कुछ तो बात है इस खान में
अपनी हर फिल्म में दोनों हाथों को फैलाकर जब शाहरुख खान जुंबिश लेते हैं तो लगता है कि वे पूरी दुनिया को अपने अंकवार में भर लेना चाहते हैं। उनकी यह अदा सभी को भाती है। शाहरुख को भी पता है कि दर्शक उनकी इस भावमुद्रा का इंतजार करते हैं और उनके हाथों के फैलने के साथ सिनेमाघर सीटियों और सिसकारियों से गूंजने लगते हैं। यही कारण है कि हर विधा, विषय, भाव और पीरियड की फिल्मों में शाहरुख इसे दोहराने से नहीं हिचकते। ऐसी भावमुद्राओं की वजह से ही उनके आलोचक कहते हैं कि शाहरुख अपनी हर फिल्म में शाहरुख ही रहते हैं। मजेदार तथ्य यह है कि वे आलोचकों के इस आरोप से इत्तफाक रखते हैं। वे कहते हैं, मेरे प्रशंसक मेरी फिल्मों में मुझे देखने आते हैं। मैं उन्हें किसी और रूप और अंदाज से निराश नहीं कर सकता। इस तर्क के साथ वे यह जोडना नहीं भूलते कि मैंने फिर भी दिल है हिंदुस्तानी, अशोक, स्वदेस, पहेली और चक दे जैसी फिल्में भी की हैं। इन सारी फिल्मों में मैं बिलकुल अलग था।
छोटे पर्दे का फौजी
अलग तो हैं शाहरुख। दूरदर्शन के दिनों में फौजी और सर्कस जैसे धारावाहिकों से ही उन्हें राष्ट्रीय पहचान मिल गई थी। उन्हें लोकप्रियता का पहला स्वाद छोटे पर्दे ने दिया, लेकिन याद करें तो उस दौर में छोटे पर्दे के कई कलाकार अपने किरदारों की वजह से मशहूर हुए। उनमें केवल शाहरुख की लोकप्रियता किरदार से बाहर निकल सकी। वे कलाकार के तौर पर लोकप्रिय हुए। उन्हें लोगों ने शाहरुख खान के नाम से जाना। दिल्ली में शौकिया तौर पर रंगमंच और टीवी से जुडे शाहरुख खान ने नाम और काम के साथ अधिक पैसों और शोहरत के लिए मुंबई का रुख किया। उनके आरंभिक दिनों के साथी मनोज बाजपेयी और पहले गाइड रघुवीर यादव के पास ऐसे अनेक किस्से हैं, जिनसे शाहरुख के व्यक्तित्व का पता मिलता है। जोखिम उठाने की हिम्मत उनमें शुरू से थी। वे कहते हैं, मुझे सबकी तरह तैरने से अधिक पसंद अलग होकर डूब जाना है। गैर फिल्मी पृष्ठभूमि से आए शाहरुख को मुंबई में विवेक वासवानी जैसे दोस्त और अजीज मिर्जा जैसे संरक्षक मिले। आत्मविश्वास से लबालब शाहरुख को मुंबई में लंबा संघर्ष नहीं करना पडा। उनकी जद्दोजहद महज शुरुआती महीनों में रही। उन्होंने मुंबई में एक ही दिन दिल आशना है, राजू बन गया जेंटलमैन, किंग अंकल और चमत्कार जैसी चार फिल्में साइन कीं। ऐसी शुरुआत तो किसी स्टार-पुत्र को भी नहीं मिली। वास्तव में यह उनके दोस्तों की नेटवर्किंग और अपनी इमेज का सीधा असर था।
मेहनत से संवरी किस्मत
शाहरुख की खूबी है कि वे अवसरों को कामयाबी में बदल देते हैं। उन्हें जब भी कुछ ज्यादा मिला, उन्होंने खुद को उसके योग्य साबित किया। उनके पहले और बाद के सितारों के करियर का अध्ययन करें तो उनमें शाहरुख जैसी समानताएं मिल जाएंगी, लेकिन उनमें से अधिकतर लोग अवसरों को अपनी अयोग्यता और आलस्य के कारण कामयाबी में नहीं बदल सके। शाहरुख को कभी संयोग से बडे अवसर मिले तो उन्होंने उसके योग्य होने के लिए मेहनत की। यह उनकी विशेषता है कि वे हमेशा काबिल निकले और खुद को उसका वाजिब हकदार साबित किया। बाजीगर, डर और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी कमर्शियल फिल्मों के बरक्स स्वदेस और चक दे, इडियट को देखें तो हम शाहरुख की मेहनत, किस्मत और कोशिश को समझ सकते हैं। पिछले दिनों हुई एक मुलाकात में यह पूछने पर कि क्या उनकी सफलता संयोगों का खेल है? उन्होंने जवाब में उलटा सवाल दागा, पिछले बीस सालों से लोग मुझे पसंद कर रहे हैं। कुछ तो बात होगी मुझमें? क्या यह सब सिर्फ किस्मत है?
