गालियों की बाढ़-सुनील दीपक
सच्चाई दिखाने के नाम पर अचानक लगता है कि हिन्दी फ़िल्मों में गालियों की बाढ़ आ रही है.
भारतीय लोकजीवन और लोकगीतों में प्रेम और सेक्स की बातों को स्पष्ट कहने की क्षमता बहुत पहले से थी. गाँवों में हुए कुछ विवाहों में औरतों को गालियाँ में और फ़िर दुल्हे तथा उसके मित्रों के साथ होने वाले हँसीमज़ाक में, शर्म की जगह नहीं होती थी. लेकिन साहित्य में इस तरह की बात नहीं होती थी. पिछले दशकों में पहले भारत में अंग्रेज़ी में लिखने वालों के लेखन में, और अब कुछ सालों में हिन्दी में लिखने वालों के लेखन में सच्चाई के नाम पर वह शब्द जगह पाने लगे हैं जिन्हें पहले आप सड़क पर या मित्रों में ही सुनते थे.
यह आलेख इसी बदलते वातावरण के बारे में है. चूँकि बात गालियों की हो रही है, इसलिए इस आलेख में कुछ अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया गया है, जिनसे अगर आप को बुरा लगे तो मैं उसके लिए क्षमा माँगता हूँ. अगर आप को अभद्र भाषा बुरी लगती है तो आप इस आलेख को आगे न ही पढ़ें तो बेहतर है.
***
"नो वन किल्लड जेसिका" (No one killed Jessica) फ़िल्म के प्रारम्भ में जब टीवी पत्रकार मीरा हवाई ज़हाज़ में साथ बैठे कुछ बेवकूफ़ी की बात करने वाले सज्जन को चुप कराने के लिए ज़ोर से कहती है, "वहाँ होते तो गाँड फ़ट कर हाथ में आ जाती", तो उन सज्जन के साथ साथ, ज़हाज़ में आगे पीछे बैठे लोगों के मुँह खुले के खुले रह जाते हैं.
ऐसा तो नहीं है कि उन सज्जन ने या ज़हाज़ में बैठे अन्य लोगों ने "गाँड" शब्द पहले नहीं सुना होगा, तो फ़िर शरीर के आम अंग की बात करने वाले इस शब्द के प्रयोग पर इतना अचरज क्यों?
अंग्रेज़ी उपन्यासों या फ़िल्मों में तो इस तरह के शब्द पिछले पचास साठ वर्षों में आम उपयोग किये जाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों या साहित्य में कुछ समय पहले तक इनका प्रयोग शायद केवल फुटपाथ पर बिकने वाली किताबों में ही मिल सकता था. 1970 के आसपास, दिल्ली के कुछ युवा साहित्यकारों ने मिल कर एक पतली सी पत्रिका निकाली थी जिसमें सेक्स के विषय पर कविता, कहानियाँ थीं और शायद उसके पीछे, हिन्दी साहित्य में इन विषयों पर बनी चुप्पी से विद्रोह करना था. क्या नाम था उस पत्रिका का, यह याद नहीं, बस उसका पीले रंग का कागज़ याद है. मेरे विचार में उसमें सब लेखक पुरुष थे, और हालाँकि सेक्स क्रिया के वर्णन उस समय के हिसाब से काफ़ी स्पष्ट थे, पर फ़िर भी उसमें लिंग, यौनी जैसे शब्दों तक ही बात रुक गयी थी, सड़क पर बोले जाने वाले आम शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया था.
