डायरेक्टर डायरी-सत्यजित भटकल
सत्यजित भटकल... ‘जोकोमन’ के निर्देशक। 'जोकोमन' 22 अप्रैल को रिलीज हो रही है।रिलीज के पहले वे अपनी डायरी लिख रहे हैं। ‘जोकोमन’ उनकी पहली फीचर फिल्म है। इसके पहले उन्होंने ‘चले चलो’ नाम से ‘लगान’ की मेकिंग पर फिल्म बनाई थी। उन्होंने ‘लगान’ की मेकिंग पर ‘द स्पिरिट ऑफ लगान’ पुस्तक लिखी थी। satyabhatkal@gmail.com
शुक्रवार - 8 अप्रैल
8am
अनिद्रा से जागा... क्या सचमुच ऐसी कोई नींद होती है?
शाम में परिवार और फिल्म के कलाकारों एवं तकनीशियनों के लिए ‘जोकोमन’ की स्क्रीनिंग है। असामान्य समूह है। मेरी मौसी, काका, चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहन और फिल्म बिरादरी... जिनके बारे में... बहरहाल! फिल्म बनाना अलग काम है... ‘मैं फिल्म निर्देशित कर रहा हूं’ कहने-सुनने में एक उत्साह रहता है, लेकिन अपनी फिल्म के लिए मूल्यांकित होना... मैं भयभीत हूं। भयभीत होने पर जो करता हूं, वही कर रहा हूं। स्वाति पर चिल्लाता हूं... सभी घर से दुखी होकर निकले हैं... नम आंखों से चुप... वे समझ रहे हैं - बेचारा... इसने फिल्म बनाई है।
अब मैं ठीक हूं और अकेला
2pm
प्रचार संबंधी कार्यक्रमों के मौके पर पहनने के लिए कपड़े खरीदने निकलता हूं। सच का सामना होता है... स्लिम डिजायन के कपड़ों में अब नहीं अट पाता। हर खरीदारी के समय लगता है कि मुझे नए कपड़ों की जरूरत नहीं है। मुझे नया शरीर चाहिए। आखिर वैसे कपड़े खरीदता हूं, जो बैठने पर खींचे हुए न लगे। दुकानदार यह देख कर हैरान है कि हर कमीज पहनने के बाद मैं बैठ कर देख रहा हूं कि वह खींच तो नहीं रहा... उस पर लकीरें तो नहीं बन रहीं... झेंप होती है, लेकिन क्या कर सकता हूं... मैं ऐसा ही हूं।
5pm
एडलैब जा रहा हूं, अब इसे रिलाएंस मीडिया वक्र्स कहते हैं। मुझे गोरेगांव जाना है। मुंबई की ट्रैफिक में डेढ़ घंटे लगेंगे। गोरेगांव में स्क्रीनिंग रखने का पछतावा हो रहा है... मेरे परिवार के अधिकांश सदस्यों के लिए वह अलग शहर है... लेकिन हर पछतावे की तरह अब देर हो चुकी है!
6.30pm
फिल्म का डिजिटल प्रिंट देखता हूं। शानदार है... टेक्नोलॉजी जिंदाबाद
7pm
अब स्क्रीनिंग शुरू होनी चाहिए, लेकिन अभी तो दर्शकों का आना शुरू हुआ है। मेरे मामा-मामी पहले आने वालों में हैं। मैं घिघियाता हूं। साफ दिख रहा है कि एक घंटे के पहले फिल्म शुरू नहीं हो पाएगी... हमेशा की तरह समय के पाबंदों को सजा मिलेगी। मैं चाय-पानी चालू करवा देता हूं। फिल्म शुरू नहीं हुई तो क्या पार्टी अभी बाकी है।
7.45pm
प्रोजेक्टर चालू हो गया। हॉल भरा हुआ है। सभी फिल्म देख रहे हैं। मेरी नजर पर्दे पर नहीं है। मैं दर्शकों को देख रहा हूं... ठीक चल रहा है।
9.45pm
आखिरी क्रेडिट चलने के बाद हॉल में रोशनी हो जाती है। एक बच्चा उठ खड़ा हुआ है। वह टीनू आनंद का पोता है, ‘मां, मैं यह फिल्म कल भी देखूंगा।’ कलाकार और तकनीशियन खुश हो जाते हैं। ईश्वर टीनू आनंद पर कृपा करें। ईश्वर उनके पोते पर खास कृपा करें। एक बदमाश सोच... क्या पूरे भारत के सिनेमाघरों में हम ऐसे बच्चों को बिठा दें!
10.30pm
परिवार के सदस्य रुक गए हैं। फिल्म के सदस्य चले गए हैं। आखिरी व्यक्ति को बाय किया है। सब ने मुझ से कहा कि उन्हें फिल्म अच्छी लगी है। कुछ लोग तो दो घंटे की यात्रा कर यहां आए... अब एक घंटा लौटने में लगेगा... सोच रहा हूं... क्या उनके प्यार जताने का यह एक तरीका है...
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