भोजपुरी सिनेमा : सवाल भी है पचास के
हिंदी फिल्मों के ग्लैमर से इतर भोजपुरी फिल्मों का अपना अलग बाजार है। दर्शक हैं, जिनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में दूसरे प्रदेशों और भाषाओं के निर्माता तक शामिल हो रहे हैं। पिछले कई सालों से हर साल 50 से अधिक भोजपुरी फिल्में बनती हैं। मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पंजाब और सभी महानगरों में पॉपुलर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक मजदूर और सर्विस सेक्टर में शामिल 'बिदेसिया' हैं।
गौर करें तो मध्यवर्ग के दर्शक भोजपुरी फिल्में देखने से परहेज करते हैं। तर्क है भोजपुरी फिल्मों का फूहड़, अश्लील, घटिया और भोंडी होना। इनका प्रदर्शन जीर्ण-शीर्ण थिएटरों में होता है, जिनमें मध्यवर्गीय दर्शक जाने से गुरेज करते हैं। 16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी की पहली फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो का मुहूर्त्त हुआ था। पचास साल हो गए हैं। भोजपुरी समाज के लिए यह सोचने की घड़ी है कि वे अपने सिनेमा को किस रूप में देखना चाहते हैं और आगे कहां ले जाना चाहते हैं?
भोजपुरी फिल्मों के विकास का अध्ययन कर रहे विनोद अनुपम भोजपुरी सिनेमा के प्रति बनी इस आम धारणा को खारिज करते हुए कहते हैं, ''ज्यादातर निंदक व आलोचक फिल्म देखे बगैर ही उसकी आलोचना करते रहते हैं। भोजपुरी में हर साल दर्जनों फिल्में बनती हैं। उनमें से कुछ अच्छी भी होती हैं।''
भोजपुरी फिल्मों के चेहरों के रूप में विख्यात रवि किशन, मनोज तिवारी और निरहुआ से बातें करने पर पता चलता है कि मुनाफाखोर निर्माताओं की फौज भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में पहुंच गई है। उन्हें भोजपुरी समाज की संस्कृति और सभ्यता का सही ज्ञान नहीं है। वे फूहड़ता साथ में ले आते हैं और भोजपुरी फिल्मों के सामान्य परिदृश्य को गंदा करते हैं। दूसरी बात यह है कि अन्य भाषाओं की फिल्मों की तरह भोजपुरी फिल्मों का निश्चित प्रदेश नहीं है। आधुनिक भोजपुरी फिल्मों की ज्यादातर हीरोइनें दूसरी भाषाओं से आई हैं। उनमें से कोई भी 'देसी गर्ल' नहीं है। इसके अलावा फिल्म के लेखन और निर्देशन में हिंदी फिल्मों से छंटे और असफल व्यक्तियों की बड़ी भरमार है।
यही कारण है कि तमाम संभावनाओं के बावजूद भोजपुरी फिल्में स्वस्थ विकास नहीं कर रही हैं। भोजपुरी फिल्में मुख्य रूप से मुंबई में ही बनती हैं। पूंजी, कलाकार, निवेश और बिजनेस की सीमाओं के कारण भोजपुरी फिल्मों का विकास बिल्कुल अलग तरीके से हुआ है। अगर इनकी निर्माण भूमि भोजपुरी इलाके में होती तो निश्चित ही फर्क पड़ता और भोजपुरी फिल्में अधिक विकसित और स्वस्थ होतीं।
भोजपुरी फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन की भी अनेक समस्याएं हैं। शुरुआती दौर में तो इन फिल्मों को थिएटर तक नहीं मिलते थे। अभी तक महानगरों और शहरों के उपेक्षित और जीर्ण-शीर्ण थिएटरों में ही इन फिल्मों का प्रदर्शन होता है। अब आप तय करें कि थिएटरों की वजह से घटिया फिल्में बन रही हैं या घटिया फिल्मों की वजह से उन्हें अच्छे थिएटर नहीं मिलते। कहीं तो कोई भारी गड़बड़ी है, जिसे सभी जानते हैं, लेकिन कोई भी उसमें सुधार के लिए तैयार नहीं है!
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