पेशे के प्रति ईमानदारी
शाहरुख के मुंबई पहुंचने के साथ फिल्म पत्रकारों के बीच चर्चा चलने लगी थी कि एक नया लडका आया है। उसमें गजब का आत्मविश्वास है। वह जरूर कुछ करेगा। थोडा बडबोला है, लेकिन उसमें दम है। शाहरुख के कुछ करने का भरोसा राजू बन गया जेंटलमैन और दीवाना के ट्रेलर से यकीन में बदल गया। कमर्शियल फिल्मों के हीरो का आकर्षण उनमें था। दिल्ली से आया यह ऐक्टर हाइपर होने के साथ सेंसिटिव भी था। लोग उसकी एनर्जी से प्रभावित थे। वह लाइव वायर की तरह छूते ही झंकृत करता था।
सलमान खान ने बाजीगर के लिए मना कर दिया तो अब्बास-मस्तान ने शाहरुख को काजोल और शिल्पा शेट्टी के साथ चुन लिया। दूसरी ओर यश चोपडा से हुई अनबन की वजह से आमिर खान ने डर छोड दी तो जूही चावला के सुझाव पर यश चोपडा ने भी शाहरुख को एंटी हीरो का रोल दे दिया। इस फिल्म की शूटिंग में आदित्य चोपडा से दोस्ती हुई। वे आदित्य की प्रतिभा के प्रति इतने मुतमईन थे कि उन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे की स्क्रिप्ट पढने की जरूरत भी नहीं महसूस की। तब से यशराज फिल्म्स से उनका ऐसा अटूट रिश्ता बना कि वे वहां से मिले ऑफर के लिए न तो पैसे मांगते हैं-न स्क्रिप्ट।
शाहरुख पैसों के लिए एड फिल्म, डांस या पार्टी कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन पैसों का लालच देकर कोई भी उनसे ऐसी-वैसी फिल्म नहीं करवा सकता। वे कहते हैं, मैं अपने मूल पेशे से बेईमानी नहीं कर सकता।
हाजिरजवाबी-विनोदप्रियता
मेरी उनसे पहली अच्छी मुलाकात जोश की रिलीज के समय हुई थी। महबूब स्टूडियो में पहली मंजिल पर स्थित दायीं तरफ के कमरे में वे बैठे थे। वैनिटी वैन का जमाना नहीं आया था और स्टारों का कृत्रिम एकांत आरंभ नहीं हुआ था।
..मुझे याद है कि कमरे का ए.सी. भी काम नहीं कर रहा था। घिर्र-घिर्र कर रहे पंखे की लय में उनका बोलना जारी था। उन्होंने पहली मुलाकात में ही अपना मुरीद बना लिया। वे पूछे गए हर सवाल का जवाब देते हैं और कोशिश करते हैं कि साक्षात्कार लेने वाला पूरी तरह संतुष्ट हो। चंद मुलाकातों के बाद ही मैंने महसूस किया कि शाहरुख बहुत ही सपोर्टिग स्टार हैं। वे इंटरव्यू में जरूरत के हिसाब से जवाब देते हैं। उनके विनोदी स्वभाव और हाजिरजवाबी से बेहतर और पठनीय कॉपी तैयार होती है। एक बार तो उन्होंने पहले ही पूछ लिया, कैसा इंटरव्यू चाहिए? चटपटा, गंभीर, मजेदार या किसी विशेष कॉलम के लिए? दूसरे पत्रकार मित्रों के भी यही अनुभव हैं कि शाहरुख मिलने पर निराश नहीं करते। अगर आप उनकी व्यस्तता से एडजस्ट कर सकें और उन्हें किसी प्रकार से न खरोंचें तो वे समय निकालते हैं।
तारीफ की चाह