भारत में अंग्रेज़ी लिखने बोलने वाले वर्ग ने पिछले बीस पच्चीस सालों में सेक्स से जुड़ी बातों और शब्दों की चुप्पी को बहुत समय से तोड़ दिया था. पुरुष लेखक ही नहीं शोभा डे जैसी लेखिकाओं ने भी एक बार लक्ष्मणरेखा को पार किया तो इनकी बाढ़ सी आ गयी. फ़िल्मों में अंगेज़ी की गालियाँ कभी कभार सुनाई देने लगीं. यानि फक (fuck), एसहोल (asshole), कंट (cunt) और प्रिक (prick) जैसे शब्द कहना अश्लीलता या अभद्रता नहीं थी, यह तो जीवन की सच्चाईयों को स्पष्ट भाषा में कहने का साहस था. पर यह साहस यह भी कहता था कि यह शब्द अंग्रेज़ी में ही कहे जा सकते हैं, हिन्दी में इन्हें कहना तब भी अभद्रता ही लगती थी. कुछ समय पहले सुकेतु मेहता की मेक्सिमम सिटी (Maximum city) में बम्बई में आये देश के विभिन्न भागों से आये लोगों की तरह तरह से गालियाँ देने पर पूरा अध्याय था.
1994 की शेखर कपूर की फ़िल्म बैंडिट क्वीन (Bandit Queen) में पहली बार माँ बहन की गालियाँ थीं, जिनसे फ़िल्म देखने वाले लोग कुछ हैरान से रह गये थे. गालियाँ ही नहीं, बलात्कार और यौनता, दोनो विषयों पर फ़िल्म में वह बातें कहने का साहस था, जिनको इतना स्पष्ट पहले कभी नहीं कहा गया था.
अगर बैंडीट क्वीन में बात चम्बल के गाँवों की थी तो देव बेनेगल की 1999 की फ़िल्म, "स्पलिट वाईड ओपन" (Split wide open) का विषय था बम्बई में पानी की कमी के साथ झोपड़पट्टी के रहने वालों के जीवन, उन्हें पानी बेच कर पैसा कमाने वाले गिरोह. कहानी के दो हिस्से थे, पानी बेचने वाले गिरोह के एक युवक की एक नाबालिग लड़की की तलाश जिसे वह अपनी बहन मानता था और टीवी पर जीवन के उन पहलुँओं पर जीवन कहानियाँ सुनाना जो पहले पर्दे के पीछे छुपी रहती थीं. शहर की गालियों की भाषा, नाबालिग बच्चियों से सेक्स की भाषा, और फ़िल्म का संदेश कि पुरुष और औरत के बीच केवल बेचने खरीदने का धँधा होता है चाहे वह विवाह के नाम से हो या रँडीबाजी से, कठोर और मन को धक्का देने वाले लगे थे.
"बैंडिट क्वीन" या "स्पलिट वाईड ओपन" में हिन्दी फ़िल्मों की रूमानी तवायफ़ नहीं थी जो "साधना" और "राम तेरी गँगा मैली" से हो कर "चमेली" तक आती थी. मेरे विचार में सिनेमा, साहित्य का काम मनोरँजन करना है तो उतना ही आवश्यक, जीवन के सत्य को दिखाना भी है, और यह सच है कि यौनिक हिँसा भी हमारे जीवन का हिस्सा है.
इन फ़िल्मों को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे, लेकिन उस समय इसकी भाषा पर आम अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ खास बहस हुई हो, यह मुझे याद नहीं, शायद इसलिए कि "बैंडिट क्वीन" और "स्पलिट वाईड ओपन" को अंग्रेज़ी फ़िल्में या फ़िर आर्ट फ़िल्में समझा गया था और हिन्दी सिनेमा देखने वालों को इनके बारे में अधिक मालूम नहीं था.
खैर "अभद्र शब्द" पिछले दस सालों में हिन्दी साहित्य और फ़िल्मों में जगह पाने लगे हैं. "हँस" जैसी साहित्यक पत्रिका में कभी कभार, कहानी में गालियाँ दिख जाती हैं. यह सच भी है कि आप की कहानी में दलित युवक को गुँडे मार रहे हों, मार कर उस पर मूत रहे हों, तो उस समय उसे "हरामी, कुत्ते, मैं तुम्हारी बहन और माँ की इज़्ज़त लूट लूँगा" नहीं कहेंगे, माँ बहन की गालियाँ ही देंगे, तो लेखक क्यों अपनी कहानी को सच्चे शब्दों में नहीं कहे?
