धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ - राहुल सिंह

युवा कथाकार-आलोचक राहुल सिंह वैसे तो पेशे से प्राध्यापक हैं, लेकिन प्राध्यापकीय मिथ को झुठलाते हुए पढते-लिखते भी हैं। खासकर समसामयिकता राहुल के यहां जरूरी खाद की तरह इस्तेमाल में लायी जाती है। चाहे उनकी कहानियां हों या आलोचना, आप उनकी रचनाशीलता में अपने आसपास की अनुगूंजें साफ सुन सकते हैं। अभी हाल ही में प्रदर्शित ‘धोबीघाट’ पर राहुल ने यह जो आलेख लिखा है, अपने आपमें यह काफी है इस स्थापना के सत्यापन के लिए। आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है, क्या यह अलग से कहना होगा!

धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ
राहुल सिंह

अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता (प्लूरालिटी) है वह अपने लिए एक लोकतांत्रिक छूट भी हासिल कर लेता है। किसी एक के अनुभव से नहीं बल्कि ‘कई निगाहों से बनी एक तस्वीर’। फिल्म के कैनवास को पूरा करने में हाशिये पर पड़ी चीजें भी उतना ही अहम रोल अदा करती हैं जितने के वे किरदार जो केन्द्र में हैं। यों तो सतह पर हमें चार ही पात्र नजर आते हैं लेकिन असल में हैं ज्यादा-टैक्सी ड्राइवर, खामोश पड़ोसन, लता बाई, प्रापर्टी ब्रोकर, सलीम, लिफ्ट गार्ड और सलमान खान (चौंकिये मत, सलमान खान की भी दमदार उपस्थिति इस फिल्म में है।) सब मिलकर वह सिम्फनी रचते हैं जिससे मुम्बई का और हमारे समय का भी एक अक्स उभरता है।

जैसे की फिल्म की ओपनिंग सीन जहाँ यास्मीन नूर (कीर्ति मल्होत्रा) टैक्सी में बैठी मरीन ड्राइव से गुजर रही है। टैक्सी के सामने लगी ग्लास पर गिरती बारिश को हटाते वाइपर, चलती टैक्सी और बाहर पीछे छूटते मरीन ड्राइव के किनारे और इनकी मिली-जुली आवाजों के बीच टैक्सी ड्राइवर का यह पूछना कि ‘नयी आयी हैं मुम्बई में ?’ ड्राइवर कैसे ऐसा पूछने का साहस कर सका ? क्योंकि उसकी सवारी (यास्मीन) के हाथ में एक हैंडी कैम है जिससे वह मुम्बई को सहेज रही है। जिससे वह अनुमान लगाता है कि शायद यह मुम्बई में नयी आई है (आगे मुम्बई लोकल में शूट करते हुए भी उसे दो महिलायें टोकती हैं ‘मुम्बई में नयी आयी हो ?’)। फिर उनकी आपसी बात-चीत के क्रम में ही यह मालूम होता है कि वह मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) की रहनेवाली है और ड्राइवर जौनपुर (उत्तर प्रदेश) का। उसी शुरूआती दृश्य में टैक्सी के अंदर डैश बोर्ड में बने बाक्स पर लगे एक स्टिकर पर भी हैंडी कैम पल भर को ठिठकता है जिसमें एक औरत इंतजार कर रही है और उसकी पृष्ठभूमि में एक कार सड़क पर दौड़ रही है, और स्टिकर के नीचे लिखा हैः ‘घर कब आओगे ?’ यह उस ड्राइवर की कहानी बयां करने के लिए काफी है कि वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर कमाने के लिए मुम्बई आया है। इसके बाद भींगती बारिश में भागती कार से झांकती आँखें मुम्बई की मरीन ड्राइव को देखते हुए जो बयां करती है वह खासा काव्यात्मक है। “... समन्दर की हवा कितनी अलग है, लगता है इसमें लोंगों के अरमानों की महक मिली हुई है।” इस ओपनिंग सीन के बाद कायदे से फिल्म शुरु होती है चार शाट्स हैं पहला किसी निर्माणाधीन इमारत की छत पर भोर में जागते मजदूर का दूसरा उसके समानान्तर भोर की नीन्द में डूबी मुम्बई का तीसरा संभवतः उसी इमारत में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने का और चौथा दोपहर में खुले आसमान के नीचे बीड़ी के कश लगाते सुस्ताते मजदूर का। फिल्म के यह शुरुआती चार शाट्स फिल्म के एक दम आखिरी में आये चार शाट्स के साथ जुड़ते हैं। उन आखिरी चार शाट्स में पहला, दोपहर की भीड़ वाली मुम्बई है। दूसरा, शाम को धीरे-धीरे रेंगती मुम्बई और ऊपर बादलों की झांकती टुकड़ियाँ हैं। तीसरा, रात को लैम्प पोस्ट की रोशनी में गुजरनेवाली गाड़ियों का कारवां है और चौथा, देर रात में या भोर के ठीक पहले नींद में अलसाये मुम्बई का शाट्स है। इस तरह फिल्म ठीक उसी शाट्स पर खत्म होती है जहाँ फिल्म कायदे से शुरु हुई थी। एक चक्र पूरा होता है। लेकिन यह शाट्स भी मुम्बई के दो चेहरों को सामने रखता है। ‘अ टेल आव टू सिटीज’। जब एक (सर्वहारा) जाग रहा होता है तो दूसरा (अभिजन) गहरी नींद में होता है और पहला जब सोने की तैयारी कर रहा होता है तो दूसरा के लिए दिन शुरू हो रहा होता है (सलीम जब सोने की तैयारी कर रहा होता है, ठीक उसी वक्त अरूण के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा होता है)।

