी पर वक्त बर्बाद करना बेवकूफी ही होगी...