पिछले दिनों जयपुर में हुए साहित्य फैस्टीवल में अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय मूल के लेखक जीत थायिल (Jeet Thayil) ने अपनी नयी अंगरेज़ी की किताब के कुछ अंश पढ़े.आप चाहें तो इसे वीडियो में देख सकते हैं. इस अंश में वह हिन्दी के दो शब्दों, "चूत" और "चूतिया", का प्रयोग इतनी बार करते हैं कि गिनती करना कठिन है. उनका यह उपन्यास बम्बई में अफ़ीमचियों और नशेबाजों के बारे में है. पर अगर वह संभ्रांत सभा में पढ़े लिखे लोगों के सामने बैठ कर अपने उपन्यास के इस हिस्से को पढ़ते हैं, तो क्यों? मेरे विचार में इसका ध्येय यह भी है कि समाज में इन शब्दों के पीछे छुपे विषयों पर दिखावे और झूठ का पर्दा पड़ा है, और यह लेखक का विद्रोह है कि वह इस दिखावे और झूठ में साझीदारी नहीं करना चाहता.
पर एक अन्य वजह भी हो सकती है, अचानक इस गालियों की बाढ़ की. चाहे ऊपर से कितना बने और कितना कहें कि यह अभद्र है, यह नहीं होना चाहिये, पर इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि सेक्स बिकता है. शोभा डे जैसे लेखकों के लेखन में कितनी कला है और कितना बिकने वाला सेक्स, इसकी बहस से क्या फायदा?
***
हिन्दी फ़िल्मों में गालियों के आने से भाषा अनुवाद के प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं. कुछ मास पहले मैं फ़िल्म निर्देशक ओनीर की नयी फ़िल्म, "आई एम" (I am) के सबटाईटल का इतालवी अनुवाद कर रहा था. फिल्म में एक हिस्सा है जिसमें एक पुलिसवाला एक समलैंगिक युगल को पकड़ कर उन्हें बहुत गालियाँ देता है. इसका इतालवी अनुवाद करते समय मैं यह सोच रहा था कि माँ बहन की गालियों जैसे शब्दों का किस तरह अनुवाद करना चाहिये? शाब्दिक अनुवाद करुँ या उन शब्दों का प्रयोग करूँ जो इस तरह के मौके पर इतालवी लोग बोलते हैं?
हिन्दी फ़िल्मों के अंग्रेज़ी के सबटाईटल में अक्सर माँ बहन की गालियों का शाब्दिक अनुवाद किया जाता है, पर मुझे लगता है कि वह गलत है, क्योंकि भारत में भी अंग्रेज़ी में गाली देने वाले, अंग्रेज़ तरीके की गालियाँ ही देते हैं, जो हमने अमरीकी फ़िल्मों और किताबों से सीखी हैं, वह हिन्दी गालियों के अंग्रेज़ी अनुवाद नहीं हैं.
अभी हिन्दी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में इतना साहस नहीं कि वह इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर सकें, पर इसके लिए उन्हें अपने आप को सेंसर करना पड़ेगा. कल बर्लिन फ़िल्म फेस्टीवल का प्रारम्भ हुआ. इस वर्ष फेस्टिवल में एक कलकत्ता के फ़िल्मकार की फ़िल्म भी है जिसका नाम है "गाँडू".
फेस्टिवल की निर्देशिका ने एक साक्षात्कार में कहा है कि भारत से आने वाली फ़िल्मों में यह उनकी नज़र में सबसे साहसी और विचारोत्तेजक फ़िल्म है. अगर इस फ़िल्म को पुरस्कार मिलेगा तो हिन्दी के समाचार पत्र और पत्रिकाएँ और टीवी चैनल इस समाचार को किन शब्दों में देगे? फ़िल्म के नाम पर बीप करेंगे? फ़िल्म के विषय और कहानी को कैसे बतायेंगे? और वह फ़िल्म का भारत में सिनेमा हाल पर दिखायी जायेगी, उसके विज्ञापन अखबारों में छपेंगे तो लोग क्या कहेंगे?
