सोच और सवेदना की रंगपोटली मेरा कुछ सामान

-अजय ब्रह्मात्‍मज
खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे की चार प्रस्तुतियों की पोटली है- 'मेरा कुछ सामान'। गुलजार की कहानियों, नज्मों और गीतों के इस रंगमचीय कोलाज को देखना इस दौर का समृद्ध रंग अनुभव है। 'मेरा कुछ सामान' इसी अनुभव को सजोने की निर्देशक सलीम आरिफ की सुंदर कोशिश है। इस हफ्ते 11 मई से दिल्ली में गुलजार के नाटकों का यह महोत्सव प्रारंभ हो रहा है।
खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे ़ ़ ़ चार शब्दों के चार शो ़ ़ ़ लेकिन थीम एक ही ़ ़ ़ गुलजार ़ ़ ़ कहानियों, गीतों, गजलों और नज्मों से छलकती गुलजार की चिता, सवेदना और छटपटाहट। गीतकार और निर्देशक गुलजार से परिचित प्रशसकों ने इन शामों में एक अलग मानवीय गुलजार को सुना और महसूस किया है। 'मोरा गोरा अंग लई ले' से लेकर '3 थे भाई' तक के गीतों से उन्होंने कई पीढि़यों के श्रोताओं और दर्शकों को लुभाया, सहलाया और रुलाया है। वही गुलजार इन नाटकों में आजादी के बाद देश में बदस्तूर जारी साप्रदायिकता के दर्द की पोटली खोलते हैं तो उनके सामानों में हमें लोगों के एहसास, जज्बात और सपनों की शक्ल नजर आती है। सलीम आरिफ के निर्देशन में एस्से कम्युनिकेशस की इन प्रस्तुतियों को देख चुके दर्शक बार-बार किसी प्रिय फिल्म की तरह इन्हें फिर से देखने पहुंचते हैं। सन् 2002 से जारी इन नाटकों के सैकड़ों शो देश-विदेश के विभिन्न शहरों में हो चुके हैं।
'मेरा कुछ सामान' गुलजार और सलीम आरिफ की सृजनात्मक सगत और समझदारी का क्रिएटिव नतीजा है। उन्हीं दिनों गुलजार दूरदर्शन के लिए 'मिजा गालिब' की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने सलीम आरिफ को बुलाया। सलीम आरिफ 'किरदार', 'माचिस' और 'हू तू तू' में उनके साथ निर्माण और निर्देशन में सहायक रहे।
टीवी और फिल्मों में अपनी प्रतिभा का सपूर्ण उपयोग न होते देख सलीम आरिफ ने थिएटर में कुछ नया करने की बात सोची। वे शुरू से स्पष्ट थे कि उन्हें पारंपरिक या प्रचलित थिएटर नहीं करना है। हिंदी-अंग्रेजी के बारहा मंचित हो चुके मशहूर नाटकों को फिर से पेशकर फौरी वाहवाही नहीं बटोरनी है। इस तलाश और कोशिश में ही उनका पहला काम 'गालिबनामा' सामने आया। इसमें उन्होंने गजलों के माध्यम से गालिब की जद्दोजहद को मच पर उतारा। उसके बाद साप्रदायिक दंगों को केंद्र में रखकर कुछ करने का प्रस्ताव आया तो उन्हें सबसे पहले गुलजार का ख्याल आया। उन्होंने गुलजार की कहानियों और नज्मों के कोलाज की नई नाट्य कल्पना की। यही कल्पना 'खराशें' के रूप में मचित हुई। सलीम आरिफ की रंगकर्मी पत्‍‌नी लुबना सलीम बताती हैं, 'जब दो-तीन दिनों के बाद लोगों के फोन आने शुरू हुए तो हमें लगा कि कुछ हो गया है। हमने कुछ नया कर दिया है।'
'मेरा कुछ सामान' की पहली पोटली 'खराशें' थी। उसके कुछ सालों के बाद सीमा के आर-पार की आबोहवा, मनोदशा और साथ जीने की कोशिशों को सलीम आरिफ ने 'लकीरें' में गुलजार की मदद से पेश किया। 'खराशें' की तरह 'लकीरें' को भी दर्शकों ने सराहा और खूब पसद किया। 2006 की मुंबई की विभीषिका के बाद 'अठन्निया' की धमक मच पर सुनाई पड़ी। इसमें मुंबई के स्लम्स में गुजर-बसर कर रहे बाशिदों की जिद और जिजीविषा के साथ जिंदगी की ललक और झलक भी दिखाई देती है। 'खराशें', 'लकीरें', और 'अठन्निया' के साथ चौथी शाम 'यार जुलाहे' की होती है। इस शाम गुलजार के प्रशसक और दर्शक उनसे शब्दों की कताई, धुनाई और बुनाई की फ‌र्स्ट हैंड जानकारी लेते हैं। साक्षात गुलजार उनके सवालों के जवाब देते हैं। गुलजार की कोशिश रहती है कि जब भी उनके सामानों की पोटली मच पर खोली जाए तो वे स्वय वहा मौजूद रहें।
दर्शकों की प्रतिक्रिया देखने-सुनने में उनकी खुशी बच्चों की तरह छलकती है। सलीम आरिफ बताते है, अपनी पहचान और मशहूरियत के बावजूद गुलजार साहब इन प्रस्तुतियों को खास दर्जा देते है।
सलीम आरिफ 'मेरा कुछ सामान' की प्रस्तुतियों की लोकप्रियता, स्वीकृति और भव्यता का श्रेय गुलजार को देते हैं,' यह उनके सिग्नेचर और व्यक्तित्व की महक ही है, जिसे छूने और महसूस करने दर्शक आते हैं। थिएटर के इतिहास में इस अनोखी प्रस्तुति में गुलजार की शिरकत इसे गहरा मायने दे जाती है। गुलजार की मौजूदगी की वजह से ही कई सवेदनशील मुद्दों पर होने के बावजूद 'खराशें' और 'लकीरें' को लेकर कभी कोई प्रतिवाद या विवाद नहीं हुआ।' बतौर एक्टर सभी प्रस्तुतियों में शामिल यशपाल शर्मा हर मचन के लिए समय निकालते हैं। वे कहते हैं, मैं अपनी सतुष्टि के साथ नेक इरादे का हिस्सा बनने के मकसद से इसमें शामिल रहता हूं। मेरे लिए यह अलग अनुभव है। मैं इसकी ऊर्जा से खुद को अलग नहीं कर सकता।'

Comments

afsos delhi mein rah kar gulzaar ki in kritiyon ko aam chaahne wala nahin dekh sakta ticket price hi itne hain ki.............
amitesh said…
gulzar ke is saman ki potali ko chand faishaonparast aur status ke liye dekhne wale darshak hi dekh payenge. aam darshak to isase dur hi rahen. tiket ki kimat aapko behosh bhi kar sakati hai...

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को