मुन्ना (प्रतीक बब्बर) यों तो पहली दुनिया का नागरिक है लेकिन उसके मन में उसी दूसरी दुनिया का नागरिक होने की चाह है, इस कारण वह अपनी नींद बेचकर सपना पूरा करने में लगा है। अरुण (आमिर खान) दूसरी दुनिया का नागरिक है और शॉय (मोनिका डोगरा) एक तीसरी दुनिया की, जो लगातार यह भ्रम पैदा करती है कि वह दूसरी दुनिया की नागरिक है। मतलब यह कि शॉय इनवेस्टमेंट बैंकिंग कन्सल्टेन्ट है दक्षिण एशियाई देशों में निवेश के रूझानों पर विशेषकर लघु और छोटी पूंजी पर आधारित पारंपरिक व्यवसायों की फील्ड सर्वे करके रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजी गई है। फिल्म के अंत की ओर बढ़ते हुए अचानक सिनेमा के पर्दे पर उभरने वाले उन पन्द्रह तस्वीरों की लड़ियों को याद कीजिए जिसमें डेली मार्केट जैसी जगह के स्टिल्स हैं, उन तस्वीरों में कौन लोग हैं इत्र बेचनेवाला, पौधे बेचनेवाला, जूते गाठनेवाला, मसक में पानी ढोनेवाला, रेलवे प्लेटफार्म पर चना-मूंगफली बेचनेवाला, गजरे का फूल बेचनेवाली, घरों में सजा सकनेवालों फूलों को बेचनेवाली, कान का मैल निकालनेवाला, चाकू तेज करनेवाला, मजदूर, पान बेचनेवाली, ताला की चाभी बनानेवाला, रेहड़ी और ठेला पर सामान खींचनेवाला, मछली बेचनेवाली आदि। इस काम के लिए उसे अनुदान मिला है और अनुदान देनेवाली संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क (अमेरिका) में है। मैक्डाॅनाल्ड के लगातार खुलते आउटलेट, अलग-अलग ब्राण्ड के उत्पादों का भारत का रुख करने और हर पर्व-त्योहार में भारतीय बाजार में चीन की आतंककारी उपस्थिति को देखते हुए, वायभ्रेन्ट गुजरात की अभूतपूर्व सफलता के मूल मे अनिवासी भारतीयों की भूमिका, भारतीय सरकार द्वारा उनको दी जाने वाली दोहरी नागरिकता, भारतीय इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया द्वारा उनके विश्व के ताकतवर लोगों में शुमार किये जाने की खबरों को तरजीह दिये जाने वाले परिवेश में शॉय एक कैरेक्टर मात्र न रह कर मेटाफर बन जाती है। मुन्ना को अगर प्रोलेतेरियत और अरुण को बुर्जुआ मान लें (जिसके पर्याप्त कारण मौजूद हैं) तो शॉय फिनांस कैपिटल की तरह बिहेव करती नजर आती है। खास कर तब जब वह अरुण से लगातार यह बात छिपा रही होती है कि वह मुन्ना को जानती है। मुन्ना और अरुण दोनों तक, जब चाहे पहुँच सकने की छूट शॉय को ही है। शॉय का कला प्रेम लगभग वैसा ही है जैसा सैमसंग का साहित्य प्रेम गत वर्ष हम देख चुके हैं। सभ्यता के विकास का इतिहास पूंजी के विकास का भी इतिहास है। और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया त्यों-त्यों मानवीय गुणों में हृास भी देखा गया। इस लिहाज से भी विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ा मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में ज्यादा मानवीय लगता है। आखिरी दृश्य में जब वह सड़कों पर बेतहाशा दौड़ता हुआ शॉय को अरुण का पता थमाता है, तब वह खुद इस बात की तस्दीक कर रहा होता है कि कुछ देर पहले वह झूठ बोल रहा था। शॉय भी कई जगहों पर झूठ बोलती है, बहाने बनाती है लेकिन न तो पकड़ में आती है और न ही अपराध बोध से ग्रसित नजर आती है।

साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया को ‘धोबी घाट’ बेहद बारीकी से उभारती है। और यह महीनी सिर्फ इसी प्रसंग तक सिमट कर नहीं रह गई है। एक चित्रकार के तौर पर अरुण का अपने कला के सम्बन्ध में व्यक्त उद्गार ध्यान देने लायक है। “मेरी कला समर्पित है, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और अन्य जगहों के उन लोगों का जिन्होंने इस शहर को इस उम्मीद से बनाया था कि एक दिन उन्हंे इस शहर में उनकी आधिकारिक जगह (राइटफुल प्लेस) मिल जायेगी। मेरी कला समर्पित है उस बाम्बे को।” अरुण यहाँ मुम्बई नहीं कहता है बाम्बे कहता है। अगर पूरे संदर्भ में आप बाम्बे संबोधन को देखें तो आप किरण की सिनेमाई चेतना की तारीफ किये बिना नहीं रह सकेंगे। हाल के दिनों में शायद ही किसी फिल्मकार ने शिव सेना की राजनीति का ऐसा मुखर प्रतिरोध करने की हिम्मत और हिमाकत दिखलायी है। प्रतिरोध की ऐसी बारीकी हाल के दिनों में एक आस्ट्रेलियाई निर्देशक Michael Haneke की फिल्म Cache i.e. Hidden (2005) में देखी थी।

मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में यास्मीन नूर सहजता से किसी खांचे में नहीं आती। कहीं यह मुन्ना के करीब लगती है तो कहीं अरुण और शॉय के। मुन्ना और यास्मीन इस मामले में समान है कि दोनों अल्पसंख्यक वर्ग से तालुक रखते हैं, दोनां हिन्दी भाषी प्रदेश क्रमशः मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) और दरभंगा (बिहार) से हैं, दोनों रोजगार के सिलसिले में मुम्बई आते हैं (यास्मीन निकाह कर के अपने शौहर के साथ मुम्बई आई है। निम्न वर्ग या निम्न वित्तीय अवस्था वाले परिवारांे में लड़कियों के लिए विवाह भी एक कैरियर ही है।) इसके अलावा मुन्ना और शॉय के साथ मुम्बई में एक आउटसाइडर की हैसियत से साथ खड़ी नजर आती है। उसकी संवेदनशीलता उसे अरुण के साथ जोड़ती है। इन सबको जो चीज आपस में जोड़ती है, वह है मुम्बई, जिसकी बारिश और समन्दर ये आपस में साझा करते हैं। आप पायेंगे कि इन सबके जीवन में समन्दर और बारिश के संस्मरण मौजूद हैं। यह उनके एक साझे परिवेश से व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता है। यास्मीन के नक्शे कदम पर अरुण समन्दर के पास जाता है। मुन्ना और शॉय साथ-साथ समन्दर के किनारे वक्त बिताते हैं। लेकिन यास्मीन, बारिश और समन्दर जब भी पर्दे पर आते हैं फिल्म में हम कविता को आकार ग्रहण करते देखने लगते हैं। जैसे-“यहाँ की बारिश बिल्कुल अलग है, न कभी कम होती है, न कभी रुकने का नाम लेती है, बस गिरती रहती है, शश्श्श्......., रात को इसकी आवाज जैसे लोरी हो, जो हमें घेर लेती है अपने सीने में।” बारिश के समय अरुण अपनी पेंटिग में लीन हो जाता है तो शॉय अरुण के साथ बिताये गये अपने अंतरंगता के क्षणों में लेकिन इन सब की रोमानियत पर मुन्ना का यथार्थ पानी फेर देता है क्योंकि बारिश के वक्त मुन्ना अपनी चूती छत ठीक कर रहा होता है। इन तमाम समानताओं के बावजूद मुझे यास्मीन मुन्ना के ही नजदीक लगी। वह मारी गई अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण, पूरी फिल्म उसकी इस अतिरिक्त संवेदनशीलता का साक्षी है चाहे वह दाई का प्रसंग हो या किसी सदमे के कारण खामोश हो चुकी पड़ोसन का या फिर बकरीद के अवसर पर उसके उद्गार। एक लगातार संवेदनशून्य होते समय में संवेदनशीलता को कैसे बचाया जा सकता है। जो बचे रह गये उनकी संवेदनशीलता उतनी शुद्ध या निखालिस नहीं थी। शायद इसलिए यास्मीन की मौत मेरे जेहन में एक कविता के असमय अंत का बिम्ब नक्श कर गई। वैसे यहाँ ‘आप्रेस्ड क्लास’ के साथ ‘जेंडर’ वाला आयाम भी आ जुड़ता है। एक समान परिस्थितियों में भी पितृसत्तात्मक समाज किस कदर पुरुष की तुलना में स्त्री विरोधी साबित होता है। यास्मीन का प्रसंग इस लिए भी दिलचस्प है कि खुद आमिर खान ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के बाद किरण को अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था। फिल्म में इस ऐंगल को शामिल किये जाने मात्र से भी किरण की बोल्डनेस का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस कोण से ही फिल्म का दूसरा सिरा खुलता है जो यास्मीन की उपस्थिति और उसके सांचे में फिट न बैठ सकने की गुत्थी का हल प्रस्तुत करता है। यहीं मुन्ना यास्मीन का विस्तार (एक्सटेंशन) नजर आता है। यास्मीन सिर्फ इस कारण से नहीं मरी कि वह अतिरिक्त संवेदनशील थी वह इसलिए मरी कि उसमें आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता की कमी थी। मुन्ना भी लगभग उन्हीं स्थितियों में पहुँच जाता है जिन परिस्थितियों में यास्मीन ने आत्महत्या की है, (सलीम की हत्या हो चुकी है, शॉय को उसके चूहा मारने के धंधे बारे में मालूम हो गया है, जिस इलाके में वह काम करता था वहाँ से उठा कर जोगेश्वरी के एक अपार्टमेंट में फेंक दिया गया है।)। शुरु में मुन्ना भी उन परिस्थितियों से मुँह चुराकर भागता है। लेकिन फिर सामना करता है। यह जान कर की शॉय अरुण को ढूँढ रही है वह खुद उसको अरुण का पता देता है। आप पायेंगे कि लगभग पिछले मौकों पर मुन्ना आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देता रहा है। जैसे वह शॉय के कपड़े पर नील पड़ जाने के कारण उसके नाराजगी को ज्यादा फैलने का मौका दिये बगैर कहता है “मैडम गलती हो गई दीजिए मैं ठीक करके देता हूँ।” जब शॉय मुफ्त में उसका पोर्टफोलियो अपने ढंग से बाहर नेचुरल तरीके से शूट करना चाहती है तो वह कहता है कि “भाई हमें नहीं चाहिए फ्रेश-व्रेश, आप स्टूडियो में शूट किजीये ना, खर्चा मैं भरता हूँ।” फिर भी ना-नुकुर की स्थिति बनता देख वह सीधा कहता है कि ‘आपको माॅडल्स फोटो लेने हैं कि नहीं! धंधा, मोहब्बत को गंवा कर भी फिल्म के अंत में ‘द लास्ट स्माइल’ की स्थिति में मुन्ना ही है, जो उम्मीद बंधाती है।