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तो आप का क्या विचार है गालियों के इस खुलेपन के बारे में? क्या यह अच्छी बात है? शब्द तो वही पुराने हैं पर साहित्य में, फ़िल्मों में उन्हें इस तरह दिखाना क्या सही है?
एक तरफ़ से मुझे लगता है कि यौनता हमारे जीवन का अभिन्न अंग है लेकिन सब पर्दों के पीछे छुपा हुआ है. यौनता से जुड़ी किसी बात पर खुल कर बात करना कठिन है. इसलिए मुझे लगता है कि अगर इन शब्दों से यौनता के विषय पर बात करना सरल हो जायेगा, यह विषय पर्दे से बाहर आ जायेगा, तो यह अच्छी बात ही है. यह शब्द हमारे जीवन का अंग हैं, गुस्से में गाली देना या वैसे ही आदत से गाली देना, दोनो जीवन का हिस्सा ही हैं और जीवन के यथार्थ को साहित्य, कला और फ़िल्म में दिखाना आवश्यक है.
दूसरी ओर यह भी लगता है कि जीवन में इतनी हिँसा है, यह शब्द, यह गालियाँ भी उसी हिँसा का हिस्सा बन जायेंगी, इनसे साहित्य या फ़िल्म में यथार्थ नहीं आयेगा, बल्कि यथार्थ उसी हिँसा में दब जायेगा.
शायद यह सब बहस इसीलिए है कि अभी हिन्दी साहित्य और फ़िल्मों में इन शब्दों के सामने आने का नयापन है. साठ सालों से अंग्रेज़ी या इतालवी या अन्य भाषाओं के साहित्य और फ़िल्मों से यह नहीं हुआ कि बिना इन शब्दों के साहित्य और फ़िल्म बनना बँद हो गया हो, हर लेखक, निर्देशक अपनी संवेदना और विषय के स्वरूप ही चुनता है कि किन शब्दों में, किस पढ़ने वाले या देखने वाले के लिए अपनी रचना रचे.
भारतीय लोकजीवन और लोकगीतों में प्रेम और सेक्स की बातों को स्पष्ट कहने की क्षमता बहुत पहले से थी. गाँवों में हुए कुछ विवाहों में औरतों को गालियाँ में और फ़िर दुल्हे तथा उसके मित्रों के साथ होने वाले हँसीमज़ाक में, शर्म की जगह नहीं होती थी. लेकिन साहित्य में इस तरह की बात नहीं होती थी. पिछले दशकों में पहले भारत में अंग्रेज़ी में लिखने वालों के लेखन में, और अब कुछ सालों में हिन्दी में लिखने वालों के लेखन में सच्चाई के नाम पर वह शब्द जगह पाने लगे हैं जिन्हें पहले आप सड़क पर या मित्रों में ही सुनते थे.
यह आलेख इसी बदलते वातावरण के बारे में है. चूँकि बात गालियों की हो रही है, इसलिए इस आलेख में कुछ अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया गया है, जिनसे अगर आप को बुरा लगे तो मैं उसके लिए क्षमा माँगता हूँ. अगर आप को अभद्र भाषा बुरी लगती है तो आप इस आलेख को आगे न ही पढ़ें तो बेहतर है.
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"नो वन किल्लड जेसिका" (No one killed Jessica) फ़िल्म के प्रारम्भ में जब टीवी पत्रकार मीरा हवाई ज़हाज़ में साथ बैठे कुछ बेवकूफ़ी की बात करने वाले सज्जन को चुप कराने के लिए ज़ोर से कहती है, "वहाँ होते तो गाँड फ़ट कर हाथ में आ जाती", तो उन सज्जन के साथ साथ, ज़हाज़ में आगे पीछे बैठे लोगों के मुँह खुले के खुले रह जाते हैं.