हां, कई बार उनसे मिलना नामुमकिन भी होता है। उनके बंगले मन्नत की चहारदीवारी ऊंची है और लोहे के बडे से गेट के अंदर उनका परकोटा बसा है। उनके आसपास एक दीवार रहती है और दिल के दरवाजे पर भी लोहे का गेट है। वैसे वे पिछले दरवाजे से अपने मिलने वालों को बुलाते हैं। अपने बंगले में होने पर भी लोगों से घंटों इंतजार करवाना उनकी आदत बन गई है।
अपने दोस्तों व संबंधियों के लिए मैं हूं ना के अंदाज में कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार शाहरुख निर्मम भी हैं। वे कुछ भी नहीं भूलते और उनके करीबियों का यकीन करें तो बडी बारीकी से बदला लेते हैं।
उनके साथ काम कर चुके अब्बास टायरवाला के इस कथन में सच्चाई है कि गहरे दोस्त और व्यक्ति के तौर पर उन्हें जानना मुश्किल काम है। वे हमेशा झीने पर्दे में रहते हैं। साफ छिपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं.. यह गीत उन पर भी फिट बैठता है। सच कहें तो उनके दोस्तों की संख्या बहुत कम है। हर बडे स्टार और हस्ती की तरह आत्मलिप्त शाहरुख खान कान के कच्चे और तारीफपसंद व्यक्ति हैं। अपनी आलोचना को वे सहजता से नहीं ले पाते।
सिनेमाई मसीहा
बाजीगर, डर और अंजाम, इन तीन फिल्मों ने शाहरुख को खास पहचान दी। तीनों ही फिल्मों का नायक खल स्वभाव का था, जो अपनी चाहत के लिए किसी भी हद से गुजर सकता था। भारतीय समाज में व्यक्तिगत लिप्सा और महत्वाकांक्षा की यह शुरुआत थी। आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया से देश में नए शहरी युवक का उदय हो रहा था। रोहित और राज के नाम से शाहरुख ने इस युवक को पर्दे पर बखूबी चरितार्थ किया। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में हम उसी युवक को आप्रवासी भारतीय युवक के रूप में देखते हैं। विदेशी परवरिश के बावजूद वह भारतीय मूल्यों और पारिवारिक मर्यादा में यकीन करने के साथ प्यार का पारंपरिक प्रपंच भी रचता है। वह प्रेमिका के साथ भागता नहीं है। उसके व्यवहार ने शाहरुख खान को इंटरनेशनल ख्याति दी और भारत में सभी उम्र की स्त्रियों का चहेता बना दिया। दिलवाले के राज में उन्हें अपना बेटा, प्रेमी और पति दिखा। राज दर्शकों के दिलों पर राज करने लगा।
इस फिल्म के बाद शाहरुख को कभी रुकने या पलट कर देखने की जरूरत नहीं पडी। वे दुगनी रफ्तार से छलांगें मारते हुए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के किंग खान बन गए। उनकी सत्ता फिल्म इंडस्ट्री से आए शेष दोनों खानों के समकक्ष स्थापित हो गई।
बाहर से आए एक युवक ने फिल्म इंडस्ट्री में अपना लोकप्रिय साम्राज्य स्थापित किया। उनके बाद किसी और बाहरी युवक को यह मुकाम हासिल नहीं हुआ है।
पिछले बीस सालों में शाहरुख मध्यवर्गीय अभिलाषा और आकांक्षा के नायक के रूप में उभरे और चलते रहे। एक तरह से वे मिडिल क्लास के सिनेमाई मसीहा बन गए।
संस्कार और परिवेश
