पहाड़ी नदी है भोजपुरी फिल्में
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों पटना में स्वर्णिम भोजपुरी का आयोजन किया गया। फाउंडेशन फोर मीडियाकल्चर ऐंड सिनेमा अवेयरनेस की तरफ से आयोजित स्वर्णिम भोजपुरी में भोजपुरी सिनेमा के अतीत और वर्तमान पर विशेष चर्चा हुई। दो दिनों के सत्र में भोजपुरी सिनेमा के इतिहासकारों, पत्रकारों, समीक्षकों के साथ निर्माता-निर्देशकों और सितारों ने भी हिस्सा लिया। इस आयोजन का यह असर रहा कि टीवी और प्रिंट मीडिया ने भोजपुरी सिनेमा को प्रमुखता से कवरेज दिया। कल तक पढ़े-लिखे तबके के लिए जो सिनेमा हाशिए पर था और जिसकी तरफ ध्यान देने की उसे जरूरत भी नहीं महसूस होती थी, उसके ड्राइंग रूम में टीवी और अखबारों के जरिए भोजपुरी सिनेमा पहुंच गया।
तीन दिनों के विमर्श और गहमागहमी में भोजपुरी सिनेमा पर मुख्य रूप से अश्लीलता और फूहड़ता का आरोप लगा। कहा गया कि फिल्मों के टाइटिल और गाने इतने गंदे होते हैं कि कोई भी परिवार के साथ इन फिल्मों को देखने नहीं जा सकता। फिल्म में द्विअर्थी संवाद होते हैं। हीरो-हीरोइनों के लटकों-झटकों में निर्लज्जता रहती है। इन आरोपों में सच्चाई है, लेकिन भोजपुरी सिनेमा सिर्फ अश्लीलता और फूहड़ता तक सीमित नहीं है। भोजपुरी में भी साफ-सुथरी और पारिवारिक फिल्में बनती हैं। समस्या है कि उन फिल्मों को दर्शक देखने भी नहीं जाते। भोजपुरी सिनेमा पर बात करते समय हमें यह ख्याल रखना चाहिए कि इस फिल्म का दर्शक कौन है? हम अपनी आलोचना और विमर्श में स्थिति-परिस्थिति पर गौर किए बगैर अपनी अपेक्षाएं खोजने लगते हैं। हम आदर्श की कल्पना करते हैं और फिर उसी की मांग करने लगते हैं। आलोचकों का एक तबका इस बात से परेशान है कि पढ़ा-लिखा दर्शक भोजपुरी फिल्में नहीं देखना चाहता। मेरा सवाल है कि हम उन दर्शकों की बातें क्यों नहीं कर रहे हैं, जो भोजपुरी फिल्में देख रहे हैं। उन्होंने भोजपुरी सिनेमा को यह रवानगी दी है। उन अनपढ़, गंवार, अशिक्षित और श्रमिक वर्ग के दर्शकों ने ही भोजपुरी सिनेमा को जिंदा रखा है। अभी का भोजपुरी सिनेमा किसी जंगल की तरह फैल रहा है। इसकी हरियाली से जाहिर है कि भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री उर्वर है। जो जमीन उर्वर हो, वहां मौसम और प्रकृति के अनुसार दूसरे पेड़-पौधे भी उगाए जा सकते हैं।
आज भोजपुरी सिनेमा के दर्शक सिर्फ बिहार और यूपी तक ही सीमित नहीं हैं। पिछले दस-पंद्रह सालों में बिहार और यूपी से रोजगार की तलाश में लाखों श्रमिकों का मुंबई, दिल्ली और पंजाब की तरफ पलायन हुआ है। ये श्रमिक अपने काम से फ्री होने के बाद भोजपुरी सिनेमा के दर्शक हो जाते हैं। इनकी जिंदगी पर कभी विस्तार से शोध हो तो पता चलेगा कि वे किस हाल में महानगरों में रहते हैं। वहां अपनी थकान दूर करने के लिए मनोरंजन के नाम पर उनके पास भोजपुरी फिल्में ही होती हैं। चूंकि पिछले सालों में सामूहिकता का ह्रास हुआ है, इसलिए अब भजन-कीर्तन और बिरहा आदि के आयोजन भी नहीं होते। उनके लिए भोजपुरी सिनेमा मनोरंजन का वरदान है। वे सस्ते में ऐसे सिनेमा से अपना मनोरंजन करते हैं। उन्हें फिल्मों के अशिष्ट टाइटिल आकृष्ट करते हैं और फिल्म के अश्लील गानों में हीरो-हीरोइनों की उत्तेजक मुद्राओं से उनकी अतृप्त इच्छाओं का विरेचन होता है। मेरे ख्याल में भोजपुरी फिल्में अप्रत्यक्ष रूप से उनकी कामेच्छा का शमन करती हैं। अगर यह नहीं हो, तो बिल्डिंगों में वॉचमैन के रूप में कार्य कर रहे अतृप्त और असंतुष्ट जन जबरदस्ती पर उतर आएं। समाजशास्त्रियों को इस प्रकार का अध्ययन करना चाहिए। मुझे लगता है कि वर्तमान भेजपुरी सिनेमा जाने-अनजाने अनेक दायित्वों को निभा रहा है। भोजपुरी सिनेमा की गड़बडि़यां समय के साथ ठीक होंगी। भोजपुरी फिल्में किसी पहाड़ी नदी की तरह कभी वेग तो कभी मंथर गति से बहती रही हैं। अभी यह इंडस्ट्री वेगवान है, इसलिए मि˜ी-पत्थर सब समेटे बह रही है।
-अजय ब्रह्मात्मज
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