इसके अलावे पूरी फिल्म के बुनावट में जो बारीकी है वह स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले में की गई मेहनत को दर्शाती है। जैसे फिल्म के शुरुआती दृश्य में जब यास्मीन खुद के मलीहाबाद की बताती है तो उसकी अहमियत आधी फिल्म खत्म होने के बाद मालूम होती है जब वह इमरान को संबोधित करते हुए अपनी दूसरी चिट्ठी मे यह कहती है कि ‘वहाँ तो आम आ गये होंगे ना, यहाँ के आमों में वह स्वाद कहाँ ?’ मुन्ना की खोली में उसके इर्द-गिर्द रहनेवाली बिल्ली की नोटिस हम तब तक नहीं लेते हैं जब तक मुन्ना अपनी खोली नहीं बदलता। दूसरी बार जब मुन्ना शॉय की नील लगी शर्ट को ठीक करके वापस करने के लिए शॉय के फ्लैट पर जाता है तो शॉय मुन्ना को चाय के लिए भीतर बुलाती है उस वक्त दरवाजे के किनारे खड़ी एग्नेस (नौकरानी) फ्रेम में आती है। उसके फ्रेम में आने का मतलब ठीक अगले ही सीन मे समझ आ जाता है, जब एग्नैस चाय लेकर आती है, एक कप में और दूसरी ग्लास में। आप पायेंगे कि बेहद पहले अवसर पर ही मुन्ना को शॉय के द्वारा मिलने वाले अतिरिक्त भाव को भांपने में वह पल भर की देरी नहीं करती और आगे चलकर इस बारे में अपनी राय भी जाहिर करती है। मुन्ना के बिस्तर के पास लगे सलमान खान के पोस्टर की अहमियत का भान हमें फिल्म के आगे बढ़ने के साथ होता चलता है। मुन्ना की कलाइयों में बंधी मोटी चेन, डम्बल से मसल्स बनाते वक्त सामने आइने पर सलमान की फोटो को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। लेकिन तीन मौके और है जब हम फिल्म में सलमान खान की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हैं। पहला, जब शॉय मुन्ना से दूसरी बार किसी पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में संयोगवश मिलती है। दूसरा, जब वह मुन्ना का पोर्टफोलियो शूट कर रही होती है और तीसरा जब वह अरुण के साथ खुद को देख लिये जाने पर उससे विदा लेकर दौड़ती हुई मुन्ना के पास पहुँच कर कहती है कि आज तुम मुझे नागपाड़ा ले जाने वाले थे और फिल्म दिखाने वाले थे। फिल्म में सलमान खान की जबर्दस्त उपस्थिति को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। शरु में ही मुन्ना और सलीम केबल पर प्रसारित होने वाली जिस फिल्म को देखकर ठहाके लगाते हैं, वह सलमान खान अभिनीत हैलो ब्रदर है। फिर जब पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के क्रम में शॉय मुन्ना से मिलती है वह फिल्म है ‘युवराज’। मुन्ना अपने पोर्टफोलियो शूट के लिए जो पोज दे रहा होता है अगर सलमान खान के बिकने वाले सस्ते पोस्टकार्ड और पोस्टर को आपने देखा हो तो आप समझ सकते हैं कि मुन्ना उससे कितना मुतास्सिर है और जिस फिल्म को दिखाने की बात की थी मुन्ना ने वह फिल्म थी, ‘हैलो’। हैलो ब्रदर ‘युवराज’ और ‘हैलो’ दोनों फिल्में सलमान खान की है। इन कारणों से बाद में खोली बदलते वक्त मुन्ना द्वारा सावधानी से सलमान खान के पोस्टरों को उतारा जाना एक बेहद जरुरी दृश्य लगता है। लेकिन सिर्फ इस कारण से मैं सलमान खान की उपस्थिति को जबर्दस्त नहीं कह रहा हूँ। इन संदर्भों से जुड़े होने के बावजूद वैसा कहने की वजह दूसरी है। वह यह कि किसी भी फिल्म में यथार्थ के दो बुनियादी आयामः काल और स्थान (टाईम एण्ड स्पेस) को सहजता से