फिल्म समीक्षा : जोकोमोन
अपने चाचा देशराज की दया और सहारे पल रहे कुणाल को जब यह एहसास होता है कि वह भी ताकतवर हो सकता है और अपने प्रति हुए अन्याय को ठीक कर सकता है तो मैजिक अंकल की मदद से वह चाइल्ड सुपरहीरो जोकोमोन का रूप ले लेता है। सत्यजित भटकल की ईमानदार दुविधा फिल्म में साफ नजर आती है। वे कुणाल को चमत्कारिक शक्तियों से लैस नहीं करना चाहते। वे उसे साइंटिफिक टेंपर के साथ सुपरहीरो बनाते हैं। उन्होंने कुणाल के अंदरुनी ताकत को दिखाने के लिए कहानी का पारंपरिक ढांचा चुना है। एक लालची और दुष्ट चाचा है, जो अपनी पत्नी की सलाह पर कुणाल से छुटकारा पाकर उसके हिस्से की संपत्ति हड़पना चाहता है। अपनी साजिश में वह गांव के पंडित का सहयोग लेता है। वह अंधविश्वास पर अमल करता है। जोकोमोन बने कुणाल की एक कोशिश यह भी कि वह अपने गांव के लोगों को अंधविश्वास के कुएं से बाहर निकाले। चाचा को तो सबक सिखाना ही है। इन दोनों कामों में उसे मैजिक अंकल की मदद मिलती है। मैजिक अंकल साइंटिस्ट हैं। वे साइंस के सहारे कुणाल के मकसद पूरे करते हैं।
सत्यजित भटकल की तारीफ करनी होगी कि बच्चों के मनोरंजन के उद्देश्य से बन रही माइथोलोजिकल और अतिनाटीयक फिल्मों के घिसे-पिटे माहौल में एक नई कोशिश की है। उन्होनें एक माडर्न और सांइटिफिक टेंपर की कहानी कही है। जोकोमोन में बच्चों के फालतू मनोरंजन की व्यर्थ कोशिश नहीं की गई है, लेकिन इस प्रयास में फिल्म में हल्के-फुल्के प्रसंग कम हो गए हैं। बाल नायकों की फिल्मों में निर्देशक के सामने अनेक चुनौतियां रहती हैं। खास कर भारत में चुनौतियां और बढ़ जाती हैं, क्योंकि चिल्ड्रेन फिल्म के नाम पर ज्यादातर बचकानी फिल्म नहीं है। हां, इसके मनोरंजक होने में कमियां रह गई हैं, लेकिन उसके दूसरे कारण हैं।
कुणाल के साथ किट्ट के प्रसंग का सही निर्वाह नहीं हो सकता है, इसलिए कुणाल की जिंदगी में उसका प्रेरक महत्व होने पर भी वह पूर्ण नहीं लगती। दर्शील ने कुणाल के मनोभावों को सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया है। सुपरहीरो के तौर पर उसका आत्मविश्वास झलकता है। दोहरी भूमिका में अनुपम खेर सराहनीय हैं। कुणाल के बाल सखा प्यारे लगते हैं।
जोकोमोन एक सुंदर और अच्छा प्रयास है।
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