ऐसा तो नहीं है कि उन सज्जन ने या ज़हाज़ में बैठे अन्य लोगों ने "गाँड" शब्द पहले नहीं सुना होगा, तो फ़िर शरीर के आम अंग की बात करने वाले इस शब्द के प्रयोग पर इतना अचरज क्यों?
अंग्रेज़ी उपन्यासों या फ़िल्मों में तो इस तरह के शब्द पिछले पचास साठ वर्षों में आम उपयोग किये जाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों या साहित्य में कुछ समय पहले तक इनका प्रयोग शायद केवल फुटपाथ पर बिकने वाली किताबों में ही मिल सकता था. 1970 के आसपास, दिल्ली के कुछ युवा साहित्यकारों ने मिल कर एक पतली सी पत्रिका निकाली थी जिसमें सेक्स के विषय पर कविता, कहानियाँ थीं और शायद उसके पीछे, हिन्दी साहित्य में इन विषयों पर बनी चुप्पी से विद्रोह करना था. क्या नाम था उस पत्रिका का, यह याद नहीं, बस उसका पीले रंग का कागज़ याद है. मेरे विचार में उसमें सब लेखक पुरुष थे, और हालाँकि सेक्स क्रिया के वर्णन उस समय के हिसाब से काफ़ी स्पष्ट थे, पर फ़िर भी उसमें लिंग, यौनी जैसे शब्दों तक ही बात रुक गयी थी, सड़क पर बोले जाने वाले आम शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया था.
भारत में अंग्रेज़ी लिखने बोलने वाले वर्ग ने पिछले बीस पच्चीस सालों में सेक्स से जुड़ी बातों और शब्दों की चुप्पी को बहुत समय से तोड़ दिया था. पुरुष लेखक ही नहीं शोभा डे जैसी लेखिकाओं ने भी एक बार लक्ष्मणरेखा को पार किया तो इनकी बाढ़ सी आ गयी. फ़िल्मों में अंगेज़ी की गालियाँ कभी कभार सुनाई देने लगीं. यानि फक (fuck), एसहोल (asshole), कंट (cunt) और प्रिक (prick) जैसे शब्द कहना अश्लीलता या अभद्रता नहीं थी, यह तो जीवन की सच्चाईयों को स्पष्ट भाषा में कहने का साहस था. पर यह साहस यह भी कहता था कि यह शब्द अंग्रेज़ी में ही कहे जा सकते हैं, हिन्दी में इन्हें कहना तब भी अभद्रता ही लगती थी. कुछ समय पहले सुकेतु मेहता की मेक्सिमम सिटी (Maximum city) में बम्बई में आये देश के विभिन्न भागों से आये लोगों की तरह तरह से गालियाँ देने पर पूरा अध्याय था.
1994 की शेखर कपूर की फ़िल्म बैंडिट क्वीन (Bandit Queen) में पहली बार माँ बहन की गालियाँ थीं, जिनसे फ़िल्म देखने वाले लोग कुछ हैरान से रह गये थे. गालियाँ ही नहीं, बलात्कार और यौनता, दोनो विषयों पर फ़िल्म में वह बातें कहने का साहस था, जिनको इतना स्पष्ट पहले कभी नहीं कहा गया था.
अगर बैंडीट क्वीन में बात चम्बल के गाँवों की थी तो देव बेनेगल की 1999 की फ़िल्म, "स्पलिट वाईड ओपन" (Split wide open) का विषय था बम्बई में पानी की कमी के साथ झोपड़पट्टी के रहने वालों के जीवन, उन्हें पानी बेच कर पैसा कमाने वाले गिरोह. कहानी के दो हिस्से थे, पानी बेचने वाले गिरोह के एक युवक की एक नाबालिग लड़की की तलाश जिसे वह अपनी बहन मानता था और टीवी पर जीवन के उन पहलुँओं पर जीवन कहानियाँ सुनाना जो पहले पर्दे के पीछे छुपी रहती थीं. शहर की गालियों की भाषा, नाबालिग बच्चियों से सेक्स की भाषा, और फ़िल्म का संदेश कि पुरुष और औरत के बीच केवल बेचने खरीदने का धँधा होता है चाहे वह विवाह के नाम से हो या रँडीबाजी से, कठोर और मन को धक्का देने वाले लगे थे.