पहचान जा सकता है। आम तौर पर हिन्दी सिनेमाई इतिहास में इस किस्म के प्रयोग कम ही देखने को मिले हैं जिसमें शहर को ही मुख्य किरदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो। जाहिर है जब आप शहर को प्रोजेक्ट कर रहे होते हैं तो रियलिटी का स्पेस वाला डाइमेंशन टाईम वाले फैक्टर की तुलना में ज्यादा महŸवपूर्ण हो उठता है। ‘धोबी घाट’ में भी ठीक यही हुआ है। आप मुम्बई को देख रहे हैं लेकिन वह कब की मुम्बई है ? कहें कि आज की तो मैं कहूंगा कि वह अक्टूबर-नवम्बर 2010 के आगे-पीछे की मुम्बई है, इतना स्पेस्फिक कैसे हुआ जा सकता है, इसके संकेत फिल्म में है। ‘धोबी घाट’ उस अंतराल की कहानी कहता है जब सलमान खान की ‘युवराज’ रीलिज हो चुकी थी और ‘हैलो’ चल रही थी और हैलो ब्रदर इतनी पुरानी हो चुकी थी कि उसका प्रसारण केबल पर होने लगा था। सलमान खान मुम्बई के उस स्पेस के टाईम फ्रेम को रिप्रेजेन्ट करता है। बस इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इसके लिए जिस ढ़ंग से सलमान खान का मल्टीपर्पस यूस किया गया है, वह किसी मामूली काबिलियत वाले निर्देशक के बूते की बात नहीं है। शहर को किरदार बनाने की दूसरी कठिनाई यह है कि स्टोरी नरेशन को ग्राफ या स्ट्रक्चर लीनियर नहीं हो सकता उसे सर्कुलर होना पडे़गा। किस्सागोई का यह सर्कुलर स्ट्रक्चर सुनने में जितना आसान है उसे फिल्माना उतना ही मुश्किल है। खासकर भारतीय दर्शक वर्ग जो लीनियर स्ट्रक्चर वाली फिल्मों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि वह उनके सिनेमाई संस्कार का पर्याय हो गया है। हिन्दी सिनेमाई इतिहास में जब से मैंने फिल्में देखनी शुरू की है, किरण राव का यह प्रयास कई मायने में मुझे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की याद दिला गया। जिस तरह रेणु ने अंचल को नायक बनाकर हिन्दी कथा साहित्य की परती पड़ी जमीन को तोड़ने का काम किया था, किरण ने भी लगभग वैसा ही किया है। इतना ही नहीं रेणु ने अपनी कहानियों को ‘ठुमरीधर्मा’ कहा था। संगीत का मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन इतना सुना है कि ठुमरी में कोई एक केन्द्रीय भाव या टेक होती है और बार-बार गाने के क्रम में वहाँ आकर सुस्ताते हैं, स्वरों के तमाम आरोह-अवरोह के बाद उस बुनियादी टेक को नहीं छोड़ते हैं, जिसे उसकी सार या आत्मा कह सकते हैं। ऐसा करते हुए हम उस अनुभूति को ज्यादा घनीभूत या सान्द्रता प्रदान कर रहे होते हैं जो प्रभाव को गाढ़ा करने का काम करता है। इस आवर्तन के जरिये आप उसके केन्द्र या नाभिक को ज्यादा संगत तौर पर उभार पाते हैं। रेणु ने इस शिल्प के जरिये अपनी कहानियों में अंचल की केन्द्रीयता को उभारने में सफलता पाई थी। लगभग वैसा ही शिल्प किरण ने अपनी इस फिल्म के लिए अख्तियार किया है। और यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि फिल्म में संभवतः बेगम अख्तर द्वारा गाया गये दो ठुमरी भी बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर मौजूद है। एक जब अरुण यास्मीन वाले घर में अपने सामानों को तरतीब दे रहा है और दूसरा जब मुन्ना बारिश में भींग कर शॉय को बाय कर रहा होता है और अरुण अपनी पैग में बारिश के चूते पानी को मिला कर पेन्टिग शुरू कर रहा होता है।