मीर मोहम्मद ताज खान और लतीफ फातिमा खान के बेटे शाहरुख खान को पिता से दरियादिली और मां से हिम्मत मिली। बचपन के दिनों को याद करते हुए एक बार शाहरुख खान ने बताया था कि उनके पिता उनके साथ दोस्तों जैसा सलूक करते थे। यारा उनका प्यारा संबोधन था।
एक बार बाजार में साथ घूमते हुए शाहरुख खान को कुछ खाने की इच्छा हुई तो पिता ने कहा कि पैसे नहीं हैं। मासूम शाहरुख ने समझा कि पिता जेब में पैसे रखना भूल गए होंगे। पिता ने उनकी गलतफहमी दूर करते हुए सीख दी कि सचमुच पैसे नहीं हैं। तब पिता ने कहा, यारा ऐसा करते हैं कि मूंगफली खाते हैं..। उस फाके में मिला मस्ती का सबक शाहरुख के साथ उनके पिता को भी याद रहा। वे भी कभी फिल्म ऐक्टर बनने की ख्वाहिश लिए मुंबई आए थे। तब उन्हें मुगलेआजम में दुर्जन सिंह का रोल मिल भी गया था, लेकिन फिर किसी कारण बात नहीं बनी। मुमकिन है पिता की बची तमन्ना ही शाहरुख पूरी करने आए हों। सालों बाद पिता के न रहने पर उन्होंने बडे पर्दे पर अपना नाम रोशन किया। हर उपलब्धि और पुरस्कार के समय मां-बाप को शिद्दत से याद करते हुए शाहरुख खान उनकी कमी को जाहिर करते हैं। नई दिल्ली के मुसलिम परिवार में उदार तरीके से पले और महानगरीय माहौल में बढे शाहरुख खान में धार्मिक कट्टरता नहीं है, फिर भी वे अपनी मुसलिम पहचान को जाहिर करने से नहीं हिचकते। सायास या अनायास, लेकिन जब अदब या आदाब में उनके हाथ उठते हैं या वे किसी बात पर इंशाअल्लाह कहते हैं तो प्रतीत होता है कि हम मुसलिम संस्कारों में पले और जी रहे व्यक्ति को देख रहे हैं। शाहरुख बडे फº से कहते हैं, मैं इंडिया का मुसलमान हूं। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं बहुसंख्यक हिंदू देश में सालों से सुपरस्टार हूं। मेरी बीवी हिंदू है। मुझे धर्म की वजह से अपने देश में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। जब अमेरिका में मुसलिम सरनेम की वजह से सुरक्षा गार्ड उनसे जवाबतलबी करते हैं तो उन्हें परेशानी होती है।
आत्मकथा की शुरुआत
शाहरुख अभी कुछ नया करना चाहते हैं। उन्होंने हिंदी फिल्मों को नई ऊंचाई तक पहुंचाने का बीडा उठा लिया है। अनुभव सिन्हा निर्देशित उनके होम प्रोडक्शन की फिल्म रा. वन इसी दिशा में सार्थक प्रयास है। निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट की सलाह पर उन्होंने अपनी आत्मकथा तो लिखनी शुरू कर दी है, लेकिन वे उसे समेट नहीं पा रहे हैं। शायद वे किसी उल्लेखनीय उपसंहार की उम्मीद में उसे पूरी नहीं कर रहे हों।
Comments
हाँ चक दे इंडिया, स्वदेश सरीखी कुछ फिल्में अपवाद हैं...
हो सकता है उनमे कुछ ऐसा हो जो मैं देख नहीं पा रहा हूं...
लेकिन जहाँ तक अभिनय का सवाल है वो आमिर खान, अजय देवगन जैसे न जाने कितने अभिनेताओं के आस पास भी नहीं दिखते...
sheshnath