"बैंडिट क्वीन" या "स्पलिट वाईड ओपन" में हिन्दी फ़िल्मों की रूमानी तवायफ़ नहीं थी जो "साधना" और "राम तेरी गँगा मैली" से हो कर "चमेली" तक आती थी. मेरे विचार में सिनेमा, साहित्य का काम मनोरँजन करना है तो उतना ही आवश्यक, जीवन के सत्य को दिखाना भी है, और यह सच है कि यौनिक हिँसा भी हमारे जीवन का हिस्सा है.
इन फ़िल्मों को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे, लेकिन उस समय इसकी भाषा पर आम अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ खास बहस हुई हो, यह मुझे याद नहीं, शायद इसलिए कि "बैंडिट क्वीन" और "स्पलिट वाईड ओपन" को अंग्रेज़ी फ़िल्में या फ़िर आर्ट फ़िल्में समझा गया था और हिन्दी सिनेमा देखने वालों को इनके बारे में अधिक मालूम नहीं था.
खैर "अभद्र शब्द" पिछले दस सालों में हिन्दी साहित्य और फ़िल्मों में जगह पाने लगे हैं. "हँस" जैसी साहित्यक पत्रिका में कभी कभार, कहानी में गालियाँ दिख जाती हैं. यह सच भी है कि आप की कहानी में दलित युवक को गुँडे मार रहे हों, मार कर उस पर मूत रहे हों, तो उस समय उसे "हरामी, कुत्ते, मैं तुम्हारी बहन और माँ की इज़्ज़त लूट लूँगा" नहीं कहेंगे, माँ बहन की गालियाँ ही देंगे, तो लेखक क्यों अपनी कहानी को सच्चे शब्दों में नहीं कहे?
पिछले दिनों जयपुर में हुए साहित्य फैस्टीवल में अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय मूल के लेखक जीत थायिल (Jeet Thayil) ने अपनी नयी अंगरेज़ी की किताब के कुछ अंश पढ़े.आप चाहें तो इसे वीडियो में देख सकते हैं. इस अंश में वह हिन्दी के दो शब्दों, "चूत" और "चूतिया", का प्रयोग इतनी बार करते हैं कि गिनती करना कठिन है. उनका यह उपन्यास बम्बई में अफ़ीमचियों और नशेबाजों के बारे में है. पर अगर वह संभ्रांत सभा में पढ़े लिखे लोगों के सामने बैठ कर अपने उपन्यास के इस हिस्से को पढ़ते हैं, तो क्यों? मेरे विचार में इसका ध्येय यह भी है कि समाज में इन शब्दों के पीछे छुपे विषयों पर दिखावे और झूठ का पर्दा पड़ा है, और यह लेखक का विद्रोह है कि वह इस दिखावे और झूठ में साझीदारी नहीं करना चाहता.
पर एक अन्य वजह भी हो सकती है, अचानक इस गालियों की बाढ़ की. चाहे ऊपर से कितना बने और कितना कहें कि यह अभद्र है, यह नहीं होना चाहिये, पर इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि सेक्स बिकता है. शोभा डे जैसे लेखकों के लेखन में कितनी कला है और कितना बिकने वाला सेक्स, इसकी बहस से क्या फायदा?
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हिन्दी फ़िल्मों में गालियों के आने से भाषा अनुवाद के प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं. कुछ मास पहले मैं फ़िल्म निर्देशक ओनीर की नयी फ़िल्म, "आई एम" (I am) के सबटाईटल का इतालवी अनुवाद कर रहा था. फिल्म में एक हिस्सा है जिसमें एक पुलिसवाला एक समलैंगिक युगल को पकड़ कर उन्हें बहुत गालियाँ देता है. इसका इतालवी अनुवाद करते समय मैं यह सोच रहा था कि माँ बहन की गालियों जैसे शब्दों का किस तरह अनुवाद करना चाहिये? शाब्दिक अनुवाद करुँ या उन शब्दों का प्रयोग करूँ जो इस तरह के मौके पर इतालवी लोग बोलते हैं?