भारत के किसी एक शहर या अंचल को फिल्माना खासा चुनौतिपूर्ण है। उसमें भी मुम्बई जो लगभग एक जीता-जागता मिथ है। मुम्बई के नाम से ही जो बातें तत्काल जेहन में आती हैं उनमें मायानगरी, मुम्बई की लोकल, स्लम्स, गणपति बप्पा, जुहू चैपाटी, पाव-भाजी, भेल-पुरी, अंडरवल्र्ड, शिवसेना आदि तत्काल दिमाग में कौंध जाते हैं। इस सबसे मिलकर मुम्बई का मिथ बना है। फिल्म में यह सब हैं जो मुम्बई के इस मिथ को पुष्ट करता है। तो फिर नया क्या है ? नया इस मिथ को पुष्ट करते हुए उसकी आत्मा को बयां करना है। मुम्बई के इस मिथ या कहें कि स्टीरियोटाईप छवि को किरण निजी अनुभवों (पर्सनल एक्सपिरयेंसेज) के जरिये जाँचती है। अंत में मुन्ना की मुस्कान उस मुम्बईया स्प्रिट की छाप छोड़ जाती है जिसको हम ‘शो मस्ट गो आॅन’ के मुहावरे के तौर पर सुनते आये हैं।


अभिनय की दृष्टि से आमिर को छोड़कर सब बेहतरीन हैं। मोनिका डोगरा ने कुछ दृश्यों में जो इम्प्रोवाइजेशन किया है वह गजब है। चार उदाहरण रख रहा हूँ, एक जब उसके शर्ट पर वाईन गिरती है उस समय का उसका ‘डिलेयड पाॅज एक्सप्रेशन’, दूसरा जब फोटो शूट के वक्त मुन्ना पूछता है कि क्या मैं अपना टी शर्ट उतार दूं तब मोनिका ने जो फेस एक्स्प्रेशन दिया है, वह इससे पूर्व कमल हासन में ही दिखा करता था। तीसरा मुन्ना जब पहली बार कपड़ा देने उसके फ्लैट पर गया है, तब वह अपने हाथ को जिस अंदाज में हिला कर कहती है, ‘अंदर आओ।’ और चैथा जब वह अपने टैरेस पर उठने के ठीक बाद अपनी मां से बात कर रही है। पूरे फिल्म मंे प्रतीक बब्बर की बाॅडी लैंग्वेज ‘मि परफ्ेकशनिस्ट’ पर भारी है। इस पर तो काफी कुछ लिखा जा सकता है लेकिन फिलहाल इतना ही कि एक दृश्य याद कीजिए जहाँ मुन्ना शॉय के साथ फिल्म देख रहा है, शॉय के हाथ के स्पर्श की चाह से उपजा भय, रोमांच और संकोच सब उसके चेहरे पर जिस कदर सिमटा है, वह एक उदाहरण ही काफी जान पड़ता है। ‘जाने तू या जाने ना’ में अपनी छोटी भूमिका की छाप को प्रतीक बब्बर ने इस फिल्म में धुंधलाने नहीं दिया है। सलीम इससे पहले ‘पिपली लाइव’ में भी एक छोटी सी भूमिका निभा चुके हैं। यास्मीन को सिर्फ आवाज और चेहरे के बदलते भावों के द्वारा खुद को कन्वे करना था। और वह जितनी दफा स्क्रीन पर आती है उसकी झरती रंगत मिटती ताजगी को महसूस किया जा सकता है। आमिर के हाथों अरुण का किरदार फिसल जाता है, इसे देखते हुए आमिर के संदर्भ में पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि वे एक्टर नहीं स्टार हैं। अरूण कोई ऐसा किरदार नहीं था जिसके गेस्चर और पोस्चर के जरिये उसे कन्वे किया जा सकता था। लगान, मंगल पाण्डेय, तारे जमीन पर, गजनी, थ्री इडियट की तरह सिर्फ वेश-भूषा बदल लेने से ही अरुण पहचान लिया जाता ऐसी बात नहीं थी। अरुण के किरदार को अभिनीत नहीं करना था बल्कि जीना था। आमिर एक्टिंग के नाम पर उन कुछ बाहरी लक्षणों तक ही सिमट कर रह गये जिसे उनकी चिर-परिचित मुद्राओं के तौर पर हम देखते आये हैं। मसलन्, फैलती-सिकुड़ती पुतलियाँ, भवों पर पड़नेवाला अतिरिक्त बल, सर खुजाने और लम्बी सांसे छोड़ना वाला अंदाज आदि। यह लगभग वैसा ही सलूक है जैसा ‘चमेली’ में करीना कपूर ने किया था, उसने भी होंठ रंग कर, पान चबा कर, चमकीली साड़ी और गाली वाली जुबान के कुछ बाहरी लक्षणों के द्वारा चमेली को साकार करना चाहा था। उसी के समानांतर ‘चांदनी बार’ में तब्बू को देखने से किसी किरदार को जीने और अभिनीत करने के अंतर को समझा जा सकता है। बहरहाल इस लिहाज से मोनिका डोगरा सब पर भारी है।

