आरक्षण ने बदल दिया है ताना-बाना-प्रकाश झा
सामाजिक मुद्दों पर राजनीतिक फिल्म बनाने के लिए विख्यात प्रकाश झा की नई फिल्म 'आरक्षण' 12 अगस्त को रिलीज होगी। उनसे बातचीत के अंश..
आरक्षण के बारे में क्या कहेंगे, खासकर फिल्म के संदर्भ में.. देश में इस मुद्दे पर बहस चलती रही है और पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं?
यह एक सत्य है, जिसे समाज को पूरी संवेदना के साथ अंगीकार करना होगा। 20वीं सदी के आखिरी दो दशकों में आरक्षित समाज के प्रभाव से देश के सामाजिक समीकरण और राजनीति में बदलाव आया है। इस दौर में एक तरफ देश विकसित हो रहा था और दूसरी तरफ शिक्षा का व्यवसायीकरण आरंभ हो चुका था।
शिक्षा के व्यवसायीकरण को आरक्षण से जोड़ना क्या उचित है?
नौकरी से पहले शिक्षण संस्थानों में ही आरक्षण का असर हुआ है। अब लोग वैकल्पिक शिक्षा पर इसलिए ध्यान दे रहे हैं कि उन्हें ऐसी नौकरियों के लिए कोशिश ही न करनी पड़े, जिसमें आरक्षण की मुश्किल आए। पूरे देश में मैनेजमेंट स्कूल खुल रहे हैं। आईआईएम से लेकर छोटे शहरों तक में मैनेजमेंट स्कूल चल रहे है। शिक्षा जगत से गुरु-शिष्य की परंपरा खत्म हो चुकी है। अब शिष्य क्लाइंट है और गुरु सर्विस प्रोवाइडर।
आरक्षण के प्रभाव में बदल रहे समाज को दिखाने के लिए आपने एक शैक्षणिक संस्थान ही क्यों चुना?
आरक्षण से पैदा हुए सामाजिक विद्वेष को दिखाने के लिए मुझे कुछ किरदारों की जरूरत थी। उन्हें शैक्षणिक संस्थान में दिखाना ज्यादा स्वाभाविक और प्रतीकात्मक रहा। मेरी फिल्म में प्रभाकर आनंद शिक्षा के प्रति सजग प्रिंसिपल हैं। वह एक इंस्टीट्यूट खड़ा करते हैं। उनकी सहानुभूति समाज के गरीब, निम्न और दलित छात्रों से है। वह उनकी मदद भी करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उनके सामने दुविधा खड़ी होती है। दीपक कुमार (सैफ अली खान) दलित समाज के प्रतिनिधि हैं। वह सदियों के दंश के साथ जी रहे हैं। फिर मिथिलेश सिंह (मनोज बाजपेयी) हैं, जो शिक्षा के व्यवसायीकरण के समर्थक हैं। वह कोचिंग माफिया के तौर पर आते हैं। प्रतीक (सुशांत) कथित उच्च जाति का लड़का है, जो महसूस करता है कि प्रतिभाशाली होने के बावजूद उसे आरक्षण की वजह से अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।
आपने दामुल, परिणति और मृत्युदंड जैसी फिल्में निर्देशित कीं। आलोचकों की राय है कि आपकी सोच और शैली में शिफ्ट आ चुका है?
मैं ऐसा नहीं मानता। दामुल और मृत्युदंड में आप देख चुके हैं कि समाज में मौजूद जातिगत संरचना और उसके प्रभाव को मैं चित्रित करता रहा हूं। आरक्षण का नायक भी एक दलित है। समाज में बदल रहे जातीय समीकरण को मैं हमेशा फिल्मों में किरदारों के माध्यम से रखता आया हूं। मैंने समय के साथ केवल फिल्म की प्रस्तुति बदली है।
यही तो शिकायत है कि अब आप पहले जैसी फिल्में क्यों नहीं बना रहे हैं?
मैं पूछता हूं कि कौन बना रहा है? जब तक मैं वैसी फिल्में बना सकता था, बनाता रहा। अभी तो समस्या है कि आपकी फिल्म बने कैसे? एक अंतराल के बाद मृत्युदंड उसी उद्देश्य से बनाने आया था। मैंने पहले पल्लवी जोशी को साइन किया, लेकिन खुले बाजार में निर्माण की कीमत बढ़ गई थी। रिटर्न नहीं दिख रहा था तो माधुरी दीक्षित को लाना पड़ा। आप देखें कि पैरेलल सिनेमा का आंदोलन ही खत्म हो चुका है। अभी हमें कामर्शियल सेटअप में रह कर ही काम करना है। बाजार के हिसाब से फिल्में बनानी पड़ेंगी। मैं तो फिर भी अपनी बात रख पा रहा हूं। अपनी कहानी सुना पा रहा हूं।
मृत्युदंड तक आपकी फिल्मों में सामाजिक यथार्थ के रेशे दिखाई पड़ते थे। अब वह यथार्थ भी डिजाइन किया हुआ लगता है?
मेरी कोशिश रहती है कि सामाजिक यथार्थ आए। हम उनके अंतद्र्वद्व और विसंगतियों को समझें। हो सकता है कि लार्जर दैन लाइफ दिखाने या बड़ा करने के चक्कर में कुछ और चीजें हावी हो जाती हों, मुद्दा दब जाता हो। मैं अपने उद्देश्य और सोच में अभी तक पहले जैसा हूं।
आप बिहार में शूटिंग क्यों नहीं करते?
करना चाहता हूं, लेकिन लॉजिस्टिक की समस्या है। नितीश जी भी चाहते हैं कि बिहार में फिल्मी एक्टिविटी हो। मैं भी कुछ सोच रहा हूं।
भोजपुरी फिल्में कब बनाएंगे?
जैसे ही एक अच्छी कहानी मिलेगी!
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