हिन्दी फ़िल्मों के अंग्रेज़ी के सबटाईटल में अक्सर माँ बहन की गालियों का शाब्दिक अनुवाद किया जाता है, पर मुझे लगता है कि वह गलत है, क्योंकि भारत में भी अंग्रेज़ी में गाली देने वाले, अंग्रेज़ तरीके की गालियाँ ही देते हैं, जो हमने अमरीकी फ़िल्मों और किताबों से सीखी हैं, वह हिन्दी गालियों के अंग्रेज़ी अनुवाद नहीं हैं.
अभी हिन्दी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में इतना साहस नहीं कि वह इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर सकें, पर इसके लिए उन्हें अपने आप को सेंसर करना पड़ेगा. कल बर्लिन फ़िल्म फेस्टीवल का प्रारम्भ हुआ. इस वर्ष फेस्टिवल में एक कलकत्ता के फ़िल्मकार की फ़िल्म भी है जिसका नाम है "गाँडू".
फेस्टिवल की निर्देशिका ने एक साक्षात्कार में कहा है कि भारत से आने वाली फ़िल्मों में यह उनकी नज़र में सबसे साहसी और विचारोत्तेजक फ़िल्म है. अगर इस फ़िल्म को पुरस्कार मिलेगा तो हिन्दी के समाचार पत्र और पत्रिकाएँ और टीवी चैनल इस समाचार को किन शब्दों में देगे? फ़िल्म के नाम पर बीप करेंगे? फ़िल्म के विषय और कहानी को कैसे बतायेंगे? और वह फ़िल्म का भारत में सिनेमा हाल पर दिखायी जायेगी, उसके विज्ञापन अखबारों में छपेंगे तो लोग क्या कहेंगे?
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तो आप का क्या विचार है गालियों के इस खुलेपन के बारे में? क्या यह अच्छी बात है? शब्द तो वही पुराने हैं पर साहित्य में, फ़िल्मों में उन्हें इस तरह दिखाना क्या सही है?
एक तरफ़ से मुझे लगता है कि यौनता हमारे जीवन का अभिन्न अंग है लेकिन सब पर्दों के पीछे छुपा हुआ है. यौनता से जुड़ी किसी बात पर खुल कर बात करना कठिन है. इसलिए मुझे लगता है कि अगर इन शब्दों से यौनता के विषय पर बात करना सरल हो जायेगा, यह विषय पर्दे से बाहर आ जायेगा, तो यह अच्छी बात ही है. यह शब्द हमारे जीवन का अंग हैं, गुस्से में गाली देना या वैसे ही आदत से गाली देना, दोनो जीवन का हिस्सा ही हैं और जीवन के यथार्थ को साहित्य, कला और फ़िल्म में दिखाना आवश्यक है.
दूसरी ओर यह भी लगता है कि जीवन में इतनी हिँसा है, यह शब्द, यह गालियाँ भी उसी हिँसा का हिस्सा बन जायेंगी, इनसे साहित्य या फ़िल्म में यथार्थ नहीं आयेगा, बल्कि यथार्थ उसी हिँसा में दब जायेगा.
शायद यह सब बहस इसीलिए है कि अभी हिन्दी साहित्य और फ़िल्मों में इन शब्दों के सामने आने का नयापन है. साठ सालों से अंग्रेज़ी या इतालवी या अन्य भाषाओं के साहित्य और फ़िल्मों से यह नहीं हुआ कि बिना इन शब्दों के साहित्य और फ़िल्म बनना बँद हो गया हो, हर लेखक, निर्देशक अपनी संवेदना और विषय के स्वरूप ही चुनता है कि किन शब्दों में, किस पढ़ने वाले या देखने वाले के लिए अपनी रचना रचे.
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