अब अगर बात नेपथ्य की करें तो फिल्म का संगीत और सिनेमेटोग्राफी वाला पहलू बचता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है केवल बैकग्राउंड स्कोर है जिसके कम्पोसर हैं, ळनेजंअव ैंदजंवसंससं। इस साल हर फिल्म फेस्टिवल में जिस अर्जेन्टीनियाई फिल्म ‘दी ब्यूटीफूल’ ने सफलता के झंडे गाड़े हैं उसका संगीत भी गुस्ताव ने दिया है लगभग हर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके इस संगीतकार का जादू रह-रह कर थोड़े अंतराल पर ‘धोबी घाट’ में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। उन संवादहीन दृश्यों में खासकर जहाँ फिल्म की कहानी सुर-लहरियों पर तिरती आगे बढ़ती है। कहानी साउण्डट्रैक में संचरण करती है। ऐसा कई एक जगहों पर हैं। पर्दे पर आमिर खान प्रोडक्शन के साथ अजान सरीखा एक संगीत है जिसको बीच-बीच में पटरी पर दौड़ती ट्रेन की खट-खट-आहट तोड़ती है, मुन्ना और शॉय जब अंतरंगता के क्षणों में डूब रहे होते हैं। इसके अलावा अकेलापन, उदासी, प्यार जैसी भावनाओं को भी गहराने की कोशिश सुनी जा सकती है। गुस्ताव के साथ ही फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी सराहनीय है। खास कर तुषार कांति रे के वे पन्द्रह-सोलह स्टिल्स, जिसमें शॉय डेली मार्केट को अपनी निगाहों में कैद कर रही है। पर इससे भी ज्यादा प्रभावी वह दृश्य है जिसमें मुन्ना शॉय के साथ समन्दर किनारे बैठ कर डूबते सूरज को देख रहा है और वह डूबता सूरज मुन्ना के पीछे समन्दर के किनारे खड़ी किसी इमारत की उपरी मंजिलों पर लगे शीशे पर प्रतिबिम्बित हो रहा है। शुरू और आखिरी के चार-चार शाट्स की बात तो कर ही चुका हूँ। वैसे सिनेमेटोग्राफी को थोड़ा और सशक्त होना था क्योंकि एक ही साथ विडियो (यास्मीन), पेन्टिंग (अरुण), और फोटोग्राफी (शॉय) तीनों आर्ट फार्म की निगाह से मुम्बई को कैद करने की बात थी।

फिल्म कमजोर लगी आमिर के कारण और एक दूसरी बुनियादी गलती है सलमान खान के फिल्मों के नामोल्लेख के संदर्भ में किरण को करना सिर्फ इतना था कि मुन्ना से शॉय की दूसरी मुलाकात पर उन्हें ‘युवराज’ की जगह ‘हैलो’ देखने जाते हुए दिखलाना था और बाद में मुन्ना उसे ‘युवराज’ दिखाने का वादा कर रहा होता। ऐसा इसलिए कि ‘हैलो’ 10 अक्टूबर 2010 को रिलीज हुई थी और ‘युवराज’ 21 नवम्बर 2010 को। इससे रियलिटी के टाईम वाले डायमेन्सन की संगति भी बैठ जाती। फिलहाल तो इस फिल्म को देखने के बाद जिन बातों की प्रतिक्षा कर रहा हूँ उनमें अनुषा रिजवी और किरण राव की दूसरी फिल्म, ‘पिपली लाइव’ की मलायिका शिनाॅय व नवाजुददीन (राजेश) और ‘धोबी घाट’ की मोनिका डोगरा व प्रतीक बब्बर की अगली भूमिकाओं का इंतजार शामिल है।

Comments

anjule shyam said…
क्या चीज है ये समीक्षा तो बिलकुल नहीं है में नहीं मानता ये समीक्षा है... ये तो एक दर्शक के उद्गार हैं किसी पसंदीदा फिल्म के लिए जो बार बार शोट में खो जाता है... लिखना इतना डूब के लिखना किसी समीक्षक के बस की बात नहीं ये तो बस एक दर्शक ही कर सकता ..इतने सारे अंगिल से केवल एक दर्शक ही फिल्म को देख सकता है...फिल के लिए कितने एंगिल यूज किया है आपने..साफ पता चलता है पोस्ट पढ़ के बेहतरीन पोस्ट... डूब के लिखना और डूब के देखना.... क्या क्या कहूँ इस पोस्ट के लिए फ़िलहाल तो सिर्फ इतना ही...
Anonymous said…
Bhai khoob likhte hain!!!

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